Assets Of Judges : महात्मा गांधी ने कहा था कि अधिकारों का समर्पण ठीक है, लेकिन कर्तव्यों की अवहेलना पाप है. संविधान के संरक्षक होने के नाते जजों को अनेक विशेषाधिकार मिले हुए हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के जज के बंगले में नकदी जलने पर विवाद के बाद जजों के कर्तव्यों और जवाबदेही से जुड़े कुल पांच मसलों पर बड़ी बहस शुरू हो गयी है. ये मसले हैं- अदालतों में लंबित पांच करोड़ मामलों के जल्द निपटारे के लिए जजों के खाली पदों पर जल्द नियुक्तियां हों, कॉलेजियम की मनमर्जी के बजाय संसद के कानून से जजों की नियुक्ति हो, जजों की नियुक्ति वाले हाइकोर्ट में उनके रिश्तेदारों और बच्चों की वकालत पर रोक लगे, जजों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए लोकपाल ने जो आदेश पारित किया है, उस पर सुप्रीम कोर्ट की रोक खत्म हो तथा नेताओं और अफसरों की तरह जजों की संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा हो.
जजों को भारत सरकार के सचिव के बराबर वेतन मिलता है. वर्ष 1964 और 1968 में बनाये गये नियमों के अनुसार केंद्रीय सेवा के अधिकारियों, आइएएस और आइपीएस को चल और अचल संपत्तियों का विवरण देना आवश्यक है. अधिकारियों को अपनी पति या पत्नी और उन पर निर्भर बच्चों की संपत्ति का सालाना विवरण देना भी जरूरी है. संसदीय समिति की 145वीं रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2024 में 91 आइएएस अधिकारियों ने संपत्ति का ब्योरा नहीं दिया था. समिति के अनुसार डीओपीटी (कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग) को ऐसे अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करना चाहिए. समिति ने नियमों के सख्त अनुपालन के लिए केंद्रीय पोर्टल में राज्यों के साथ बेहतर तालमेल पर भी जोर दिया है.
हाइकोर्ट के जजों के वेतन-भत्तों के लिए 1954 में और सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए 1958 में संसद ने कानून बनाया था. उस कानून में जजों के वेतन, भत्ते, अवकाश, चिकित्सा सुविधाएं जैसी अनेक बातों का विस्तार से प्रावधान है. लेकिन उस कानून में संपत्ति की घोषणा के लिए स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं. न्यायपालिका में लोगों का भरोसा बरकरार रखने के लिए वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जेएस वर्मा की अगुवाई में सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों ने संपत्ति की स्वैच्छिक तौर पर घोषणा करने का सामूहिक संकल्प लिया था. उसके बाद हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रशासनिक तौर पर संपत्ति का विवरण आंतरिक तौर पर प्रधान न्यायाधीश को देना शुरू कर दिया. उसके बाद अक्तूबर, 2009 में यह संकल्प लिया गया कि सभी जज स्वैच्छिक तौर पर अपनी संपत्ति का विवरण वेबसाइट के माध्यम से सार्वजनिक करेंगे.
विधि आयोग ने 2009 की 230वीं रिपोर्ट में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी. दिवंगत सुशील कुमार मोदी की अध्यक्षता वाली विधि एवं न्याय मंत्रालय की संसदीय समिति ने जजों की संपत्ति की घोषणा को बाध्यकारी करने के लिए कानून में बदलाव करने की सिफारिश की थी. वर्ष 2002 में एडीआर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने वाले सभी नेताओं को शपथपत्र के माध्यम से संपत्ति के साथ दूसरे अनेक ब्योरे देने होते हैं. लेकिन जज आरटीआइ के दायरे में भी आने के लिए तैयार नहीं हैं. आरटीआइ के माध्यम से संपत्ति का ब्योरा हासिल करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में फैसला दिया था.
संसदीय समिति में द्रमुक के सांसद पी विल्सन ने कहा कि जजों को भी पारदर्शिता बरतते हुए अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करना चाहिए. कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने मनोज कुमार झा के जवाब में राज्यसभा में बताया कि संसदीय समिति की सिफारिशों पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी है. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के जजों की समिति विचार कर रही है. हाइकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के विवाद के बाद यह खबर आयी कि सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों ने संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करने का निर्णय लिया है. लेकिन वेबसाइट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के कुल 33 जजों में से 30 ने संपत्ति का ब्योरा दिया है. खबरों के मुताबिक, तकनीकी कारणों से जजों की संपत्ति के ब्योरे की फाइलें वेबसाइट में सार्वजनिक नहीं हो पा रही हैं. सनद रहे कि विवादों के घेरे में आये जस्टिस वर्मा ने संपत्ति का विवरण डमी फाइल के माध्यम से दिल्ली हाइकोर्ट की वेबसाइट में अपलोड किया था. जस्टिस वर्मा विवाद के बाद अनेक जजों ने वेबसाइट पर अपनी संपत्ति की घोषणा शुरू की. कुल 25 उच्च न्यायालयों में 769 न्यायाधीश हैं, जिनमें से 95 जजों यानी 12.3 प्रतिशत जजों ने अपनी संपत्ति की घोषणा वेबसाइट में की है. जिस दिल्ली हाईकोर्ट से विवाद की शुरुआत हुई, वहां 38 जजों में से महज सात लोगों ने वेबसाइट पर अपनी संपत्ति की घोषणा की है. पंजाब में 53 में से 30 और हिमाचल प्रदेश में 12 में से 11 जजों ने संपत्ति का विवरण वेबसाइट पर अपडेट करके स्वस्थ परंपरा स्थापित की है, जबकि मद्रास में 65 में पांच, छत्तीसगढ़ में 16 में एक और कनार्टक में 50 में सिर्फ एक जज ने ही अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक की है.
एक रिपोर्ट के अनुसार, इलाहाबाद, पटना, रांची, आंध्र प्रदेश, बॉम्बे, कलकत्ता, गुवाहाटी, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा समेत 18 हाईकोर्ट के किसी जज ने पिछले सप्ताह तक संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया था. तथ्य यह है कि संविधान की शपथ लेने वाले जज अपने ही संकल्प का समान रूप से पूरे देश में पालन नहीं कर रहे हैं. कॉलेजियम को बदलकर एनजेएसी जैसे कानून को पारित करने पर कई वर्षों से बहस और विवाद हो रहे हैं. लेकिन ‘एक देश-एक कानून’ के दौर में संसदीय समिति की सिफारिशों के अनुसार 1954 और 1958 के कानूनों में संसद से जरूरी बदलाव क्यों नहीं हो रहे? फ्रांसिस बेकन ने कहा था कि सुलेमान के शेरों को नीचे रहकर ही सिंहासन की रक्षा करनी चाहिए. लेकिन हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज अपने अधिकारों का पूरा इस्तेमाल करने के बाद कर्तव्यों के मामलों में चुप्पी साध जाते हैं. अफसरों, नेताओं और सरकार को संविधान का हवाला देने वाले जजों को लोकसेवक होने के कानूनी और नैतिक आदर्शों का पालन करने की जरूरत है. संसद से कानून बनने में देरी होने पर सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक या न्यायिक आदेश से संपत्तियों का ब्योरा सार्वजनिक करने का नियम बने, तो इससे न्यायपालिका की गरिमा के साथ जजों का रसूख भी बढ़ेगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)