हाजीपुर : कहने को जिला अस्पताल,लेकिन यहां जले हुए मरीजों के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं. जिले के सदर अस्पताल में बर्न केस के मरीजों के उपचार की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होने के कारण कई मरीजों की अकाल मौत हो चुकी है. जल जाने से जख्मी मरीजों को राजधानी पटना की शरण लेनी पड़ती है.
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सदर अस्पताल में बर्न यूनिट नहीं, मरीज बेहाल
हाजीपुर : कहने को जिला अस्पताल,लेकिन यहां जले हुए मरीजों के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं. जिले के सदर अस्पताल में बर्न केस के मरीजों के उपचार की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होने के कारण कई मरीजों की अकाल मौत हो चुकी है. जल जाने से जख्मी मरीजों को राजधानी पटना की शरण लेनी पड़ती है. […]
जबकि ऐसे मरीजों को त्वरित उपचार की जरूरत पड़ती है. कई बार ऐसा होता है,जब जले हुए मरीज पटना जाने के दौरान गांधी सेतु पर जाम में फंसने के चलते बीच रास्ते में ही तड़प कर दम तोड़ देते हैं.
जिले में शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो, जब किसी के जलने या जला दिये जाने की घटना नहीं होती हो. दहेज उत्पीड़न और घरेलू अत्याचार की बढ़ रही घटनाओं के कारण बर्न केसेज में इजाफा हो रहा है, जिसका शिकार खासकर महिलाएं हो रही हैं.
कई मामलों में पारिवारिक कलह से तंग आकर खुद से शरीर में आग लगाकर भी खुदकुशी के प्रयास किये जाते हैं. दोनों ही स्थिति में पहला काम पीड़ित व्यक्ति की जान बचाना होता है. सदर अस्पताल में आज तक यह व्यवस्था नहीं हो पायी, जिससे जले मरीजों का इलाज हो सके.
इलाज में देरी से चली जाती है जान
जले हुए मरीजों को भर्ती करने के लिए सदर अस्पताल में न तो बर्न वार्ड है और न ही इसके कोई विशेषज्ञ चिकित्सक हैं. बर्न यूनिट के अभाव में यहां पहुंचने वाले मरीजों को प्राथमिक उपचार के बाद सीधे पीएमसीएच भेज दिया जाता है. इससे मरीजों की जान पर आफत आ जाती है. चिकित्सकों का कहना है कि बर्न केस में टाइमिंग सबसे बड़ा फैक्टर है.
यदि मरीज सही समय पर अस्पताल पहुंच जाये और उसका त्वरित उपचार शुरू हो जाये, तो 80 प्रतिशत जल चुके मरीजों की भी जान बचायी जा सकती है.
इलाज में विलंब के कारण ही ऐसे मरीजों की ज्यादातर मौतें होती है. सदर अस्पताल में बर्न यूनिट या बर्न वार्ड नहीं होने के कारण यहां से रेफर किये गये मरीज जब पटना पहुंचते हैं, तो काफी देर हो चुकी होती है.
हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं को छोड़ दें, तो आग लगने से लोगों के जल जाने या झुलस जाने की घटनाएं गर्मी और ठंड के मौसम में बढ़ जाती है. गर्मी के दिनों में अगलगी की घटनाएं बढ़ने के कारण बर्न मरीजों की संख्या बढ़ती है. जबकि जाड़े के मौसम में अलाव तापने के दौरान ऐसी घटनाएं होती हैं.
जल कर जख्मी होने वालों में ज्यादातर वृद्ध, महिलाएं व बच्चे होते हैं. लोगों का कहना है कि यदि सदर अस्पताल में इलाज की कारगर व्यवस्था होती तो ऐसे मरीजों की जान बचायी जा सकती थी, जो इलाज में देरी के कारण असमय काल के गाल में समा जाते हैं.
अलग वार्ड नहीं होने से संक्रमण का खतरा
जले हुए मरीज को सामान्य मरीजों व लोगों के संपर्क से दूर रखना होता है. चूंकि इसमें मरीज को काफी इंफेक्शन होता है. इसलिए 40 प्रतिशत से अधिक जले हुए व्यक्ति को बर्न यूनिट में रखा जाना जरूरी है.
सामान्य बेड पर या अन्य रोगियों के बीच बर्न मरीज को रखे जाने से उसमें वायरस का तेजी से फैलाव होता है, जिससे मरीज सेप्टीसिमिया का शिकार हो सकता है. ऐसी स्थिति में मरीज को बचाना मुश्किल हो जाता है.
यह जानते हुए कि सामान्य वार्ड में जले मरीज को रखने पर न सिर्फ उसके लिए बल्कि इर्द गिर्द के अन्य मरीजों की सेहत पर खतरा उत्पन्न हो सकता है, बर्न मरीज को जेनरल वार्ड या इमरजेंसी वार्ड में भर्ती कर दिया जाता है. जानकारों का कहना है कि अस्पताल में अलग से बर्न वार्ड बनाया जाना निहायत जरूरी है, लेकिन अस्पताल प्रबंधन का इस पर कोई ध्यान नहीं है.
नहीं हैं विशेषज्ञ और ट्रेंड चिकित्साकर्मी
जले हुए मरीज का सही ढंग से इलाज तभी संभव है, जब विशेषज्ञ चिकित्सक के साथ ही विशेष रूप से प्रशिक्षित सर्जिकल स्टाफ मौजूद हो. सदर अस्पताल में ऐसा एक भी ड्रेसर या चिकित्साकर्मी नहीं, जिसे बर्न मामले में उपचार की विशेष जानकारी हो.
अस्पताल के एक चिकित्सा पदाधिकारी कहते हैं कि सदर अस्पताल प्रशासन को चाहिए कि यहां के कुछ कर्मियों को पीएमसीएच की बर्न यूनिट में प्रशिक्षण दिलाकर यहां मरीजों का उपचार कराये.
क्या कहते हैं अधिकारी
सदर अस्पताल में भवन और चिकित्सा कर्मियों की कमी के कारण यह संभव नहीं था. अब इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ रहा है और मैन पावर का अभाव भी दूर होने वाला है. सुविधा उपलब्ध हो जाने पर बर्न यूनिट के बारे में विचार किया जायेगा.
डाॅ इंद्रदेव रंजन,सिविल सर्जन
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