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संसदीय विशेषाधिकार पर प्रश्न

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com बीती 21 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी पर देश का विशेष ध्यान नहीं गया या उसका कम नोटिस लिया गया. उस दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था यानी संसद को सलाह दी कि उसे संविधान संशोधन करके सदन के अध्यक्षों से […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
बीती 21 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी पर देश का विशेष ध्यान नहीं गया या उसका कम नोटिस लिया गया. उस दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था यानी संसद को सलाह दी कि उसे संविधान संशोधन करके सदन के अध्यक्षों से दल-बदल कानून के तहत किसी सदस्य (सांसद/विधायक) की सदस्यता खत्म करने या बनाये रखने का विशेषाधिकार वापस लेने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. यानी, दल बदलने वाला सांसद/विधायक सदन की सदस्यता के योग्य रह गया है या नहीं, यह फैसला करने का अधिकार सदन के अध्यक्ष के पास अब नहीं रहना चाहिए.
दल-बदल कानून में व्यवस्था है कि सांसद अथवा विधायक की सदस्यता पर फैसला केवल और केवल सदन का अध्यक्ष ही कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट भी इस व्याख्या से सहमत होता आया है. अलग-अलग मामलों में वह कई बार निर्देश दे चुका है कि सदन के अध्यक्ष को किसी विशेष मामले में ‘उचित समय के भीतर’ निर्णय कर लेना चाहिए. अब उसकी राय इस व्यवस्था पर सिरे से ही पुनर्विचार करने की है.
ऐसी सलाह देने के कारण हैं. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि सदन के अध्यक्ष पद पर बैठा व्यक्ति अपने इस गरिमापूर्ण दायित्व के बावजूद एक पार्टी-विशेष से जुड़ा रहता है. इसलिए दल-बदल के मामलों में फैसला करते समय अध्यक्ष के आसन पर बैठे राजनीतिक व्यक्ति का विवेक प्रभावित होता है.
अत: सदन की सदस्यता के योग्य या अयोग्य घोषित करने का अधिकार किसी बाहरी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को सौंप देना चाहिए, जिसका प्रभारी सुप्रीम कोर्ट का अवकाशप्राप्त न्यायाधीश या किसी हाइकोर्ट का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या कोई अन्य व्यक्ति हो, ताकि फैसला ‘शीघ्र और निष्पक्ष ढंग से’ लिया जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने साफ माना है कि दल-बदल कानून पर फैसला लेते समय सदन के अध्यक्षों के फैसले राजनीतिक स्वार्थ से प्रभावित होते हैं. इसी कारण दल-बदल कानून बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा. बल्कि, अनेक बार उसका मखौल बनकर रह जाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने यह सलाह पहली बार नहीं दी है, बीते साल नवंबर में भी उसने ऐसी ही टिप्पणी की थी, जब कर्नाटक के कुछ विधायकों को दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का मामला विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित था. फैसला सुनाने से पहले वे ‘पूरी तरह आश्वस्त’ होना चाहते थे और इसमें समय लग रहा था. तब सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने पर तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यहां तक कहा था कि अगर कोई विधानसभा अध्यक्ष ‘अपनी’ पार्टी की इच्छा से अप्रभावित नहीं रह सकता, तो उसे उस पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है.
पिछले सप्ताह भी तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ऐसी ही बात कही. पीठ ने सवाल उठाया कि विधानसभा अध्यक्ष, जो एक राजनीतिक पार्टी से जुड़ा होता है, उसे राजनीतिक कारणों से दल-बदल करनेवाले सदस्य की सदस्यता के बारे में फैसला करने का एकमात्र और अंतिम अधिकार क्यों होना चाहिए. इसीलिए शीर्ष अदालत चाहती है कि संसद इस संवैधानिक व्यवस्था पर पुनर्विचार करे.
यह सलाह इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि हाल के वर्षों में ऐसे मामले बढ़ते आये हैं. अरुणाचल, उत्तराखंड, मणिपुर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आदि ताजा उदाहरण हैं. दल बदलवाले सदन की सदस्यता के योग्य रह गये हैं या नहीं, हर बार यह प्रश्न विधानसभा अध्यक्ष के पास पहुंचता है. वे अपने ‘विवेक’ का पूरा उपयोग करते हैं. कई बार फैसला तुरंत आ जाता है और कई मामलों में महीनों लंबित रहता है.
विधानसभा के अध्यक्षों के ‘विवेकपूर्ण’ फैसले से कभी कोई सरकार गिर जाती है और कोई अल्पमत में होने की संभावना के बावजूद बनी रहती है.
अनेक बार तो अध्यक्ष का लंबित फैसला और भी सदस्यों को दल-बदल करने के पर्याप्त अवसर देता लगता है. ऐसे में अक्सर प्रभावित पार्टी सुप्रीम कोर्ट पहुंचती है. वहां से यही फैसला आता है कि यह निर्णय करने का अधिकार सिर्फ विधानसभा अध्यक्ष को है और उन्हें ‘उचित समय’ के भीतर निर्णय दे देना चाहिए. यह ‘उचित समय’ क्या हो, यह भी अध्यक्ष ही तय करता है. कई बार इसमें महीनों लग जाते हैं. कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अध्यक्ष को एक समय-सीमा के भीतर निर्णय करने का निर्देश भी दिया, जिसे अध्यक्ष ने अपने अधिकारों में हस्तक्षेप माना.
जैसे-जैसे राजनीति में मूल्यहीनता आती गयी, हमारी कई संवैधानिक व्यवस्थाओं की कड़ी परीक्षा होती रही. संविधान निर्माताओं ने व्यवस्थाएं बनाते समय यही सोचा होगा कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता से निरपेक्ष होकर यथासंभव निष्पक्ष निर्णय देंगे. इसीलिए सदन के अध्यक्ष के आसन पर बैठनेवाले व्यक्ति से अपेक्षा की गयी है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रति समान भाव रखेगा. वर्तमान में ऐसा होता नहीं. तब क्या उपाय हो? क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदला जाना चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट चाहता है?
दल-बदल कानून भी एक तरह से हाल के वर्षों की व्यवस्था है. वह 1985 में बना, जब ‘आया राम, गया राम’ की नयी परिपाटी ने दलगत निष्ठा और मतदाता के चयन को खिलवाड़ बना दिया था. कुछ समय तक लगा कि नये कानून से दल-बदल का अनैतिक और स्वार्थी खेल रुक रहा है या कुछ अंकुश लग रहा है. शीघ्र ही इस कानून से बचने के संवैधानिक रास्ते भी निकाल लिये गये. तब? यदि सुप्रीम कोर्ट की राय के अनुसार सदन के अध्यक्ष का अधिकार किसी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को दिया जाये, तो आज के दौर में क्या गारंटी है कि वह यथासंभव निष्पक्ष और दबाव-मुक्त रह ही सकेगा?
हमारे संविधान निर्माता बड़े दूरदर्शी थे. उन्होंने विचारों और मूल्यों की राजनीति की थी. ऐसी ही अपेक्षा वे अगली पीढ़ी से भी करते थे, हालांकि आशंकित भी थे. 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में डॉ आंबेडकर और डॉ राजेंद्र प्रसाद दोनों ने स्पष्ट चेता दिया था कि हम चाहे कितना ही अच्छा संविधान बना दें, यदि संविधान के पालन का दायित्व निभानेवाले अच्छे नहीं हुए, तो संविधान भी अच्छा साबित नहीं होगा.
कमी कानून या संविधान में नहीं, उसकी असली मंशा समझने और उसे लागू करनेवालों में है. ऐसे में क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदलकर उस मंशा की रक्षा की जा सकती है, जो संविधान का मूल ध्येय है?

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