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शासन के लिए नीतीश कुमार सामाजिक न्याय के लिए लालू

जनादेश का संदेश उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार बिहार के इस ऐतिहासिक जनादेश की कई तरह से व्याख्या होगी, लेकिन मेरी नजर में इसका सबसे बड़ा पहलू है- बिहार की जनता द्वारा लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के महागंठबंधन को दिया गया सकारात्मक समर्थन. लोगों ने अन्य पक्षों को जितना खारिज किया, उससे ज्यादा शिद्दत के साथ […]

जनादेश का संदेश
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
बिहार के इस ऐतिहासिक जनादेश की कई तरह से व्याख्या होगी, लेकिन मेरी नजर में इसका सबसे बड़ा पहलू है- बिहार की जनता द्वारा लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के महागंठबंधन को दिया गया सकारात्मक समर्थन. लोगों ने अन्य पक्षों को जितना खारिज किया, उससे ज्यादा शिद्दत के साथ नीतीश-लालू को अपनी मंजूरी दी.
सत्ता की दावेदारी ठोंक रही भाजपा के नये प्रतीक-पुरुष नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के एजेंडे को बिहार के लोगों ने नामंजूर कर दिया. राज्य में शासन के लिए नीतीश को बेहतर माना. इस मायने में यह महागंठबंधन यानी लालू-नीतीश की एकता के पक्ष में सकारात्मक जनादेश है.
नीतीश कुमार बीते दस सालों से राज्य के मुख्यमंत्री हैं, इसके बावजूद उनके खिलाफ ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ का न होना बहुत बड़ी राजनीतिक परिघटना है. बिहार के लोगों को लगा कि सरकार चलाने के लिए नीतीश से बेहतर कोई नहीं और सामाजिक न्याय के लिए लालू अब भी एक जरूरत हैं. भाजपा की तरफ से मोदी-शाह की जोड़ी ने इस चुनाव में सर्वाधिक निशाना लालू प्रसाद को बनाया. उन्हें ‘जंगलराज’ का प्रतीक-पुरुष घोषित किया.
जनादेश से साफ है कि अवाम ने लालू के खिलाफ ‘जंगलराज’ के भाजपाई-जुमले को भी नकार दिया. दोनों पहलुओं के हिसाब से यह जनादेश जद (यू)-राजद की भारी जन-स्वीकृति का एलान है.
चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश ने बार-बार कहा कि महागंठबंधन बिहार में समावेशी विकास यानी सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास में यकीन करता है. यही बात लालू अपनी भाषा में कहते रहे. इस मायने में यह जनादेश कॉरपोरेट-आश्रित विकास की सोच के खिलाफ समावेशी विकास की मंजूरी भी है. कहीं न कहीं, भाजपा और मोदी सरकार के कॉरपोरेटवाद की नामंजूरी भी है.
बीते लोकसभा चुनाव में बिहार की इसी जनता ने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया था. तब लालू और नीतीश अलग-अलग लड़ रहे थे. उनके बिखराव का भाजपा को पूरा फायदा मिला. इसके अलावा जनता ने केंद्र सरकार बनाने के लिए नरेंद्र मोदी को वरीयता दी, क्योंकि वे कांग्रेस-नीत यूपीए-2 से बेहद क्षुब्ध थे. देश के अन्य हिस्सों की तरह तब बिहार के लोगों को भी मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ की बातें सुहानी लगी थीं.
लेकिन महज 17 महीने में जिस तरह महंगाई, खासकर दालों, अन्य खाद्य सामग्रियों, दवाओं आदि के दामों में वृद्धि हुई, जिस तरह संघ-परिवार से जुड़े संगठनों की तरफ से असहिष्णुता और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया और सरकार खुलेआम लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकृतीकरण करती नजर आयी, उसका असर समाज के हर तबके पर पड़ना लाजिमी था. बिहार के जनादेश में इन सभी पहलुओं का हिस्सा है. लेकिन, असल बात है- लालू-नीतीश का एक होना. लालू-नीतीश के मिलने से एक पुख्ता चुनावी गंठबंधन की बुनियाद पड़ गयी. दोनों के बीच गजब का तालमेल स्थापित हुआ. दोनों एक-दूसरे दलों के लिए वोट ट्रांसफर कराने में भी कामयाब रहे.
महागंठबंधन ने एनडीए के मुकाबले बेहतर उम्मीदवार दिये (कुछ अपवादों को छोड़ कर) और सामाजिक समीकरणों का भी ज्यादा ख्याल रखा. उदाहरण के लिए, अपेक्षाकृत यादव-बहुल क्षेत्रों में भी कई जगह कुशवाहा या अति पिछड़ा /अल्पसंख्यक प्रत्याशी उतारे.
चुनाव प्रचार अभियान के दौरान लालू ने संघ-प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण-समीक्षा विषयक विवादास्पद बयान को पकड़ा और बिहार के दलित-पिछड़ों के बीच जबरदस्त गोलबंदी की.
उन्होंने बिहार की बड़ी आबादी के समक्ष संघ-भाजपा के दलित-पिछड़ा विरोधी राजनीतिक शक्ति होने की बात को शिद्दत के साथ पेश किया. इसकी काट में मोदी-शाह की जोड़ी विकास के एजेंडे को भूल कर फिर से भगवा-एजेंडे पर उतर आयी. कभी ‘पाकिस्तान में पटाखे फूटने’ की बात होने लगी, तो कभी भाजपा के विज्ञापनों में ‘गाय’ दिखने लगी. बिहार के लोगों ने भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरी तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.
भाजपा-एनडीए के प्रचार अभियान की एक खास बात उसके खिलाफ गयी. वह थी- एनडीए के प्रचार की मुख्य कमान मोदी-शाह के पास होना. दोनों गैरबिहारी थे. ‘बाहरी बनाम बिहारी’ का नीतीश का नारा लोगों के दिमाग में जम गया. जिस वक्त प्रधानमंत्रीजी किसी क्षेत्र में भाषण करते हुए कहते- ‘बोलो भाइयों, बिजली पांच घंटे भी आती है, नहीं आती है न’, उन क्षेत्रों में तब 20-20 घंटे बिजली आ रही होती थी.
स्थानीय न होना और असलियत से वाकिफ न होना कई बार उन्हें हास्यास्पद बना देता. भाजपा का कोई बिहारी नेता प्रचार अभियान के दौरान उभर कर सामने नहीं आया. इससे मतदाताओं के सामने असमंजस भी था कि नीतीश के बदले कौन? मोदी-शाह का लहजा ‘कन्वीन्सिंग’ के बजाय ‘कन्फ्रंटिंग’ था. जोड़ने के बजाय तोड़क और विघटनकारी था. बिहार कई मायनों मे गुजरात से अलग ढंग का सूबा है. यहां ‘कम्युनल कार्ड’ नहीं चल पाया. लोग आमतौर पर गाय या दुधारु जानवरों को प्यार करते हैं.
‘गाय की पूंछ पकड़ कर स्वर्ग जाने’ की बातें मिथकों में तो जीवित हैं, पर बिहार के राजनीतिक सोच वाले लोग भला इस बात के लिए कैसे राजी होते कि चुनाव में कोई नेता या पार्टी ‘गाय की पूंछ पकड़ कर विधानसभा’ पहुंचे. बिहार ने ‘गाय की राजनीति’ पर जारी राष्ट्रीय विमर्श को नया आयाम देते हुए इस ‘चैप्टर’ को अब खत्म कर दिया है. बड़ा संदेश है कि एक सेक्युलर लोकतंत्र में गाय पर सांप्रदायिक गोलबंदी नहीं होनी चाहिए.
एनडीए के प्रचार अभियान में धन-दौलत का दबदबा दिखा. बिहार के आम लोगों, खासतौर पर गरीब मतदाताओं को लगा कि यह अमीर पार्टी है.
भाजपा का प्रचार तामझाम भरा था, पूरा फाइव-स्टार. उसमें ‘भारतीय क्या बिहारी संस्कृति’ भी नहीं दिखायी दे रही थी. उसके मुकाबले महागंठबंधन का प्रचार अभियान ज्यादा देसी और सघन था. राजद और जद (यू) के कई प्रवक्ता अपने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के प्रवक्ताओं के मुकाबले ज्यादा संयत, धैर्यवान, समर्थ और विवेकशील नजर आये.
बीच में प्रधानमंत्री ने जिस तरह की टिप्पणियां कीं, उन पर लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती का पलटवार आम लोगों को भी पसंद आया. गंठबंधन के नेताओं-प्रवक्ताओं ने अपनी बातों को पुरजोर ढंग से लोगों के समक्ष रखा. नीतीश के प्रचार तंत्र में अहम सलाहकार के रूप में काम कर रहे प्रशांत किशोर का काम भी कारगर साबित हुआ.

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