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खोजे गये दो नये ग्रह

अमेरिकी खगोलविदों ने कैपलर 438 बी और कैपलर 442 बी नामक दो नये ग्रहों समेत कुछ अन्य अनेक ग्रहों की खोज की है. ये दोनों ग्रह सौरमंडल के ‘हैबिटेबल जोन’ में आते हैं यानी वहां का तापमान और अन्य चीजें जिंदगी के अस्तित्व के अनुकूल हैं. कैसे खोजा गया इन ग्रहों को, क्या है उससे […]

अमेरिकी खगोलविदों ने कैपलर 438 बी और कैपलर 442 बी नामक दो नये ग्रहों समेत कुछ अन्य अनेक ग्रहों की खोज की है. ये दोनों ग्रह सौरमंडल के ‘हैबिटेबल जोन’ में आते हैं यानी वहां का तापमान और अन्य चीजें जिंदगी के अस्तित्व के अनुकूल हैं.
कैसे खोजा गया इन ग्रहों को, क्या है उससे जुड़ा हुआ मिशन, क्या है इस मिशन की खासियत और इसका मकसद, बता रहा है आज का नॉलेज..
कैपलर एक स्पेसक्राफ्ट है, जिसे ‘नासा’ ने मार्च, 2009 में लॉन्च किया था. इसका मुख्य मकसद पृथ्वी की तरह के अन्य ग्रहों को खोजना है. ‘नासा डॉट जीओवी’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस स्पेसक्राफ्ट को फ्लोरिडा स्थित केप केनेवेरल एयर फोर्स स्टेशन से यूनाइटेड लॉन्च एलायंस डेल्टा 2- 7925 नामक लॉन्च वेहिकल से छह मार्च, 2009 को छोड़ा गया था.
‘डेली मेल’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस मिशन की लागत 395 मिलियन डॉलर है. कैपलर में लगे हुए कैमरे राह में किसी ग्रह के आने पर उसके तारों की चमक के आधार पर उसके बारे में जानकारी हासिल करते हैं. माना जाता है कि ग्रह जितना छोटा होगा, उसकी चमक उतनी कम होगी. इसलिए सबसे पहले तो चमक के आधार पर ही यह ग्रहों का अनुमान लगाता है.
मई, 2013 में इस मिशन से प्राप्त आंकड़ों से पता चला कि यह मिशन असफल हो सकता है, क्योंकि इस स्पेसक्राफ्ट को स्थिर करने में इस्तेमाल में लाये जाने वाले चार में से एक पहिया काम नहीं कर रहा था. इसके बाद वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की टीम ने स्पेसक्राफ्ट को नियंत्रित करने के लिए सूर्य की रोशनी से मिलने वाले प्रेशर का इस्तेमाल करते हुए ‘वचरुअल रिएक्शन व्हील’ से उसे सज्जित किया.
नतीजन यह मिशन न केवल आगे बढ़ा, बल्कि इसने ग्रहों के बारे में अन्य जानकारियां भी मुहैया करायी है. इतना ही नहीं, कैपलर मिशन ने वैज्ञानिकों को तारों के समूहों, सक्रिय आकाशगंगा और सुपरनोवा के निरीक्षण का मौका भी दिया है. ‘स्पेस डॉट कॉम’ की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस मिशन में आयी गड़बड़ी के बाद इसमें बदलाव किया गया और सोलर विंड आधारित ऊर्जा का इस्तेमाल करते हुए ‘के2’ मिशन को आगे बढ़ाया गया.
उसके बाद अगले एक साल के दौरान इसके सेंसरों के निकट सूर्य की किरणों का असर होने के कारण यह मिशन चार बार अपनी राह से भटक गया था.
आधिकारिक तौर पर इस मिशन ने वैज्ञानिकों को अब तक 35,000 से ज्यादा तारों के बारे में आंकड़े मुहैया कराये हैं. अपने अब तक के मिशन के दौरान इसने 132 ग्रहों और 2,700 से अन्य नये स्पॉट के बारे में बताया है, जो भविष्य में उपयोगी साबित हो सकते हैं. माना जा रहा है कि इनमें से कई और भी ग्रह ‘हैबिटेबल जोन’ में हो सकते हैं, जिनके बारे में अभी व्यापक जानकारी नहीं मिल पायी है और इन पर जीवन मुमकिन हो.
कन्हैया झा
नयी दिल्ली : पिछले कई दशकों से कई देशों के वैज्ञानिक इस बात की खोज में जुटे हैं कि किन-किन ग्रहों पर जीवन की संभावना हो सकती है. अमेरिका और रूस के बाद भारत ने भी मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए अपना यान (मंगलयान) भेज दिया है.
दरअसल, अंतरिक्ष असीम संभावनाओं का विषय है. इसमें हर साल कुछ नयी जानकारियां सामने आ रही हैं. इसी कड़ी में अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (नासा) के कैपलर स्पेस टेलीस्कोप ने पृथ्वी जैसे तीन अन्य ग्रहों की खोज की है. ये ग्रह अंतरिक्ष में सूर्य जैसे दूसरे तारों के पास ‘गोल्डीलॉक्स जोन’ में पाये गये हैं. गोल्डीलॉक्स जोन उस क्षेत्र को कहा जाता है जो जीवन के अस्तित्व के अनुकूल हो. बताया गया है कि इनमें दो ग्रह पृथ्वी की ही तरह चट्टानों से बने हुए हैं.
खगोलविदों ने अपने दावे के समर्थन में कहा है कि जीवन की संभावना वाले जोन में इन ग्रहों को खोजा गया है, जो एक खास दायरे में परिक्रमा करते हैं. यहां पर द्रव रूप में पानी भी हो सकता है.
बीते सप्ताह अमेरिकी एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी की एक बैठक में इस नवीन खोज की घोषणा की गयी. केपलर-438 बी अपने तारे से 470 प्रकाश वर्ष दूर है और करीब 35 दिनों में एक चक्कर पूरा करता है, जबकि केपलर-442 बी की दूरी 1,100 प्रकाश वर्ष है और यह 111 दिनों में अपने तारे का एक चक्कर पूरा करता है. ये दोनों ग्रह पृथ्वी के सूर्य की तुलना में अपेक्षाकृत ठंडे हैं और अपने तारे के पास इनका वातावरण जीवन के अनुकूल है.
सूर्य के प्रकाश की पहुंच
शोधकर्ताओं की गणना के मुताबिक, केपलर- 438 बी का डायमीटर धरती से महज 12 फीसदी बड़ा है और इसका 70 फीसदी हिस्सा चट्टानी होने की संभावना जतायी गयी है. जबकि केपलर- 442 बी पृथ्वी के आकार का करीब एक-तिहाई है, लेकिन इसका 60 फीसदी हिस्सा चट्टानी हो सकता है.
उम्मीद जतायी जा रही है कि चूंकि यहां सूर्य का प्रकाश पहुंचता है, इसलिए जिंदगी मुमकिन है. कैलिफोर्निया स्थित नासा के एमीज रिसर्च सेंटर में एसइटीआइ इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक डौग काल्डवेल के मुताबिक, संभावित रूप से चट्टानों से निर्मित इन छोटी दुनिया के बारे में हर नयी खोज के साथ हमारी इस अवधारणा को और भी मजबूती मिलेगी कि अंतरिक्ष में पृथ्वी की तरह और भी ग्रह मौजूद हैं.
जीवन के अस्तित्व के अनुकूल
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ के मुताबिक, केपलर द्वारा खोजे गये 1,000 से अधिक ग्रहों में से आठ पृथ्वी से आकार में छोटे और ठंडे हैं. आकार में ये हमारे सूर्य से भी छोटे हैं. इस खोज के विषय में नासा के मुख्यालय में साइंस मिशन निदेशालय के सहायक प्रशासक जॉन ग्रंसफेल्ड ने कहा है कि खोज में पाये गये नये ग्रहों में से तीन उनके अपने सूर्य के जीवन अनुकूल दूरी पर स्थित पाये गये हैं, जहां ग्रहों की सतह पर जल के द्रव अवस्था में मौजूद होने की संभावना है.
इस अध्ययन की रिपोर्ट के प्रमुख लेखक ग्युलेरमो टोरेस के हवाले से ‘द गार्डियन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस ग्रह पर जिस प्रकार से सूर्य की रोशनी पड़ रही है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे सौरमंडल में यह पृथ्वी की तरह का ही ग्रह हो सकता है.
हालांकि, वैज्ञानिक अभी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं कि उन ग्रहों पर वायुमंडल है या नहीं, लेकिन यदि वहां गैस की परतें होंगी तो इसका मतलब है कि केपलर-438 बी और केपलर-442 बी पर तापमान क्रमश: तकरीबन 60 और शून्य डिग्री सेल्शियस हो सकता है. इसे जांचने के लिए हार्वर्ड-स्मिथसोनियन टीम ने ब्लेंडर नामक कंप्यूटर प्रोग्राम का इस्तेमाल किया.
हालांकि, इस बारे में अभी पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता क्योंकि अभी यह शोध आरंभिक चरण में है. बताया गया है कि कई बार ग्रहों के अपने तारों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने के क्रम में उसे पीछे की ओर से देखने से इस बारे में सही अनुमान लगाना मुश्किल होता है.
99.7 फीसदी तक वास्तविक
दरअसल, ब्लेंडर प्रोग्राम एक प्रकार से सांख्यिकी संभाव्यता दर्शाता है, जो यह बताता है कि दिखाई देने वाला ग्रह वास्तविक में अस्तित्व में है, न कि वह किसी अन्य तारे की चमक से पैदा कोई प्रभाव है. हालिया खोजे गये ग्रहों के बारे में टोरेस और उनके साथियों का दावा है कि इनमें से 11 तो निश्चित रूप से 99.7 फीसदी तक वास्तविक हैं.
इस अध्ययन के सह-लेखक डेविड किपिंग का कहना है कि प्राप्त आंकड़ों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि केपलर 438 बी और 442 बी धरती की तरह ही हैं. हालांकि, इस संबंध में विस्तार से जानकारी के लिए फिलहाल खगोलविद अगली पीढ़ी के टेलीस्कोप का इंतजार कर रहे हैं.
जेम्स वेब्ब स्पेस टेलीस्कोप
नयी पीढ़ी के टेलीस्कोप में ‘जेम्स वेब्ब स्पेस टेलीस्कोप’ और ‘यूरोपियन एक्सट्रीम लार्ज टेलीस्कोप’ शामिल हैं, जिन्हें चिली के अटाकामा मरुस्थल में निर्मित किया जा रहा है. माना जा रहा है कि इस टेलीस्कोप की सहायता से सौरमंडल में मौजूद सुदूर स्थित ऐसे ग्रहों के बारे में जानकारी मिल सकती है, जिन पर जीवन की संभावना हो सकती है. इस शोधकार्य से जुड़े वैज्ञानिकों ने उम्मीद जतायी है कि ऐसे और ग्रह भी खोजने में हम कामयाब हो सकते हैं.
कैपलर मिशन का इतिहास
हमारी आकाशगंगा में पृथ्वी की भांति अन्य कितने ग्रह हैं? खासकर सूर्य की भांति तारों के हैबिटेबल जोन में पृथ्वी के आकार वाले कितने ग्रह हो सकते हैं? इस प्रकार के सवालों का जवाब तलाशने के मकसद से पिछले कई दशकों से कैपलर मिशन को विकसित किया गया है.
20वीं सदी के आखिरी अर्धकाल में खगोलिय गतिविधियां इस मायने में महत्वपूर्ण हो गयीं और सुदूर स्थित ग्रहों को खोजा जाने लगा. नासा ने इस मकसद को पूरा करने के लिए एमीस रिसर्च सेंटर की स्थापना की और इस कार्य को आगे बढ़ाया.
वर्ष 1984 से 1988 के बीच इस मामले में आरंभिक कामयाबी हासिल हुई और संबंधित वर्कशॉप का काम पूरा हुआ. नासा के मुख्यालय में सिलिकॉन फोटोडायोड्स आधारित मल्टीचैनल फोटोमीटर को विकसित किया गया और बाद में इसका व्यापक परीक्षण किया गया.
वर्ष 1992 में नासा मुख्यालय ने इस मिशन के लिए नये सिरे से प्रस्ताव रखा और सोलर सिस्टम से जुड़े तमाम सवालों को जानने की कोशिश शुरू की गयी.
वर्ष 1994 में खगोल भौतिकी (एस्ट्रोफिजिक्स) की गहन पड़ताल के लिए एस्ट्रोफिजिकल साइंस आधारित फोटोमेट्रिक टेलीस्कोप संबंधी कार्यशाला आयोजित की गयी.
वर्ष 1997 में इस मिशन के फोटोमीटर का डिजाइन तैयार किया गया. आखिरकार कई वर्षो तक अनेक परीक्षणों के बाद दिसंबर, 2001 में कैपलर को डिसकवरी मिशन के तौर पर चयनित कर लिया गया.

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