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सरकार चाहे, तो क्या नहीं हो सकता!

‘सरकार यह नहीं करती, सरकार वह नहीं करती.’ आखिर हम अपने आस-पास से ले कर दूर-दराज तक की सारी अव्यवस्था का दोष सरकार पर ही क्यों थोप देते हैं? आज से शुरू हो रही इस श्रृंखला में हम आपको कुछ ऐसी कहानियों से रू-ब-रू करायेंगे, जो हमें यह बतायेंगी कि अगर सरकार अपनी योजनाओं पर […]

‘सरकार यह नहीं करती, सरकार वह नहीं करती.’ आखिर हम अपने आस-पास से ले कर दूर-दराज तक की सारी अव्यवस्था का दोष सरकार पर ही क्यों थोप देते हैं? आज से शुरू हो रही इस श्रृंखला में हम आपको कुछ ऐसी कहानियों से रू-ब-रू करायेंगे, जो हमें यह बतायेंगी कि अगर सरकार अपनी योजनाओं पर सही ढंग से अमल करे तो क्या कुछ नहीं हो सकता!

राजीव चौबे

13 साल पहले राजस्थान के मार्बल खदान में अपने पूरे कुनबे के साथ काम करनेवाले अमर लाल की जिंदगी अब पूरी तरह बदल चुकी है. लगभग तीन दशक से ज्यादा समय तक बंधुआ मजदूर रहा अमर लाल का परिवार, तमाम बेड़ियों से छूट कर, अब अपने गांव पर हंसी-खुशी के साथ खेती-बाड़ी का काम कर रहा है और वह खुद नयी दिल्ली में वकालत की पढ़ाई कर रहा है.

अमर लाल की जिंदगी में यह परिवर्तन कैसे आया, इस सवाल के जवाब में वह बताता है कि मैं तीन भाइयों, दो बहनों और मां-पिताजी के साथ राजस्थान के नागौर जिले में स्थित मार्बल खदान में काम कर रहा था. वहां हम जैसे 20 परिवार और थे जो हमारी ही तरह दशकों से बंधुआ मजदूरी में लगे हुए थे. यह बात 2001 की है. मैं खदान में पत्थर तोड़नेवाले अपने भारी हथौड़े के साथ काम कर थोड़ा सुस्ता रहा था. पास ही में मेरे मां-पिताजी भी थे और भाई-बहन खेल रहे थे. तभी कुरता-पायजामा पहने, दाढ़ीवाले, लंबे कद के एक सज्जन कुछ लोगों के साथ गाड़ी से उतरकर मेरे पास आये. उन्होंने मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेर कर मुझसे पूछा कि तुम यह काम अपनी मरजी से करते हो या पढ़ना चाहते हो? अमर लाल आगे बताता है कि मैं इस सवाल पर चुप था. फिर उन्होंने मेरे पिताजी से कुछ बात की. थोड़ी देर बाद वहां पुलिस की एक गाड़ी में कुछ सरकारी अधिकारी पहुंचे, जिन्होंने हमें हमारे ठेकेदार की बंधुआ मजदूरी करने से छुड़ा कर मुङो और मेरे भाई-बहनों को जयपुर स्थित बाल आश्रम पहुंचाया और मेरे मां-पिताजी को जयपुर के एक पुनर्वास गृह भेजा.

मई 2000 में बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए संसद से पारित केंद्र सरकार प्रायोजित एक योजना के तहत छुड़ाये गये बंधुआ मजदूरों को आगे नयी जिंदगी की शुरुआत के लिए 20 हजार रुपये का अनुदान मिलता है. राशि केंद्र और राज्य सरकार 50-50 के आधार पर पूरा करते हैं.

स्थानीय सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट की तत्परता से अमर लाल के आठ लोगों के परिवार को पुनर्वास के लिए सरकार की ओर से एक लाख 60 हजार रुपये मिले. अमर के पिता बिशेन लाल कहते हैं कि उन पैसों से हमने जयपुर में एक घर बनाया और खेती-बाड़ी के लिए जमीन खरीदी. राजस्थान के बंजारा समुदाय से ताल्लुक रखनेवाला अमर लाल आगे बताता है कि बाद में मुङो मालूम हुआ कि कुरता-पायजामा पहने, दाढ़ीवाले वह सज्जन व्यक्ति बचपन बचाओ आंदोलन से जुड़े कैलाश सत्यार्थी थे. बहरहाल,बंधुआ श्रम व्यवस्था उन्मूलन अधिनियम, 1976 के तहत सभी बंधुआ मजदूरों को एकपक्षीय रूप से बंधन से मुक्त कर उनके कर्जो को भी समाप्त कर दिया गया है. साथ ही, बंधुआ प्रथा को कानून द्वारा दंडनीय सं™ोय अपराध माना गया है. इस कानून के तहत बंधुआ मजदूर प्रणाली को समाप्त करने, प्रत्येक बंधुआ मजदूर को मुक्त करने और बंधुआ मजदूरी की किसी बाध्यता से मुक्त कराने की व्यवस्था है. साथ ही, ऐसी कोई भी रीति-रिवाज करार या कोई अन्य लिखित दस्तावेज, जिसके कारण किसी व्यक्ति को बंधुआ मजदूरी जैसी कोई सेवा प्रदान करनी होती थी, अब निरस्त कर दिया गया है.

बंधुआ श्रम व्यवस्था उन्मूलन अधिनियम, 1976 ने अमर लाल और उसके जैसे कई परिवारों को बंधुआ मजदूरी के जंजाल से निकालने में बड़ी मदद की है. वैसे, उत्तरी दिल्ली के बुराड़ी स्थित बाल पुनर्वास केंद्र में अपने भविष्य को नयी शक्ल देता अमर लाल अब बीए-एलएलबी का छात्र है. उसने दिल्ली से 30 किमी दूर ग्रेटर नोएडा के जनहित कॉलेज ऑफ लॉ में कानून की पढ़ाई के लिए पांच साल के पाठय़क्रम में दाखिला लिया है. कल तक मार्बल के पत्थर तोड़नेवाला अमर लाल, अब अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, श्रम कानून और संयुक्त राष्ट्र की बातें करने लगा है. अपनी पढ़ाई के अलावा, वह अपने कॉलेज की लाइब्रेरी में दुनिया-जहां की किताबों के बीच भी समय बिताता है.

वाकई, 13 सालों में उसके जीवन में आया यह बदलाव, इस बात की तसदीक करता है कि सरकारें अगर सही ढंग से काम करें तो लोगों की जिंदगी में किस कदर बदलाव आ सकता है. (इनपुट: फाउंटेन इंक)

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