भारतीय अफसरशाही-2
।।एमके कॉव
पूर्व मानव संसाधन विकास सचिव
हिंदुस्तानियों के आइसीएस में घुसने के बाद उदय हुआ भूरे बड़े साहबों का
असली बड़े साहब तो आइसीएस वाले थे. ये वो लोग थे, जो भव्य कोठियों में राजसी ठाठ-बाठ के साथ रहा करते थे. बियर के अनगिनत दौरों के साथ पांच कोर्स का लंच इनकी दिनचर्या में शामिल होता था. दोपहर के बाद पंखा ब्वाय द्वारा की जानेवाली हवा में वो ऊंघते-सुस्ताते, शाम को टेनिस खेलते और खाने से पहले ब्रिज.
ब्रिटिश साम्राज्य की पूरी प्रभुसत्ता उनके हाथों में होती. अधिकारों की हिस्सेदारी के लिए न कोई मंत्री होता, न सांसद, न विधायक और न कोई सरपंच. उनके मुंह से निकला मामूली शब्द भी कानून होता.
उस शब्द को लाठी, तलवार, कोड़े और बंदूक के दम पर मनवाने के लिए सरकार का तमाम लाव-लश्कर मौजूद होता. अपने बेंत के सिंहासन पर बैठकर वो दहाड़ते, ‘अरे! कोई है?’ और उनके इर्द-गिर्द मौजूद खानसामों, जमादारों और चपरासियों के बीच उन तक पहुंचने की होड़ लग जाती.उनका नाम भी याद रखना वो अपनी शान के खिलाफ समझते थे. उनके कपड़े लंदन में ‘सेवाइल रो’ में सिलते.
लाट साहब का रौब : हिंदुस्तानियों के आइसीएस में घुसने के बाद उदय हुआ भूरे बड़े साहबों का. गोरा साहब भले ही कभी-कभार अपनी मूंछ नीची कर रहीमबख्श खिदमतदगार को पुकार लेता, अधनंगे फकीर गांधी को सजा सुनाते समय उनकी तारीफ कर देता या ठेठ उर्दू बोलने की कोशिश करता.
लेकिन भूरा साहब क्रूर व्यवस्था का अंग होने पर शर्मसार होने के बावजूद ब्रिटिश राज के गर्भ-गृह में सेंध लगाने पर गौरवान्वित महसूस करता. उसे हमेशा ये डर कचोटता कि कहीं उससे कोई भूल न हो जाए. इसलिए वो क्वींज इंग्लिश बोलता, ऊपरी होंठ मुश्किल से खोलता और अफसराना गुणों का प्रदर्शन करता. भूरे साहब के ख्वाबो-ख्याल में ये बात कभी नहीं आयी कि काला सूट गोरे रंग पर ही फबता है, क्योंकि ये गुलाबी लिए सफेद रंग को और निखारता है.
उसे इस बात का अंदाजा ही नहीं होता कि काले रंग पर काला सूट पहनने का मतलब है, शक्ल का बिल्कुल गायब हो जाना. जायकेदार आमों को प्लेट में करीने से सजाने के पीछे जो बेतुकापन है, उसका ध्यान उस ओर कभी नहीं जाता. उसको इसका पता ही नहीं था कि ये फल हाथ में लेकर होठों से चूसने की चीज है.
उसे ये बात भी सामान्य लगती थी कि आलू के पराठे को कांटे और छुरी से खाया जाए. वो पापड़ को बिना आवाज खाने के कौशल जैसी बेकार की बातों के लिए अपनी नींद हराम किये रहता था. फिर देश आजाद हुआ. आइसीएस की भरती बंद कर दी गयी और उसकी जगह शुरू हुआ आइएएस का चलन. ‘बड़े साहब’ के भूत को दफन करने का ये बेहतरीन मौका हो सकता था लेकिन ये मौका भी हाथ से निकल जाने दिया गया.
अंग्रेजों की नकल: आइसीएस अधिकारी बहुत दिनों तक अपनी पुरानी छवि को बरकरार रखे रहे और आइएएस में आने वाले नये रंगरूटों के आदर्श बने रहे. इन्होंने भी भूरे बड़े साहबों की तरह अंग्रेजों की नकल करने की कोशिश की. नतीजा ये हुआ कि वो प्रतिलिपि की प्रतिलिपि बन कर रह गये.
कितनी ही बैठकों और समितियों के गठन के बाद सरकार ने तय किया कि इन सेवाओं में गरीब परिवारों, ग्रामीण क्षेत्रों, दलितों और पिछड़े तबके के प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों को भी लाया जाये. इंटरव्यू में पास होना अब जरूरी नहीं रह गया था.
नये प्रोबेशनर्स को सही मूल्य और दृष्टिकोण सिखाने के लिए मसूरी में राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी खोल दी गयी. हुआ ये कि हरियाणा के एक गांव के महावीर सिंह आइएएस बन गये.वो पांचों उंगलियों से सरसों का साग, मक्के की रोटी और देसी घी खाने के शौकीन थे. ऊपर से लस्सी, शर्बत और कांजी भी गला तर करने के लिए पीते. खद्दर की धोती और कुर्ता पहनते और नित्यिक्र या के लिए लोटा ले कर खुले खेत में जाते.इस तरह का आदमी किसी जिले का कलेक्टर कैसे हो सकता था? उसका तौर-तरीका बिल्कुल एक आम हिंदुस्तानी जैसा था.
महावीर की मिसाल: ऐसे में उसकी इज्जत कौन कर सकता था ? वो अपने हर वाक्य में ठेठ हरियाणवी में लोगों की ‘मां बहन’ का जिक्र करता. आखिर ये कब तक चलता. धीरे-धीरे महावीर को उदाहरण और दोस्तों के दबाव में साहबी के तौर तरीके सिखाये गये. अब वो शालीनता के साथ डाइनिंग चेयर पर बैठता. उसकी गोद में नैपकिन होती, कोहनियां मेज पर नहीं होतीं और वो कांटे-छुरी का सही इस्तेमाल करता.
लंच पर वो ठंडी बियर मंगवाता, दोपहर में जिन के साथ नींबू लेता और शाम को सोडे के साथ व्हिस्की पीता. उसको अब इस बात की तमीज आ गयी थी कि लाल मांस के साथ रेड वाइन और सफेद मांस के साथ व्हाइट वाइन पी जाती है. अब उसका पहनावा था, नीला ब्लेजर या भूरे या सिलेटी रंग का थ्री पीस सूट, कफलिंक्स, टाइपिन और बांयी जेब में लाल रंग का सिल्क का रूमाल.
उसने अपने दोस्त हरि की ‘हैरी’ कहलवाने की इच्छा को ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया. देखते ही देखते ग्रोवर ‘ग्रूवी’ बन गया और ज्योति ‘जो जो.’ उसके दो बच्चे हुए जिनका दाखिला उसने सीधे सनावर के स्कूल में कराया जहां बड़े-बड़े उद्योगपतियों, फिल्मी और खेल-जगत के सितारों और राजनीतिक हस्तियों के बच्चे उनके सहपाठी थे.
इलीट् क्लास: महावीर का बातचीत करने का खुला और बड़बोला अंदाज कहीं पीछे छूट गया था. उसके लहजे में अब ठंडापन और औपचारिकता आ गयी थी जिससे अब उससे संवाद आगे बढ़ाना मुश्किल हो चुका था. अब उसको हलकी-फुलकी बातचीत में मुश्किल आने लगी थी. अब वो नखरेबाज, बात-बात पर नाक भौं सिकोड़ने वाला इनसान बन चुका था, जिसके माथे पर हमेशा बल पड़े रहते थे.
अब चिकोटी काटने पर उसके मुंह से ‘उई’ की जगह ‘आउच’ निकलता था. आज महावीर एक तोंदू और अधेड़ इनसान दिखाई देता है. उसका एक हाथ पैंट की जेब में होता है और दूसरे हाथ में उसने पाइप पकड़ रखा होता है. उसमें वो देहाती महावीर बिल्कुल नदारद है जिसका बाप एक मामूली किसान और मां अनपढ़ गंवार हुआ करती थी. अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ले कर वो हमेशा शर्मसार रहता.
उन्हें मां-बाप मानना भी उसे गवारा नहीं था. एक बार उसके यहां चल रही पार्टी के दौरान वो दोनों अचानक बिना बताये आ पहुंचे थे और उसने उन्हें जल्दी-जल्दी पीछे के कमरे में पहुंचा दिया था ताकि कोई उन्हें देख न पाये. अब इक्कीसवीं सदी के बड़े ‘साहब’ के वो जलवे कहां! अब कोई खिदमतगार ही नहीं हैं जिसे वो ‘कोई है’ कह कर पुकार सके. उसकी नौकरी से सारी शक्तियां निचोड़ ली गयी हैं. अब नोट भी उसे लिखना पड़ता है और प्रस्ताव को मंजूरी भी उसे देनी पड़ती है. जब कोई फाइल बम की तरह फटती है तो उसका शिकार भी वो ख़ुद बनता है.
उच्च कोटि का दंभे: वो नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता. उच्च कोटि का दंभी है, मानो वही एक देवलोक से उतरा है. वो आम लोगों के साथ बातचीत करना पसंद नहीं करता. अक्सर किसी पार्टी में उसे धीमे से ये पूछते पाया जा सकता है, ‘‘कौन-सी सेवा से हैं आप?’’ अगर जवाब मिले ‘रेलवे ट्रैफिक’ या ऐसी ही कोई सेवा, तो उसकी भौहें थोड़ी सिकुड़ती हैं और उसकी आंखों में हिकारत की एक पतली सी लकीर हिचकोले लेने लगती है.
उसके मुंह से बरबस निकलता है ‘ओह.’ और आगे के शब्द उसके मुंह से निकल ही नहीं पाते और वो जल्दी-जल्दी उस ओर बढ़ जाता है जहां उसकी बराबरी के लोग खड़े हैं.
एक कार्टूनिस्ट से कहा जाए तो वो एक औसत आइएएस अधिकारी का चित्र बनाते हुए उसे गोलमटोल, औपचारिक और जरूरत से ज्यादा पोशाक पहने हुए, एक खास अंदाज में सिगार पीते हुए, हर चीज को न कहते हुए और लालफीताशाही के फीतों में उलझा हुआ दिखाता है.
वो नेताओं के आगे पीछे मंडराता है, गिरगिट की तरह रंग बदलता है और सत्ता के लिए जोड़तोड़ करता हुआ दिखाई देता है. कोई कह नहीं सकता कि उसकी ये कार्टूनी तसवीर असलियत से बहुत दूर है.
(लेखक भारत सरकार के मानव संसाधन विकासमंत्रालयऔर नागरिक उड्डयन मंत्रलय के सचिव रहे हैं.)
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