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ओके:::: मिट्टी से तकदीर गढ़ना बन गया सपनाआधुनिकता की चमक में सिमट रहा पुश्तैनी धंधा, कद्रदान व उपभोक्ता के मिजाज भी बदले 30 अक्टुबरफोटो संख्या- 11,12,13, 14 व 15 पाकुड़ से जा रहा हैकैप्सन- मिट्टी का सामान तैयार करते कुम्हार, सुखने के लिए रखा गया तैयार दीप व भाड़, अपने बच्चों के साथ महिला तथा सुखे भाड़ को समेटती महिला.संवाददाता, पाकुड़ आधुनिकता की चमक-दमक में इन दिनों क्षेत्र में हमारी प्राचीन संस्कृति व कला की पहचान खोती जा रही है. वैज्ञानिक दौर में आज प्राचीन कलाकृतियों की चमक धीमी पड़ती जा रही है. सामने दीपावली है, दीपावली के समय जहां कुंभकारों द्वारा अपनी कला से मिट्टी से तैयार किये गये सुंदर दीपों को लोग जलाते थे. आज सिर्फ शोक बन कर रह गया है. वहीं कुंभकारों का कहना है कि आज उनके कला के कद्रदानों की संख्या कम हो गयी है. जिस कारण उनके समक्ष जीन-यापन की भी समस्या उत्पन्न हो गयी है. वहीं सरकार भी इस ओर अपनी नजरें इनायत नहीं कर रही है. अगर सरकार की ओर इसे इस कला को संरक्षण व संवर्धन मिलता तो हमारी आगे की पीढ़ी भी इस कला से अवगत रह पाती. मगर आज स्थिति बिल्कुल इसके उलट है. भरण-पोषण भी मुश्किलसदर प्रखंड के कूड़ापाड़ा कीताझोर निवासी सुदामा पंडित की मानें तो लगभग 10 वर्ष पूर्व शहर हो या गांव दीपावली के समय सभी लोग अपने घरों में मिट्टी से तैयार किये गये दीपों का उपयोग करते थे. उस समय दीपावली के लगभग एक माह पूर्व से ही पूरा परिवार इस काम में जुट जाता था, मगर वर्तमान समय में हालात यह है कि परिवार के दो सदस्यों को भी 15 दिन की लगातार रोजगार इससे नहीं मिल पा रहा है. यदि पूर्वजों के तरह ही इस धंधे में लोग जुड़े रहे तो ठीक ढंग से परिवार चलाना भी मुश्किल होगा.पुश्तैनी धंधा छोड़ने को मजबूर अच्छी व सुंदर कला होने के बावजूद भी अब इस धंधे से जुड़े लोग इसे छोड़ने पर मजबूर हैं. कहते हैं कि अब ऐसी पारंपरिक चीजों का मान देने वाला कोई नहीं है. पहले जहां सालों भर इस काम से फुर्सत नहीं मिलता था. आज इसे पूछने वाला कोई नहीं है. हालांकि समय के साथ-साथ कला को आधुनिकता से जोड़ा गया है और इसके पारंपरिक ढांचों में परिवर्तन कर दीपों काे आधुनिक रूप-रंग दिया गया है. मगर फिर भी इस पर आश्रित रहना और अपने बच्चों को इस ओर धकेलना उचित नहीं.मिट्टी खरीद कर बनाते हैं सामग्री जिस तरह से शहरी क्षेत्रों में बढ़ती जनसंख्या के कारण खाली जमीन का मिलना मुश्किल हुआ है. इससे अपनी कला के बल पर मिट्टी से तैयार करने वाले घरेलू सामानों को बनाने में कुम्हार जाति के लोगों की कठिनाई बढ़ गई है. लोगों का मानना है कि पहले जहां शहरी क्षेत्रों में खाली पड़ी जमीन मिल जाती थी. अब खाली जमीन मिलना मुश्किल हो गया है. इस कारण काफी दूर से मिट्टी खरीद कर मंगवाने के बाद सामग्री को तैयार किया जाता है. जिससे तैयार सामग्री में लागत भी बढ़ जाती है. आज भी 20 रुपये सैकड़ा दीप बेचने को मजबूर कीताझोर निवासी मिथुन पंडित, रवि पंडित, इंद्रदेव पंडित, सुशीला देवी आदि ने बताया कि मंहगाई तेजी से बढ़ती जा रही है. सामानों को तैयार करने में पहले की अपेक्षा अब ज्यादा महंगा हो गया है. परंतु तैयार सामानों के दामों में आज भी वृद्धि नहीं हुई है. महज 20 रुपये सैकड़ा की दर से तैयार किये गये दीप को बेचने को मजबूर हैं. कुंभकार पलायन की ओर एक ओर जहां लोगों का झुकाव शहरी क्षेत्र की ओर तेजी से बढ़ रहा है. वहीं कुंभकार रोजगार के अभाव में अब शहरी क्षेत्र से ग्रामीण क्षेत्र की ओर पलायन को मजबूर हैं. पाकुड़ के शहरी क्षेत्रों में पूर्व में कुम्हार जाति के लोग काफी संख्या में थे. परंतु आज ये लोग रोजगार के अभाव में जहां-तहां पलायन करने को मजबूर हैं. लोगों का कहना है कि अब दूसरे क्षेत्र में मजदूरी पर काम करने निकल रहे हैं. मिट्टी के भाड़ ने बचा रखी है जान आधुनिकता के इस दौर में जहां अधिकांश लोग अपने घरों में अब मिट्टी से तैयार किये गये सामग्रियों को छोड़ फ्रिज, स्टील आदि से तैयार किये गये बर्तन का प्रयोग कर रहे हैं. ऐसी हालत में मात्र एक चाय का प्याला ही बचा है. जिसका डिमांड लोगों में है. ऐसे तो चाय के दुकानों में भी प्लास्टिक व फाइबर से तैयार किये गये कपों का उपयोग किया जा रहा है परंतु अधिकांश लोग आज भी मिट्टी के बने भाड़ (प्याला) में चाय पीना पसंद करते हैं. जिस कारण इससे जान बची हुई है. नहीं मिलता है सरकारी योजना का लाभ ग्रामीण इंद्रदेव पंडित, सुशीला देवी, मिथुन पंडित आदि का कहना है कि सरकारी योजनाओं के लाभ से ये लोग वंचित हैं. इंद्रदेव पंडित ने बताया कि हाल में खाद्य सुरक्षा योजना के तहत कार्ड तो उन्हें मिला है. परंतु अब तक कोई भी खाद्यान्न उन्हें नहीं मिली है. अन्य योजनाओं के लाभ से भी ये लोग वंचित हैं. सरकारी पदाधिकारी भी कभी इस समुदाय के लोगों के हाल जानने नहीं पहुंचते. क्या कहते हैं लोग फोटो संख्या-16-सुशीला देवी सुशीला देवी ने बताया कि उनके पति दीपावली के दीप तैयार करने भागलपुर गये हैं. काम के अभाव में परिवार के लोग इधर-उधर रोजगार के लिए जाते रहते हैं. सरकार अगर हमलोगों पर ध्यान नहीं देगी तो आगे और भी स्थिति खराब होगी.फोटो संख्या-17-मिथुन पंडितमिथुन पंडित का कहना है कि अब परिवार के लोग इस धंधे छोड़ कर दूसरे धंधे या मेहनत करने को मजबूर हैं. हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है.फोटो संख्या-18-इंद्रदेव पंडितकीताझोर निवासी इंद्रदेव पंडित ने बताया कि दिनभर हाड़तोड़ मेहनत कर एक व्यक्ति 700-800 पीस भाड़ तैयार कर पाता है. दिन भर की मेहनत के बाद महज 150-160 रुपये ही कमा पाते हैं. ऐसे में घर चलाना भी मुश्किल हो रहा है.

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