Vat Savitri Vrat 2025: वट-सावित्री व्रत के अवसर पर बरगद की विधिपूर्वक पूजा की जाती है. तीन दिन के इस व्रत में पहले दिन एक बार का आहार (नक्तव्रत) लेकर व्रत का संकल्प लिया जाता है, दूसरे दिन फलाहार किया जाता है और अंतिम दिन अमावस्या को पेय पदार्थों के साथ व्रत का आयोजन किया जाता है. तीन दिवसीय जितने भी व्रत होते हैं, उनमें इन नियमों का पालन करना अनिवार्य है. सबसे पहले विमाता सुरुचि के अपमान से दुखी उत्तानपाद के पुत्र बालक ध्रुव ने 15-15 दिनों तक इस नियम का पालन किया था. जिस पर प्रसन्न होकर स्वयं नारायण को आना पड़ा था. इन व्रतों के माध्यम से मानव प्रकृति के साथ तालमेल बनाता है. वट सावित्री व्रत की मान्यता तो सत्ययुग में पतिव्रता सावित्री द्वारा अपने पति को कठोर तपस्या के बल पर यमराज के चंगुल से मुक्त कराने से जुड़ी है, लेकिन त्रेता में श्रीराम एवं द्वापर में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन पेड़ों की पूजा की थी.
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 18वें अध्याय के अनुसार, कंस का दूत प्रलम्बासुर गोकुल को नष्ट करने के लिए इसी ज्येष्ठ मास में disguise में आता है. कृष्ण ग्वालबालों के साथ खेल में व्यस्त हैं. अग्नि-वर्षा में निपुण प्रलम्बासुर की योजना थी कि वह कृष्ण जैसे प्रकृति-वैज्ञानिक का अपहरण कर उसे मार डालेगा, जिससे गोकुल का विनाश हो जाएगा. लेकिन कृष्ण उसे पहचान लेते हैं और वे अपने साथियों के साथ जिस पेड़ से सहायता लेते हैं, वह बरगद का पेड़ था, जिसे भांडीर कहा जाता है. श्रीकृष्ण आग बरसाने वाले प्रलम्बासुर की आग को पी जाते हैं. वनस्पति-विज्ञान के अनुसंधान के अनुसार, सूर्य की ऊष्मा का 27 प्रतिशत हिस्सा बरगद का पेड़ अवशोषित कर पुनः आकाश में लौटा देता है, बल्कि उसमें नमी प्रदान कर लौटाता है, जिससे बादल बनता है और वर्षा होती है.
Vat Savitri Vrat 2025 इस बार 26 मई या 27 मई को, जानिए सही तारीख
सूर्य की पूजा में गायत्री मंत्र के ‘वरेण्यं’ शब्द का अर्थ है कि हमें सूर्य की वरणीय किरणें प्राप्त हों, जो हमारे जीवन को रोशन करें. बरगद की इन विशेषताओं के कारण जंगल हरा-भरा रहता है और अहल्या-उद्धार का अर्थ है कि जिस भूमि पर हल नहीं चलता, वहां हरियाली उत्पन्न करने के लिए त्रेता युग में भगवान श्रीराम वनवास पर निकले. भरद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुंचने से एक दिन पहले रात में विश्राम के लिए जब वे रुकते हैं, तब लक्ष्मणजी वट-वृक्ष के नीचे विश्राम की व्यवस्था करते हैं. अगले दिन सुबह भरद्वाज ऋषि उन्हें अपने आश्रम ले जाते हैं और जब वहां से चित्रकूट की यात्रा की तैयारी करते हैं, तो ऋषि यमुना की पूजा के साथ-साथ बरगद के पेड़ की पूजा करने और उससे आशीर्वाद लेने का निर्देश देते हैं. उस श्यामवट से जंगल के विपरीत आघातों से रक्षा की प्रार्थना सीता करती हैं.
श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के 55वें सर्ग में इसका उल्लेख है –
ततो न्यग्रोधमासाद्य महान्तं हरितच्छदम् .
परीतं बहुभिर्वृक्षेः श्यामं सिद्धोपसेविताम् ..6 तस्मिन् सीतांजलिं कृत्वा प्रयुञ्जीताशिषां क्रियाम् . समासाद्य च तं वृक्षं वसेत् वातिक्रमेत वा ..
7 वट सावित्री व्रत और पूजा के पीछे ऋषियों का उद्देश्य इस वृक्ष के संरक्षण के लिए समाज में जागरूकता फैलाना भी था. सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा में यह भी संकेत है कि प्रकृति की सहायता से अकाल मृत्यु से बचा जा सकता है. स्त्रियों द्वारा वट-वृक्ष की पूजा के कई अर्थ हैं. एक तो यह है कि वट-वृक्ष स्त्री रोगों के उपचार में सहायक होते हैं. वट वृक्ष की छाया, छाल, फल और पत्ते निःसंतान महिलाओं को गर्भधारण की क्षमता प्रदान करते हैं. इसके अतिरिक्त, इस वृक्ष का औषधीय महत्व भी है. इसके पत्तों से निकलने वाला दूध आर्थराइटिस के दर्द को नियंत्रित करने में मदद करता है. मासिक अनियमितता के दौरान बरगद और पीपल की छाल और पत्तों का सेवन लाभकारी होता है. वनस्पति-विज्ञानी मानते हैं कि वृक्ष में जीवन होता है. वे मनुष्य की भावनाओं को समझते हैं, भले ही वे मनुष्य की तरह प्रतिक्रिया न कर सकें.
संभवतः यही दृष्टिकोण अपनाते हुए हमारे ऋषियों ने वट सावित्री की पूजा में पहले दिन बरगद पेड़ लगाने, दूसरे दिन इनकी रखवाली करने और तीसरे दिन पूजा करने का विधान किया है, ताकि ज्येष्ठ माह में रोपित पौधे वर्षा ऋतु में पूरी तरह बढ़ने लगे. ऋषियों ने वृक्ष, जल, नदी, सूर्य, चंद्रमा, पर्वत, झरने सबको परिवार माना है. यही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ चिंतन ऋषियों का है. गीता से लेकर रुद्राभिषेक तक के श्लोकों मंत्रों, हर शुभ अनुष्ठानों में संकल्प लेते समय ‘पृथ्वी शान्तिः, आपः शान्तिः, वनस्पतयः शान्तिः, अंतरिक्ष शान्तिः’ का संकल्प इन्हीं भावनाओं को प्रतिबिंबित करता है.
गोस्वामी तुलसीदास ‘पीपर पात सरिस मन डोला’ के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि हल्की हवा से पत्ते हिलते हैं और छोटी-छोटी बातें, घटनाएँ मन पर प्रभाव डालती हैं. इसलिए, जीवन में विराटता का भाव अपनाना आवश्यक है.
वट प्रजाति के वृक्षों में बरगद के साथ पीपल, गूलर, पाकर, और देसूर पेड़ शामिल हैं. अपनी टहनियों से स्वयं को लपेटने के कारण ये वटवृक्ष कहलाते हैं. इनमें सबसे अधिक लपेटने वाला वृक्ष बरगद है. देसूर तो चट्टानी पहाड़ों के पत्थरों पर उगता है, जबकि पीपल निरंतर ऑक्सीजन प्रदान करता है. लेकिन बरगद धरती को आग के गोले में बदलने से बचाता है. केवल भारत में ही नहीं, बल्कि कई विकसित देशों में इन पेड़ों का नामकरण धर्म के साथ जोड़कर फाइबर रिलीजियस, फाइकस ग्लूमेरेटियस आदि किया गया है. अरब देशों में भी भारत में पूजे जाने वाले अनेक वृक्षों को महत्व दिया जाता है. इस प्रकार के वृक्षों को ‘आजाद-ए-दरख्त-ए-हिंद’ कहा जाता है.