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मुक्ति नायक विवेकानंद!

– हरिवंश – हजारों वर्षों की गुलामी के बाद विवेकानंद, अंधेरे में प्रकाश पुंज हैं. उन्होंने देश की मूर्च्छा तोड़ी. आत्मस्वाभिमान जगाया. मरणासन्न समाज में प्राण फूं के. देश-दुनिया में भारत की उपस्थिति का एहसास कराया. परिवार, समाज और देश को जीने की कला सिखायी. स्वाभिमान दिया. साहस दिया, कर्म की प्रेरणा दी. वह मंत्र […]


– हरिवंश –
हजारों वर्षों की गुलामी के बाद विवेकानंद, अंधेरे में प्रकाश पुंज हैं. उन्होंने देश की मूर्च्छा तोड़ी. आत्मस्वाभिमान जगाया. मरणासन्न समाज में प्राण फूं के. देश-दुनिया में भारत की उपस्थिति का एहसास कराया. परिवार, समाज और देश को जीने की कला सिखायी. स्वाभिमान दिया. साहस दिया, कर्म की प्रेरणा दी. वह मंत्र फूंका, जिससे मूर्चि्छत देश जगने लगा. हालांकि उस महान विवेकानंद (जिसकी आज 150 वीं जयंती है) के प्रकाशस्रोत, तो परमहंस रामकृष्ण थे.
आज भारतीय समाज बीमार है. साधन है, संपन्नता है, प्रगति है, विरासत है, शिक्षा है, वैज्ञानिक दृष्टि है, पर न नैतिक तेज है, न मूल्य है, न संकल्प. आभाहीन देश. दिशाहारा समाज और बियावान में भटकती राजनीति. पुरानी दुनिया खत्म हो रही है, तो टेक्नालॉजी के गर्भ से नयी दुनिया का उदय हो रहा है. भारतीय समाज बदल रहा है. यह संक्रमण काल है.
आधुनिकता का जोर है. पर समाज में (देश में) हाहाकार है. दिल्ली में भारत की एक बेटी के साथ भारत के ही बेटों ने जो किया, वह महज प्रतीक है, इस आधुनिक सड़ांध की. आज भारत को फिर विवेकानंद का वह तेज, शौर्य, साहस और संकल्प ही उबार सकता है. न राजनीति कुछ कर सकती है, और न सामाजिक सुधार के धंधे में लगे लोग.
वह चरित्र क्या था, जिसने अकेले हजारों वर्ष से मरे, मूर्चि्छत और स्वाभिमान गिरवी रख चुके मुल्क में एक नयी जान फूंक दी?
उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ. उन्होंने प्राण त्यागा, 4 जुलाई 1902 को. महज 39 वर्ष पांच महीने और 24 दिनों में विवेकानंद ने वह कर दिखाया, जो हजारों वर्षों में अकेले कोई नहीं कर सकता. क्या तेज रहा होगा? कैसा संकल्प होगा? कैसा मानस होगा, उस इंसान का, जो अकेले भारत पर छाये अंधेरे को चीर रहा था. उस विवेकानंद से बढ़कर भारत या दुनिया के युवकों के लिए या मानव संप्रदाय के लिए आज दूसरा प्रेरक (मोटिवेटर) कौन हो सकता है?
मद्रास की एक सभा में उनका परिचय बताया गया कि अपना घर, परिवार, धन, संपत्ति, मित्र, बंधु, राग, द्वेष तथा समस्त सांसारिक कामनाएं त्याग चुके हैं. यह भी कहा गया कि इस सर्वस्वत्यागी जीवन में यदि अब भी वे किसी से प्रेम करते हैं, तो वह भारत माता है, और यदि उन्हें कोई दुख है, तो भारत माता तथा उसकी संतानों के अभावों और अपमान का दुख है. (सौजन्य – न भूतो न भविष्यति, लेखक नरेंद्र कोहली)
आज भारत की दुर्दशा देखकर भारत माता के लिए इस तरह सब कुछ छोड़ देनेवाला कोई है? भारत की आजादी की लड़ाई में गांधी से लेकर जितने बड़े नेता हुए, जिन्होंने देश को सबकुछ माना, उनके पीछे विवेकानंद की प्रेरणा थी. कोई साधन नहीं, सुविधा नहीं, एक महान संकल्प था, जिससे विवेकानंद ने दुनिया को भारत के होने का एहसास कराया. न टीवी का युग था, न इंटरनेट का संपर्क, न फोन की सुविधा, न संसार ग्लोबल गांव बना था. दूरी की मौत (डेथ आफ डिस्टेंस) नहीं हुई थी. क्योंकि सूचना क्रांति (इनफोरमेशन रिवोल्यूशन) नहीं हुई थी. तब उस तेज (विवेकानंद) की आवाज दिग-दिगंत में गूंजी. उनके कामों के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए कोलकाता के लोगों ने सभा की थी.
उसमें इंडियन मिरर के संपादक ने कहा, ‘वाणी की उपलब्धियों के इतिहास में इससे अधिक चमत्कारिक आज तक और कुछ नहीं हुआ. एक अज्ञात हिंदू संन्यासी अपने अर्धप्राच्य परिधान में ऐसी सभा को संबोधित कर रहा था, जिसके आधे से अधिक श्रोता उसके नाम का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते थे. वह एक ऐसे विषय पर बोल रहा था, जो श्रोताओं के विचारों से दूर था और उसने तत्काल उनकी श्रद्धा और सम्मान अर्जित कर लिया’ (सौजन्य – न भूतो न भविष्यति, लेखक नरेंद्र कोहली)
25 वर्ष की उम्र में वह संन्यासी बने. संन्यासी के रूप में उन्हें 14 वर्ष ही काम करने का अवसर मिला. जीवन में आज 14 वर्ष का अर्थ क्या है?
2013 में आकर हम यह बताते नहीं थकते कि अब हमारे बीच लाखों लोग 100 वर्ष से अधिक उम्रवाले जीवित हैं. जीने की अवधि बढ़ गयी है. हमारी आबादी एक सौ बीस करोड़ से अधिक हो गयी है.
पर कोई एक प्रेरक चरित्र, जिसमें विवेकानंद की मामूली झलक हो? पास में पैसा नहीं, पर सपना और संकल्प थे. आज उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण परमहंस संघ की भारत में 132 शाखाएं हैं. विदेशों में 45. यानी कुल 177. रामकृष्ण संघ के संन्यासी हैं, कुल 1278. दोनों श्रेणी के ब्रह्मचारी मिला कर हैं, 395. यानी कुल 1673. आज डेढ़ सौ वर्षों बाद उस व्यक्ति की लीगेसी फैल कर संसार को सुगंधित कर रही है.
कहीं कोई विपदा हो, प्राकृतिक कोप हो, दुर्घटना हो, तो रामकृष्ण संघ के लोग आंसू पोंछते मिलेंगे. गांधी ने कल्पना की थी कि इस देश की राजनीति अंतिम आदमी यानी सबसे गरीब के आंसू पोंछेगी. पर चाहे मोरवी (गुजरात), की प्रलंयकारी बाढ़ हो, लातूर या गुजरात के भूकंप हों, बिहार की बाढ़ हो, ओड़िशा और आंध्र में तूफान या कहीं ऐसी दुर्घटना-दुर्भिक्ष हो, युवा संन्यासी विवेकानंद की झलक मिलेगी.
गेरुआ वस्त्र पहने रामकृष्ण संघ के लोग, जान जोखिम में डाल कर अंतिम आदमी की सेवा करते मिलेंगे. उन्हें न यश की कामना है, न वैभव की, न उन्हें कोई प्रतिदान चाहिए. ऐसा ताकतवर समूह खड़ा हो जाना, जो स्वामी जी के होने के डेढ़ सौ साल बाद भी संकल्प के साथ सेवा में लगा हो, यह देखना या होना ही चमत्कार है. आज जो राजनेता या यशस्वी, चिर अमर होने का दंभ भरते हैं, क्षितिज (दुनिया) से उनके अस्त होते ही, उनके घर के लोग तक भूल जाते हैं.
किस मिट्टी के थे, वह विवेकानंद? रोमां रोलां की पुस्तक, रामकृष्ण परमहंस (धनराज वेदालंकार द्वारा हिंदी में अनूदित) में एक उद्धरण है –
‘मेरी जवानी के शुरू से ही प्रतिदिन रात्रि में जब मैं सो जाता था, मुझे दो स्वप्न आते थे. पहले स्वप्न में मैं अपने आपको पृथ्वी के उन श्रेष्ठतम मनुष्यों में जिन्हें सब प्रकार के ऐश्वर्य, सम्मान, शक्ति और यश प्राप्त हैं, बैठा हुआ पाता था और मैं अनुभव करता था कि मेरे अंदर इन सब वस्तुओं को प्राप्त करने की शक्ति मौजूद है.
परंतु अगले ही क्षण दूसरे स्वप्न में देखता था कि मैं सब सांसारिक ऐश्वर्यों का त्याग कर, एक कौपीन धारण कर भिक्षावृत्ति द्वारा अपना पालन करता हूं और एक वृक्ष के नीचे मेरी शय्या है. और मैं सोचता था कि प्राचीन ऋषियों की तरह इस प्रकार भी जीवन व्यतीत कर सकता हूं. इन दोनों चित्रों में से दूसरा चित्र विजयी रहता था. मैं अनुभव करता था कि इसी के द्वारा मनुष्य को परमानंद की प्राप्ति हो सकती है. …और उसका पूर्वास्वाद लेकर मैं फिर सो जाता था. …प्रत्येक रात यही स्वप्न पुन: नया होकर मेरा सामने आता था.’ पहला सपना पिता की महत्वाकांक्षा थी, दूसरा माता की स्पृहा. मां की साध मूर्त और जयी हुई.’ (सौजन्य- भारत की जातीय पहचान सनातन मूल्य, लेखक कृष्ण बिहारी मिश्र, भारत को समझने की दृष्टि से अद्भुत और अनूठी पुस्तक)
18 वर्षीय खूबसूरत युवा नरेंद्रनाथ (बाद में विवेकानंद के रूप में प्रख्यात) को परमहंस रामकृष्ण ने पहली बार देखा, तो वह पहचान गये. तब तक नरेंद्र, परमहंस से असहमत और आलोचक थे. पर परमहंस ने उन्हें पहचान लिया. ‘मैं जानता हूं, प्रभो, आप वही पुरातन ऋषि-नररूपी नारायण हैं. जीवों की दुर्गति-मोचन के लिए आप पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं.’ आज लोग परमहंस जैसी महाविभूति को भी नहीं पहचान पाते. पर यह एक उद्धरण बताने के लिए पर्याप्त है कि भारतीय आध्यात्म की ताकत क्या रही है? कैसे उन्होंने विवेकानंद को देखते, उनका भविष्य पढ़ लिया था.
दूसरा प्रसंग भी जान लें. नरेंद्रनाथ यानी विवेकानंद की विवाह की भूमिका बन रही थी, तो क्या कहा परमहंस ने? ‘ना रे नरेन, वह दिव्य आस्वाद मेरी मां ने तुझे चखाया है, उसकी मर्जी से ही अब फिर तुझे मिल सकता है. उस लोक के द्वार पर ताला लगा कर चाबी मां ने अपने पास छिपा ली है. तेरे तड़पने-चिल्लाने से वह ताला खुलने से रहा. मां जिस प्रयोजन के लिए तुझे धरती पर ले आयी है, वह पूरा हुए बिना, वह तुझे छोड़नेवाली नहीं है. मैं इतना ही समझता हूं रे नरेन कि मां का विधान मां ही जानती है. मेरी-तेरी औकात ही क्या है, जो उसका विधान पलट दे. इसलिए माथा पीटना छोड़ कर अपने को मां की मर्जी पर छोड़ दे नरेन.’ (सौजन्य- भारत की जातीय पहचान सनातन मूल्य, लेखक कृष्ण बिहारी मिश्र)
परमहंस ने 15 अगस्त 1886 की आधी रात को शरीर छोड़ा. कुछ दिनों तक काशीपुर उद्यानबाड़ी (जहां परमहंस थे) में लोग रहे. पर परमहंस के अनुयायी तो उनके बगैर रह नहीं सकते थे. नियति ने उन्हें बड़े काम के लिए बनाया था. पर वे लगातार अभाव में, संकट में थे. इसी बीच 1886, सितंबर-अक्तूबर में बराहनगर में मठ बना. सुरेंद्र मित्र के सहयोग से.
स्वामी जी ने 1886 में संन्यास लिया. परमहंस के दिये कपड़े पहन कर. सन् 1886 में बराहनगर मठ से वह निकल गये. यह बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण जैसा था. अकेले एक जलपात्र और एक कपड़ा लेकर. सिर्फ दो पुस्तकें साथ थीं. उनकी प्रिय पुस्तक ‘भगवद्गीता’ और ‘इमिटेशन आफ क्राइस्ट’, और उन्होंने आध्यात्म की वह परिभाषा लिखी, जो अब दोबारा दुनिया में नहीं लिखी जानेवाली. कहा, ‘ देश के लोग दो वक्त, दो दाने खाने को नहीं पाते, यह देख कर कभी-कभी मन में आता है, छोड़ दें शंख बजाना, घंटी हिलाना, छोड़ दे लिखना-पढ़ना और स्वयं मुक्ति की ये चेष्टाएं- हम सब मिल कर गांव-गांव में घूम कर चरित्र और साधना के बल पर धनिकों को समझायें, धन संग्रह करके ले आयें और दरिद्र नारायण की सेवा करके जीवन बिता दें.’
तब यानी 18वीं सदी में एक संन्यासी का ऐसी बातें कहना, अद्भुत दृष्टि का परिचायक है. तब भारतीय समाज जड़ था. जाति परंपरा उसे खोखला कर रही थी, तब अमृतपुत्र विवेकानंद ने कहा – ‘न वंश, न परंपरा और न धन संपदा से, वरन् केवल त्याग से ही अमृत्व की प्राप्ति होती है- न धनेन न प्रजया त्यागेनैक अमृतत्व मानुष:’
यह मंत्र देनेवाला व्यक्ति साधारण इंसान नहीं था. परमहंस देव ने एक बार अपने अंतरंग भक्तों के बीच कहा, केशव (ब्रह्मसमाज के संस्थापक), जिस प्रकार एक शक्ति के विकास के द्वारा संसार में विख्यात हुए हैं, नरेंद्र के भीतर उस प्रकार की 18 शक्तियां पूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं.
विवेकानंद जब परिव्राजक बने, तब विविदिषानंद के रूप में एक नयी चेतना जगाने निकल पड़े. पहली मुलाकात खेतड़ी नरेश अजीत सिंह से हुई. माउंट आबू में. खेतड़ी नरेश स्वामीजी के साथ हो गये. स्वामी जी ने सितंबर, 1898 में उन्हें पत्र भी लिखा. ‘संसार में मुझे एक ही आदमी के सामने हाथ पसारने में कभी लज्जा का अनुभव नहीं होता और वह आप हैं.’ उनका सपना तो भारत को और दुनिया को स्वर्ग बनाने का था.
उन्होंने कहा भी कि ‘इंसानों ने सैंकड़ों विज्ञानों का अविष्कार किया और उसका परिणाम यह हुआ कि कुछ थोड़े मनुष्यों ने बहुत से मनुष्यों को अपना गुलाम बना डाला. बस यही इससे हुआ है. अनैसर्गिक आवश्यकताएं उत्पन्न कर दी गयीं. प्रत्येक गरीब मनुष्य चाहे फिर उसके पास पैसा हो न हो, इन आवश्यकताओं को तृप्त करना चाहता है और उन्हें वह तृप्त नहीं कर पाता, तो संघर्ष करता है, और संघर्ष करते-करते ही मर जाता है. यही है बुद्धि की अंतिम गति.’
आज के भारतीय समाज या दुनिया के बारे में इससे बेहतर बयान दूसरा नहीं हो सकता है. आज भोग की होड़ है. बाजार का जोर है. मानव-मन अतृप्त है. इसलिए भोग और विलास पाने के लिए हर पतित कर्म हो रहे हैं. रोज नये-नये कानून बना कर हम सुंदर समाज बनाना चाहते हैं. पर जितने कानून रोज बनते हैं, समस्याएं उतनी ही बढ़ रही हैं. क्योंकि इसका हल बुद्धि में नहीं, मनुष्य के दिल या हृदय में है. स्वामी जी ने तब कहा कि ‘यदि यह प्रचंड प्रयत्न (विज्ञान की खोजों से अर्थ है) मनुष्यों को अधिक शुद्ध, सभ्य तथा सहनशील बनाने की ओर किया जाता, तो यह दुनिया आज हजारों गुनी अधिक सुखी हो जाती. आज पश्चिम के भोग का भारतीय समाज में गहरा आग्रह है.’
लोगों ने उनसे सवाल किया, ‘पाश्चात्य जगत के विलास-वैभवपूर्ण वातावरण को तीन वर्षों तक करीब से देखने-अनुभव करने के बाद आपको अपना देश कैसा लगा?’ स्वामी जी ने जो उत्तर दिया, वह अद्भुत है. कहा, ‘भारत से पाश्चात्य जगत में प्रवेश करते समय मैं उसे प्यार करता था. अब वहां की धूल, हवा सबकुछ मेरे लिए पुनीत-प्रणम्य हो गयी है. सचमुच वह पवित्र भूमि है, वह तीर्थ भूमि है.’
आज यह पवित्र तीर्थभूमि ‘भारत’ किस हाल में है? अगर यह सात्विक चिंता भारत में कायम है, तो उसका श्रेय भी स्वामीजी को ही है.
आज भारतीय युवकों के सामने कोई रोल मॉडल नहीं है. पर भारत जगत गुरु बनना चाहता है. इसके लिए आज विवेकानंद से बड़ा कोई प्रेरक नायक नहीं. भारत के क्षितिज पर लगभग हजारों वर्षों से गहराते अंधेरे के बीच विवेकानंद प्रकाश के रूप में अवतरित हुए. सांस्कृतिक, बौद्धिक और सामाजिक चेतना के उत्स बन कर. आधुनिक भारत की अवधारणा के मूल स्रोत हैं, विवेकानंद. उन्होंने भारतीय होने का गौरव याद दिलाया. पुरुषार्थ, संकल्प और श्रम से नियति-तकदीर बदल देने का संदेश देकर मुल्क के चिंतन-आयाम को एक नयी ऊंचाई दी.
क्या संघर्ष था? कैसी कठिनाइयां और चुनौती थी, इस अकेले इंसान के पास? यह पढ़ना हो तो, द गॉसिपल आफ श्री रामकृष्ण जरूर पढ़ना चाहिए. महज रामकृष्ण और विवेकानंद को जानने के लिए नहीं. मनुष्य होने का अर्थ जानने के लिए. अपनी क्षमता पहचानने के लिए. अपने संकल्प की ताकत जानने के लिए. आज दुनिया में मोटिवेशन (प्रेरित करना) एक उद्योग बन गया है. पर वह पवित्र संकल्प एक इंसान में कैसे उपजता है, इसे तो महेंद्रनाथ गुप्त की पुस्तक से ही जाना जा सकता है. बांग्ला में यह पांच खंडों में है. श्री रामकृष्ण के अत्यंत मशहूर शिष्य महेंद्रनाथ गुप्त द्वारा लिखित पुस्तक में ‘एम’ शब्द का प्रयोग है.
अंग्रेजी में यह दो खंडों में है. इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है, आलड्स हक्सले ने. मशहूर अंग्रेज लेखक. जीवन के अंतिम दिनों में वह आध्यात्मिक विषयों में भी रुचि लेने लगे थे. स्वामी निखिलानंद ने इसकी भूमिका लिखी है. रामकृष्ण ने देह त्यागते वक्त विवेकानंद से कहा कि इन युवा साधकों को तुम्हारे भरोसे छोड़ रहा हूं. यह देखना तुम्हारा काम है कि इनका आध्यात्मिक विकास हो. अब तुम घर न लौटना. वहीं नरेंद्र को निर्विकल्प समाधि मिली. तब वे सिर्फ अपना मस्तिष्क देख पा रहे थे. शरीर नहीं. परमहंस ऊपर के कमरे में थे.
इसी क्रम में कुछ दिनों बाद उनमें एक अद्भुत या अपूर्व तेज या शक्ति का प्रवेश हुआ और वह अपनी पूरी बाहरी चेतना खो बैठे. नरेंद्र को होश आया, तो परमहंस ने कहा, ‘आज मैंने तुम्हें अपना सबकुछ सौंप दिया. अब मैं एक गरीब फकीर हूं. मेरे पास कुछ भी नहीं है. पर इस शक्ति के द्वारा तुम दुनिया में बहुत अच्छा करोगे और जब तक यह पूरा न हो, तब तक तुम लौटोगे नहीं.’ और ऐसा ही हुआ.
अद्भुत प्रसंग हैं, इस पुस्तक में. दिल और दिमाग को छू लेनेवाले. झकझोर देनेवाले. परमहंस देह त्यागते हैं और उनके शिष्यों के पास रहने की जगह नहीं होती. उन्हें उनके बीच के एक सुरेंद्र, बड़ानगर ले आते हैं.
30 रुपये महीना आश्रम को देते हैं. फिर खर्च बढ़ता है, तो वह सौ रुपये तक मदद करते हैं और वहीं से शुरुआत होती है, विवेकानंद या रामकृष्ण संघ की नयी यात्रा की. पुस्तक का एक -एक अंश विवेकानंद, रामकृष्ण संघ और रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्म संसार के उदय-फैलाव की अद्भुत कहानी है. विवेकानंद की 150वीं वर्षगांठ पर यह पुस्तक घर-घर पहुंचे, तो भारत का समाज निखरेगा. युवाओं को एक दृष्टि मिलेगी. बिना कानून, महिलाओं को समाज में अद्भुत जगह और सम्मान होगा, तब नये भारत का उदय होगा.
आज भी नये भारत, नये समाज, नये मूल्यों के उदय की कुंजी तो विवेकानंद के पास ही है. क्या भारतीय समाज संकल्प लेकर उस महानायक के जीवन, कर्म और बातों से सीख कर खुद का कायाकल्प या परिमार्जन कर सकता है?
दिनांक – 12.01.13

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