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पुण्यतिथि विशेष : दिलो-दिमाग को झकझोर देने वाले कवि थे शलभ श्रीराम सिंह

Shalabh Shriram Singh : उनका मानना था कि हालात से लड़ने की इच्छा मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है, जो इस संसार की हर क्रांति, परिवर्तन, विघटन व सृजन वगैरह में निर्णायक भूमिका निभाती है. ऐसे में वह साहित्य सृजन कहें या साधना का मूल भी क्योंकर नहीं होगी?

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Shalabh Shriram Singh : हिंदी का साहित्य संसार शलभ श्रीराम सिंह को आम तौर पर युयुत्सावादी कविता के जनक के रूप में जानता है. वर्ष 1966-67 में कलकत्ता (अब कोलकाता) से ‘युयुत्सा’ नामक पत्रिका निकालते हुए उन्होंने इस काव्य धारा का प्रवर्तन किया था. कवियों का आह्वान करते हुए कि केवल कलम से काम न चलता दिखे तो अपने अंतस की आग थोड़ी और धधका लें. इस धारा की कविता के बारे में कहा जाता है कि पाठकों की चेतना पर असर डालने के मामले में यह अपना सानी नहीं रखती.


एक आलोचक ने तो यहां तक लिखा है कि इसके शब्द उनके दिल व दिमाग पर हथौड़े की चोट-सा असर करते हैं और अंदर तक झिंझोड़ डालते हैं. इसकी एक मिसाल शलभ की वह कविता भी है, जिसमें वे चेताते हैं कि यह जो कठिन समय हमारे सामने आ खड़ा हुआ है, अपने समंदरों को पाटने, पहाड़ों को ढोने, अंधेरों को पी जाने, बीमार खयाल लोगों को दुनिया से बाहर निकालने, स्वस्थ जिंदगी के सपनों में रंग भरने, आसमान की बदलती रंगत के खतरों से सावधान होने, एक साथ सोचने व बोलने और एकजुट होकर पृथ्वी को बचाने का समय है.

साथ ही सांसों पर जवान उम्मीदों के लश्कर उतारने, थकान और पस्तहिम्मती के खिलाफ लामबंद होने, यहां तक कि मौत के खिलाफ खुद-ब-खुद पैदा होने का भी. यहां पाठकों को उद्बोधित करते और उनका सामूहिक कार्यभार गिनाते हुए शलभ जो सबसे बड़ी बात कहना चाहते हैं, वह यह कि जब समय इतना कठिन हो जाये कि मौत के खिलाफ खुद-ब-खुद पैदा होना अस्तित्व बचने की शर्त हो जाए, तो हालात के समक्ष आत्मसमर्पण कर देने से कुछ भी हासिल नहीं होता. जो कुछ भी हासिल होता है, अपनी युयुत्सा, यानी हालात से दो-दो हाथ करने की इच्छा को जगाने और अमल में लाने से होता है.


उनका मानना था कि हालात से लड़ने की इच्छा मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है, जो इस संसार की हर क्रांति, परिवर्तन, विघटन व सृजन वगैरह में निर्णायक भूमिका निभाती है. ऐसे में वह साहित्य सृजन कहें या साधना का मूल भी क्योंकर नहीं होगी? अलबत्ता, वह अलग-अलग मामलों में जिजीविषा, मुमूर्षा या विद्रोह से जुड़ी अथवा प्लेटोनिक हो सकती है और किसी कार्यभार से जुड़ जाती है तो उसका भार उठाने वाले को ऐसे आत्मविश्वास से भर देती है कि वह इस दर्पोक्ति तक जा सके- ‘खूं के हर इक सवाल का जिंदा जवाब हूं/ऐ शायर-ए-शबाब तेरा इंतिखाब हूं/गुजरेगी इस मकाम से जब आखिरी सदी/पढ़ते मिलेंगे लोग जिसे वो किताब हूं/कौमों के रहनुमाओं से जाकर कहो ‘शलभ’/जिसको वो ढूंढते हैं वही इंकलाब हूं.’ असहमत आलोचकों द्वारा शलभ के जीवित रहते ही उन पर अराजकताओं तक की तोहमतें थोप दी गयी थीं. इसके बावजूद ‘जवाब चाहिए’ और ‘इंकलाब चाहिए’ के आह्वान उनकी पूरी काव्य यात्रा की मुख्य पहचान बने रहे. उन्होंने ‘शलभ फैजाबादी’ नाम से उर्दू की शायरी की तो भी, नवगीत रचते हुए हिंदी में चले आये तो भी. यहां तक कि नयी कविता रची तो भी. क्या आश्चर्य कि ‘इंकलाब जिंदाबाद’ करते हुए वे ‘वही इंकलाब हूं’ के उद्घोष तक भी जा पहुंचे और उनकी कई नज्में उनके इस संसार से जाने के पच्चीस वर्ष बाद भी जनांदोलनों में परचम की तरह फहराई जा रही हैं.


गौरतलब है कि दुष्यंत और अदम गोंडवी जैसे जनपक्षधर कवियों के होते हुए भी जनांदोलनों में उनकी नज्में प्रयाण गीत की तरह यूं ही नहीं गायी जातीं. इसलिए गायी जाती हैं कि उनका लोकबोध विरल है और काव्य दृष्टि इतनी स्वाधीन कि उसे किसी और की अधीनता स्वीकारना कतई गवारा नहीं. एक ही माटी की उपज होने के बावजूद शलभ और अदम में एक बड़ा फर्क है. यह कि अदम खुद को दुष्यंत की परंपरा, कहना चाहिए, छाया के अनुगत होने से नहीं बचा पाये, जबकि शलभ ने किसी भी छाया से परहेज रखा. प्रख्यात आलोचक विजय बहादुर सिंह कहते हैं कि शलभ ने अपनी कविताओं के लिए जो वैचारिक राह चुनी, वह भले ही दुष्यंत और अदम गोंडवी की राहों जैसी ही थी, पर उन्होंने सायास कोशिश की कि न उन्हें दुष्यंत की तरह देखा जा सके और न अदम की तरह.

साफ है कि उन्हें किसी की भी अनुकृति होने से परहेज था और वे लगभग वैसे ही आत्मविश्वास से भरे हुए थे जैसे यह घोषित करने वाले निराला कि ‘मैं ही वसंत का अग्रदूत.’ वे खुद को फैज, फिराक, मजाज, निराला और नागार्जुन की साझा हिंदी-उर्दू परंपरा से जोड़ते भी थे तो भी उनके अनुगृहीत होने के भाव से नहीं, उसको अपनी बनाकर. यह भी गौरतलब है कि उन्होंने अपना पहला गीत किसी क्रांतिकारी कवि से प्रभावित होकर नहीं, संस्कृत के महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ से प्रभावित होकर ही रचा था. अलबत्ता, अपनी गजलों के संस्कार के लिए वे अपने पैतृक जनपद कहें या जवार के शायर अनवर जलालपुरी के कृतज्ञ थे.

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