।। रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
आज नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे. राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में इसके पहले चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी ने भी शपथ ली थी. इस शपथ-ग्रहण-समारोह में पहली बार दक्षेस राष्ट्र प्रमुखों को आमंत्रित किया गया है, जो कइयों को ‘आश्चर्यजनक एवं अविश्वसनीय कदम’ लग रहा है. सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और दक्षेस के राष्ट्र प्रमुखों को आमंत्रित कर सबको साथ लेकर चलने की मोदी-इच्छा लोकतांत्रिक है. इसे ‘लोकतंत्र के जश्न’ के रूप में भी देखा जा रहा है. संसद भवन के सेंट्रल हाल में प्रवेश करते समय उसकी सीढ़ियों पर अपना सिर टेक कर मोदी ने संसद के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए संसद को ‘लोकतंत्र का मंदिर’ कहा है.
मोदी पहली बार सांसद बन कर प्रधानमंत्री बने हैं. वे स्वतंत्र भारत में जन्मे भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पांच पीढ़ियों के खप जाने के बाद यह ‘सुदिन’ देखा है. सोलहवीं लोकसभा का चुनाव मोदी ने लड़ा है. वे भाजपा और संघ से कहीं अधिक और बड़े निर्णायक रहे हैं इस चुनाव में. आठवीं लोकसभा में जब भाजपा को दो सीटें मिली थीं और इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति लहर में कांग्रेस को 404 सीटें मिली थीं, तब राजनीति में न नरेंद्र मोदी थे और न सोनिया गांधी थीं. बीते तीस वर्ष में पहली बार किसी पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ है. 1984 के बाद पहली बार केंद्र में स्थिर सरकार होगी. 16वीं लोकसभा में भाजपा के 59 प्रतिशत सांसद नये हैं. ‘विकास’ और ‘सुशासन’ के मुद्दे पर लड़े गये इस चुनाव में मोदी ने विपक्ष को लगभग समाप्त कर दिया, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में शुभ नहीं है.
मनमोहन सिंह से नरेंद्र मोदी तक अर्थ-यात्र को समङो बिना 16वें लोकसभा चुनाव के परिणामों को नहीं समझा जा सकता. ममो और नमो (मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी) में एक साम्य को छोड़ कर और कोई साम्य नहीं है. यह साम्य अर्थदृष्टि और अर्थव्यवस्था का है. मोदी की आर्थिकी और मनमोहन सिंह की आर्थिकी एक है. दोनों की आर्थिकी एकध्रुवीय विश्व की नवउदारवादी आर्थिकी से जुड़ी है. नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह की तरह ‘आकस्मिक’ या ‘सांयोगिक’ प्रधानमंत्री नहीं हैं. मनमोहन सिंह को अचानक प्रधानमंत्री बनाया गया था. उन्होंने लोकसभा का कोई चुनाव नहीं लड़ा. वे राज्यसभा के सांसद थे. दस वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे, जिन्हें सर्वाधिक कमजोर प्रधानमंत्री कहा गया है. 1991 में वित्त मंत्री की हैसियत से भारत में उन्होंने जो नवउदारवादी अर्थिक नीतियां लागू कीं, वह कहीं से उदार, शालीन और सुंदर नहीं थी. सोवियत रूस के ढहने और बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद जो एकध्रुवीय विश्व बना, उसमें सब कुछ अमेरिका के हाथों में था. विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय, एशियन डेवलपमेंट बैंक सहित ढाई हजार वैश्विक संस्थानों पर अमेरिका का प्रभुत्व है. प्रधानमंत्री कोई हो, वैश्विक अर्थव्यवस्था के समानांतर वह अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था लागू नहीं कर सकता. मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री हैं. नरेंद्र मोदी राजनीतिज्ञ हैं. मोदी ने अपने किसी भी भाषण या इंटरव्यू में मनमोहन सिंह की अर्थनीति बदलने की बात नहीं कही है. कांग्रेस-मुक्त भारत का अर्थ कांग्रेस की अर्थनीति से मुक्त भारत का नहीं है. 1991 से अब तक चली आ रही अर्थव्यवस्था से मध्यम वर्ग लाभान्वित हुआ है. युवा मतदाताओं को इसी आर्थिक संवृद्धि से मतलब है और उसने मोदी को नायक बना कर भारत का प्रधानमंत्री बना दिया है. 2004 में भारतीय मतदाताओं ने इसी अर्थनीति के विरुद्ध कांग्रेस को वोट दिया था. थक-हार कर इस बार उसने भाजपा को सत्ता सौंप दी है और एक व्यक्ति से अपनी उम्मीदें लगा रखी हैं. भाजपा को 16वीं लोकसभा के चुनाव में मात्र 31 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं. 69 फीसदी मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया है. कांग्रेस को इस बार मात्र 19.3 प्रतिशत वोट मिले हैं.
जगदीश भगवती 1991 के आर्थिक सुधार को पहली क्रांति कहते हैं. अपने एक लेख में इस चुनाव को उन्होंने दूसरी ‘क्रांति’ कहा है. स्पष्ट है कि मोदी दूसरी क्रांति के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास करेंगे. पहले उन्होंने ‘अच्छे दिन’ के लिए साठ महीने मांगे थे. अब 120 महीने मांग रहे हैं. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद ही भ्रष्टाचार बढ़ा, घोटाले हुए, महंगाई बढ़ी, किसानों ने आत्महत्या की. 16वीं लोकसभा के 82 फीसदी सांसद करोड़पति हैं- 541 सांसदों में से 442 सांसद. पिछली संसद की तुलना में 142 अधिक. भाजपा के 237 सांसद करोड़पति हैं. नरेंद्र मोदी को वर्षो पहले कॉरपोरेट ने प्रधानमंत्री के योग्य माना था. जनता की पसंद तो वे बाद में बने.
मनमोहन सिंह मितभाषी हैं, शालीन, सुसभ्य और सुसंस्कृत. वित्तीय पूंजी एक समय तक ही ऐसे व्यक्ति को पसंद करती है. नरेंद्र मोदी दृढ़ निश्चयी, आत्मविश्वासी, साहसी और संकल्प-शक्ति वाले प्रधानमंत्री होंगे. अभी केवल इंदिरा गांधी से उनकी तुलना की जा सकती है. भीखू पारेख ने उन्हें सलाह दी है कि वे ‘विभाजनकारी मुद्दों को एक तरफ रख दें.’ गोपालकृष्ण गांधी और सुधींद्र कुलकणऱ्ी ने उनके नाम लिखे अपने खुले पत्रों में जो कुछ लिखा है, उसे अमल में लाने के बाद ही मनमोहन सिंह का यह कथन गलत साबित होगा कि भारतीयों ने ‘विद्वेषी तानाशाही’ का चयन किया है. मोदी सबके प्रधानमंत्री हैं. 69 प्रतिशत जिन भारतीयों ने उन्हें मत नहीं दिया है, वे उनके भी प्रधानमंत्री हैं. उन्होंने स्वयं 125 करोड़ लोगों को जोड़ कर चलने की बात कही है. 20 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश अब कांग्रेस मुक्त हैं. देश के नये प्रधानमंत्री को सबकी चिंता करनी होगी.
भाजपा के 282 सांसदों में एक भी मुसलमान नहीं है. अल्पसंख्यक समुदाय से केवल दो सांसद हैं- दाजिर्लिंग से एसएस अहलूवालिया और लद्दाख से चिवांग. मोदी के सामने चुनौतियां बड़ी हैं- लोकतांत्रिक मूल्यों, संस्थानों, प्रणालियों को न केवल अक्षुण्ण रखने वरन् उन्हें सुदृढ़ करने की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने का, असहमति, विरोधों को स्वीकारने की, उन्मादी क्रिया-कलापों को समाप्त करने की, राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप को कायम रखने की, कॉरपोरेट के साथ सामान्य भारतीय जन की खुशहाली के लिए निरंतर कार्य करने की. सुधींद्र कुलकर्णी के माध्यम से 96 वर्षीय संस्कृत विद्वान केटी पांडुरंगी ने मोदी को संदेश भिजवाया है-‘प्रजा हितेहित राजनय, प्रजा सुखे सुखम राजनय.’ आज कोई प्रजा नहीं है, पर जो बात राजा के लिए कही गयी है, वही प्रधानमंत्री के लिए भी है. जनता का सुख सर्वोपरि है.