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विपक्ष के लिए संभावनाएं
।।पवन के वर्मा।। (पूर्व राजनयिक, लेखक व बिहार के मुख्यमंत्री के सलाहकार) इस चुनावी जीत का स्पष्ट जुड़ाव अभूतपूर्व धार्मिक ध्रुवीकरण से भी है. भाजपा की रणनीति हिंदू वोटों को संगठित करने की थी और उन्होंने अपनी अपेक्षाओं से कहीं अधिक इस लक्ष्य को हासिल करने में सफलता प्राप्त की. जाति की अभी तक अलंघ्य […]
।।पवन के वर्मा।।
(पूर्व राजनयिक, लेखक व बिहार के मुख्यमंत्री के सलाहकार)
इस चुनावी जीत का स्पष्ट जुड़ाव अभूतपूर्व धार्मिक ध्रुवीकरण से भी है. भाजपा की रणनीति हिंदू वोटों को संगठित करने की थी और उन्होंने अपनी अपेक्षाओं से कहीं अधिक इस लक्ष्य को हासिल करने में सफलता प्राप्त की. जाति की अभी तक अलंघ्य मीनारों में सेंध लगी और इसमें विपक्षी खेमे के उन अदूरदर्शी हिस्सों ने भी योग दिया, जो मुसलिम मतों को अपने पक्ष में लामबंद करने की कोशिश कर रहे थे. मुजफ्फरनगर के दंगों से यह प्रक्रिया शुरू हुई थी.
दुनिया की सबसे बड़ी संगठित मानवीय कवायद, वृहत भारतीय चुनाव अब संपन्न हो चुके हैं. स्वाभाविक रूप से, किसी को जीत हासिल हुई है, तो कोई परास्त हुआ है. इस बार कोई शक-ओ-सुबहा नहीं है. भारतीय जनता पार्टी की जीत जोरदार और स्पष्ट है. पहली बार यह पार्टी अकेले अपने बूते पर पूर्ण बहुमत में आयी है. 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व में चार सौ से ज्यादा सीटों के सबसे बड़े बहुमत के बाद से चल रहे साझा सरकारों के दौर से यह ऐतिहासिक मोड़ है. भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी इस बेमिसाल सफलता के लिए प्रशंसा के पात्र हैं.
जब राजनीतिक दल चुनाव परिणामों से उबर रहे हैं, यह मौका गहरे आत्ममंथन का है. भाजपा के इस विलक्षण प्रदर्शन के क्या कारण हो सकते हैं? निश्चित तौर पर, कांग्रेसनीत यूपीए-2 की सरकार की असफलताएं भाजपा की जबरदस्त जीत की सबसे बड़ी वजह रही. निराशा और अदूरदर्शिता से भरे शासन, खासकर मुद्रास्फीति के मामले में अक्षमता और अनेक बड़े घोटालों में इसकी मिलीभगत, से व्यापक असंतोष का वातावरण था. इन सबके बावजूद राहुल गांधी अजीब तौर पर बेपरवाह बने रहे. नेतृत्व की कमी, उपलब्धियों की खराब प्रस्तुति और आम जनमानस में व्याप्त रोष को ठीक से भांप न पाना जैसी कमियां रहीं. युवा नेता की उपस्थिति अनियमित थी, उनकी पार्टी में किसी को यह पता नहीं था कि चुनाव प्रचार अभियान का मुखिया कौन था, उनकी माता और यूपीए अध्यक्षा कभी-कभार ही बोलीं और प्रधानमंत्री का मौन, जो देश के सबसे बड़े कार्यालय को संगठित रूप से हाशिये पर धकेलने का हिस्सा था, यह सब देशव्यापी नाराजगी के कारण बने.
कांग्रेस के खिलाफ बने विरोध के वातावरण को अथक ऊर्जा और योजनाबद्ध तरीके से भाजपा ने खूब धार दिया. उन्होंने सही समय पर अपना काम शुरू कर दिया, पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी में सत्ता पाने की इच्छाशक्ति थी.
इतने योजनाबद्ध तरीके से सारे उपलब्ध साधनों- समाचार पत्र-पत्रिकाएं, टीवी, सोशल मीडिया, चुनावी सभाएं, सांगठनिक आधार और निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने की एकाग्रता- का उपयोग पहली बार चुनाव अभियान में किया गया. मोदी ने लगभग साढ़े चार सौ रैलियों को संबोधित किया, अनगिनत मंचों पर बतौर मुख्य वक्ता शरीक हुए, जबरदस्त मीडिया कवरेज हासिल किया और बहुत मजबूती से यह संदेश दिया कि कांग्रेस के कुप्रबंधन से पैदा हुई परिवर्तन की इच्छा को वही हकीकत में बदल सकते हैं. उन्होंने अभियान के दौरान रणनीति को बेहतर करते हुए अथक ऊर्जा का प्रदर्शन किया तथा मीडिया द्वारा अपने हिसाब से किसी अनुत्पादक सवाल की संभावना का ह्रास किया. कुल मिला कर यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का अतुलनीय साहसिक प्रदर्शन था. इसके पीछे लगी धन शक्ति का प्रदर्शन भी पहले कभी नहीं देखा गया.
लेकिन इस चुनावी जीत का स्पष्ट जुड़ाव अभूतपूर्व धार्मिक ध्रुवीकरण से भी है. भारतीय जनता पार्टी की रणनीति हिंदू वोटों को संगठित करने की थी और उन्होंने अपनी अपेक्षाओं से कहीं अधिक इस लक्ष्य को हासिल करने में सफलता प्राप्त की. जाति की अभी तक अलंघ्य मीनारों में सेंध लगी और इसमें विपक्षी खेमे के उन अदूरदर्शी हिस्सों ने भी योग दिया, जो मुसलिम मतों को अपने पक्ष में लामबंद करने की कोशिश कर रहे थे. मुजफ्फरनगर के दंगों से यह प्रक्रिया शुरू हुई थी. मुलायम सिंह यादव ने एक तरह के सांप्रदायिक विभाजन का मुकाबला दूसरे तरह के सांप्रदायिक रुझान से करने की भारी भूल की. परिणामस्वरूप जबरदस्त हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण हुआ और हिंदू वोटों की बहुत अधिक संख्या और सरकार के विरुद्ध माहौल ने भाजपा के पक्ष में ही अधिक काम किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काडरों ने इस प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभायी. पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में, जहां भाजपा की उपस्थिति सीमित है, इन राज्यों में ही यह धार्मिक विभाजन नहीं हो सका. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा के नवनिर्वाचित 283 सांसदों में एक भी मुसलिम नहीं है. यह देश में किसी पार्टी के साथ पहली बार हुआ है, जिसे पूर्ण बहुमत मिला हो.
बिहार जैसे कुछ राज्यों में संसदीय और राज्य स्तरीय चुनावों में लोगों में मतदान का भिन्न रुझान भी एक कारक रहा, जिसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. बिहार के अधिकांश लोग नीतीश कुमार द्वारा राज्य में किये गये कामकाज की सराहना करते हैं. इनमें भारतीय जनता पार्टी के मतदाता भी शामिल हैं, जिन्होंने संसदीय चुनाव में पार्टी को बड़ी जीत दिलायी. इस प्रकार राज्य में भाजपा की जीत जनता दल (यूनाइटेड) के नेतृत्ववाली नीतीश कुमार सरकार के प्रति पूर्ण अविश्वास का परिचायक नहीं है, बल्कि केंद्र में सरकार बनाने के लिए मतदान है.
भाजपा-विरोधी प्रतिपक्ष को इस पराजय की हद का विश्लेषण करने की आवश्यकता है. नि:संदेह एक महत्वपूर्ण कारक यह था कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ
खड़ी ताकतों में एकता नहीं थी. एकता के अभाव ने प्रतिपक्ष के मतों में घातक विभाजन कर दिया, जिसके कारण भाजपा के प्रत्याशियों ने निर्णायक बढ़त बना ली. दूसरा, गैर-भाजपा राजनीतिक पार्टियों को यह भी बखूबी समझ लेना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता को अच्छे शासन के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए काफी नहीं है. भारतीय मतदाता सभी धर्मो के प्रति आदर तथा भारत की बहुलता को संजो कर रखने व उसे बेहतर करने की जरूरत का विरोधी नहीं है, लेकिन वे इसके साथ सुशासन की सुविचारित व सफल कार्य योजना के होने का भरोसा भी चाहते हैं.
भाजपा को इन चुनावों में तकरीबन 31 फीसदी मत प्राप्त हुए हैं. मतों की हिस्सेदारी के आंकड़ों के लिहाज से भाजपा को मिला पूर्ण बहुमत विगत चुनावों के हिसाब से
सबसे कम समर्थनों में से एक है. इस बात का मतलब यह है कि 60 फीसदी से अधिक मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान नहीं किया है. अप्रत्याशित चुनाव परिणामों के बाद भले ही विपक्ष अभी अचंभित और बिखरा हुआ प्रतीत हो रहा हो, लेकिन यह एक तथ्य है कि एक परिपक्व लोकतंत्र में उसके लिए जगह हमेशा होती है. विपक्ष को जनमानस के साथ मजबूती से जुड़ने के लिए नये विचारों, नयी सोच और रणनीति के साथ सक्रिय होना होगा, लेकिन यह सब सिर्फ धर्मनिरपेक्षता के नारे पर नहीं, बल्कि एक बेहतर शासन दे पाने की उनकी पारदर्शी योग्यता और क्षमता का प्रदर्शन करते हुए ऐसा करना होगा.
भाजपा ने लोगों की अपेक्षाओं को अभूतपूर्व उड़ान दी है. केंद्र की कमजोर यूपीए सरकार को परास्त कर देना उनके प्रचार अभियान का सबसे आसान पक्ष था. सबसे कठिन दौर तो अब शुरू होगा, जब वादोंको निभा पाने की उनकी योग्यता कसौटीपर होगी.
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