झारखंड ने केंद्र सरकार से 22 हजार करोड़ रुपये की मदद का पैकेज मांगा है. 3000 करोड़ रुपये हाइकोर्ट व विधानसभा के नये भवन और 19000 करोड़ रुपये सड़कों के लिए. योजना आयोग के साथ बैठक में झारखंड ने केंद्र से सहयोग न मिलने की बात भी उठायी. राज्य सरकार की ओर से जो भी मांगें व समस्याएं रखी गयीं वो जायज हैं, लेकिन इसके साथ ही उसे आत्म-अवलोकन भी करना चाहिए.
आज झारखंड अपनी शासकीय और प्रशासनिक अक्षमता के लिए बदनाम है. हर जगह अनिर्णय की स्थिति. दफ्तरों में फाइलें अटकी पड़ी हैं. सरकार के भीतर ही रार ठनी रहती है. मंत्री ही सरकार गिरने और गिराने की बात करते हैं. ऐसी सरकार के प्रति जनता में क्या विश्वास होगा? उसकी अफसरशाही पर क्या पकड़ होगी? अगर ऐसे हालात में केंद्र से पैसा मिल भी जाये तो क्या होगा- या तो वह इस्तेमाल न हो पाने की वजह से लैप्स कर जायेगा या फिर भ्रष्ट गंठजोड़ की जेबों में चला जायेगा.
क्योंकि सरकार का इकबाल खत्म हो जाने की वजह से भ्रष्टाचार चरम पर है. झारखंड सरकार को केंद्र के सामने झोली फैलाने के बजाय अपने राजस्व को बढ़ाने पर काम करना चाहिए. लौह अयस्क, कोयला, बॉक्साइट जैसे जो प्रमुख खनिज हैं, उनसे मुख्य आमदनी केंद्र को होती है और राज्य को रायल्टी मिलती है. अवैध खनन और कोयला चोरी से हर साल सरकारी खजाने को अरबों रुपये की चपत लग रही है. बालू, पत्थर जैसे गौण खनिजों से भी राज्य अपनी आय काफी बढ़ा सकता है. सरकार ने बालू उत्खनन में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय की मंजूरी की बाध्यता का विरोध किया है, लेकिन इस बात पर उसका ध्यान कतई नहीं है कि जब यह बाध्यता नहीं थी तो क्या हो रहा था.
हकीकत यह है कि बालू से सरकार को नाममात्र आमदनी हो रही थी और खनन माफिया मलाई काट रहे थे. यही हाल पत्थर के उत्खनन का भी है. पहाड़ के पहाड़ कट कर खत्म हो रहे हैं, यहां तक कि राज्य का पर्यावरण खतरे में पड़ रहा है, पर बदले में राज्य को चवन्नी-अठन्नी मिल रही है. झारखंड को प्रकृति ने संसाधनों से नवाजा है, श्रमशील लोग हैं, अगर कुछ नहीं है तो यहां के नेताओं के पास दृष्टि और दृढ़ इरादा. झोली फैलाने से अच्छा है, अपनी कार्य संस्कृति सुधारें.