मई की तपती गरमी से लेकर अगस्त की सिंझाती सांझ तक पूरे देश में राजा-रंक सबका मुंह मीठा करवाने के कारण ही शायद यहां आम को ‘फलों का राजा’ कहा जाता है. लेकिन इस बार मई की शुरुआत में ही आमों के सरताज ‘अल्फांसो’ का स्वाद ‘फीका’ पड़ गया है! खबर है कि 28 देशों के यूरोपीय संघ (इयू) ने भारत से ‘अल्फांसो’ के आयात पर पहली मई से 20 महीनों के लिए पाबंदी लगा दी है.
इस तरह आमों का यह सरताज यूरोपीय बाजार को जीतने से पहले ही मैदान से बाहर हो गया है. इयू की स्वास्थ्य समिति ने भारत से चार सब्जियों- बैंगन, करेला, अरबी और चिचिण्डा के आयात पर भी रोक लगा दी है. तर्क है कि 2013 में इन उत्पादों की 207 खेप कीटनाशकों के प्रयोग के मामले में दूषित पायी गयी और अगर आयात जारी रखा गया तो इयू के देश, खास कर ब्रिटेन के फल व सलाद उद्योग को खतरा पैदा हो सकता है.
कोई यह कह कर संतोष कर सकता है कि जिन कृषि-उत्पादों पर इयू ने पाबंदी लगायी है, वह यूरोप को निर्यात होनेवाले भारतीय कृषि उत्पादों का महज पांच फीसदी है, पर यह नुकसान कम नहीं है, क्योंकि अकेले ब्रिटेन हर साल करीब 1.5 करोड़ अल्फांसो आयात करता है, जिसकी कीमत करीब 62 करोड़ रुपये है. इसे देश की कृषि नीति के लिहाज से देखें, तो स्थिति की गंभीरता का पता चलता है. आशंका यह भी है कि इयू की राह पर चलते हुए अरब देश भी भारतीय फल-सब्जियों पर पाबंदी लगा सकते हैं.
दूसरे, भारत अपने कृषि-उत्पादों को निर्यात योग्य बनाने की नीतिगत तैयारी में फिसड्डी साबित हो रहा है. फिलहाल फल-सब्जियों और जैविक उत्पादों के आयात-निर्यात का नियमन दो पुराने कानून डिस्ट्रक्टिव इन्सेक्ट एंड पेस्ट एक्ट (1914) और लाइव स्टॉक इम्पोर्टेशन एक्ट (1898) के तहत हो रहा है. जैव-विविधता से जुड़ी नयी चिंताओं और कृषि-उत्पादों के बाजार की जरूरत के मद्देनजर ये कानून अप्रासंगिक हो चुके हैं. नया कानून एग्रीकल्चर बायोसिक्योरिटी बिल (2013) नाम से बनाने की कोशिश फिलहाल लंबित है. ऐसे में इयू के प्रतिबंध से निपटने के लिए भारत की तैयारी कुछ खास नहीं है. इस प्रकरण से सीख लेते हुए भारतीय कृषि-उत्पादों को विश्व-बाजार की प्राथमिकताओं के अनुकूल बनाने की कोशिशें तेज होनी चाहिए.