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जानिए, पेरिस ”जलवायु परिवर्तन” सम्मेलन की अहम बातें

पेरिस : फ्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु परिवर्तन को लेकर कांफ्रेस चल रहा है. दुनिया भर से करीब 195 देशों के प्रतिनिधी इस सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं. बेहद अहम माने जा रहे इस कांफ्रेस पर दुनिया की नजर टिकी हुई है. कई मायनों में यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें ग्रीन […]

पेरिस : फ्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु परिवर्तन को लेकर कांफ्रेस चल रहा है. दुनिया भर से करीब 195 देशों के प्रतिनिधी इस सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं. बेहद अहम माने जा रहे इस कांफ्रेस पर दुनिया की नजर टिकी हुई है. कई मायनों में यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर एक समझौता होने की संभावना है. सम्मेलन का लक्ष्य दुनिया के तापमान को दो डिग्री कम करना है.

हालांकि इस तरह के सम्मेलन होते आ रहे है, लेकिन 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के बाद दुनिया दो भागों में बंट गयी थी. एक खेमें में विकसित देश और दूसरे में विकासशील देश है. ग्रीनहाउस गैसों की कटौती को लेकर अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के देश भारत व चीन जैसे विकासशील देशों पर ज्यादा दबाव डाल रहे है.
विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें. वहीँ विकासशील देशों का तर्क है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की जिम्मेदारी विकसित देशों की है. उनका कहना है कि अगर उनपर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में जरूरत से ज्यादा कटौती करने का दबाव होगा, तो अपने नागरिकों को मूलभूत सुविधा मुहैया नहीं करा पायेंगे. इसके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग से जूझने के लिए 100 बिलियन डॉलर का सालना फंड बनाने की भी बात है, लेकिन अब विकसित देशों ने इसमें शर्त जोड़ दी है कि फंड में भारत जैसे विकासशील देशों को भी योगदान करना होगा, जिससे चीन और भारत जैसे देश नाख़ुश हैं.
इस सम्मेलन में अगर सभी देश एक समझौते पर पहुंच भी जाते है तो कई तरह की अड़चनें अब भी मौजूद है. जिनमे आर्थिक और तकनीकी अड़चने शामिल है. विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए पैसे और तकनीक की जरूरत है. ऐसे देश जो विकासशील है और आर्थिक बदहाली से जूझ रहे है. उन्हें विकसित देशों की मदद चाहिए. उधर इस तरह के आर्थिक सहयोग के लिए विकसित देशों में अब भी दुविधा की स्थिति बनी हुई है. वो विकसित देश चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ते आर्थिक तरक्की करने वाले देशों से भी पैसे का सहयोग चाहते है.
अमेरिका का रूख भी इस समझौते में बाधा बनकर उभरा है. अमेरिका अपने उपर किसी तरह का पाबंधी नहीं चाहता है. अमेरिका के संसद के अंदर इस बात का विरोध है कि अमेरिका पर किसी तरह का सीमा लगाया जाये. वहीं अन्य देशों का तर्क है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर किसी तरह के समझौते इस बात पर तय नहीं होना चाहिए कि उस देश अंदरूनी राजनीति क्या है.

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