Advertisement
शारदीय नवरात्र चौथा दिन : ऐसे करें मां कूष्माण्डा की पूजा
सुरा संपूर्ण कलशं राप्लुतमेव च । दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु में।। ‘रूधिर से परिप्लुत एवं सुरा से परिपूर्ण कलश को दोनों करकमलों में धारण करनेवाली कूष्माण्डा दुर्गा मेरे लिए शुभदायिनी हों.’ दस महाविद्याओं की महिमा-4 दस महाविद्याओं का स्वरूप अचिन्त्य है. इनकी महिमा का वर्णन करना असंभव है. श्रीदुर्गा सप्तशती में वर्णन है— यस्याः प्रभावमतुलं […]
सुरा संपूर्ण कलशं राप्लुतमेव च ।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु में।।
‘रूधिर से परिप्लुत एवं सुरा से परिपूर्ण कलश को दोनों करकमलों में धारण करनेवाली कूष्माण्डा दुर्गा मेरे लिए शुभदायिनी हों.’
दस महाविद्याओं की महिमा-4
दस महाविद्याओं का स्वरूप अचिन्त्य है. इनकी महिमा का वर्णन करना असंभव है. श्रीदुर्गा सप्तशती में वर्णन है—
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननंतो, ब्रह्मा हरश्र्चनहि वक्तुमलं बलं च।
जिन देवी के अतुलनीय प्रभाव और शौर्य का वर्णन करने में भगवान शेषनाग, ब्रह्मा और शिवजी भी असमर्थ हैं, उनका प्रकृत स्वरूप का वर्णन करना संभव नहीं है.
मां की विशेष कृपा से विभिन्न शास्त्र-पुराण, वेद, स्मृतियों के अनुसार इस विषय में कुछ निर्वचन करने का प्रयास करते हैं. दस महाविद्याओं में काली-तत्व प्राथमिक शक्ति है. निर्गुण ब्रह्म की पर्याय इस महाशक्ति को तांत्रिक ग्रंथों में विशेष प्रधानता दी गयी है. वास्तव में इन्हीं के दो रूपों का विस्तार ही दस महाविद्याओं के स्वरूप हैं.
महानिर्गुण की अधिष्ठात्री शक्ति होने के कारण ही इनकी उपमा अंधकार से दी जाती है. महासगुण होकर वे सुंदरी कहलाती हैं तो महानिर्गुण होकर काली. तत्वतः सब एक है, भेद केवल प्रतीतिमात्र का है. कादि और हादि विद्या के रूप में भी एक ही श्रीविद्या क्रमशः काली से प्रारंभ होकर उपास्या होती है. एक को संहार-क्रम तो दूसरे को सृष्टि-क्रम नाम दिया जाता है. देवी भागवत आदि शक्ति-ग्रंथों में महालक्ष्मी या शक्तिबीज को मुख्य प्राधानिक बताने का रहस्य यह है कि इसमें हादि विद्या की क्रमयोजना स्वीकार की गयी है और तंत्रों, विशेषकर अत्यंत गोपनीय तंत्रों में काली को प्रधान माना गया है.
तात्विक दृष्टि से यहां भी भेदबुद्धि की संभावना नहीं है. अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा-का तर्क दोनों से अभिन्न सिद्ध करता है. बृहन्नीलतंत्र में कहा गया है कि रक्त और कृष्ण भेद से काली ही दो रूपों में अधिष्ठित हैं. कृष्णा का नाम दक्षिणा काली है तो रक्तवर्णा का नाम सुंदरी—
विद्या हि द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा रक्ता-प्रभेदतः ।
कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुंदरी मता ।।
उपासना के भेद से दोनों में द्वैत है,पर तत्व दृष्टि से अद्वैत है.
(क्रमशः)
प्रस्तुति : डॉ एन के बेरा
Advertisement