कोलकाता: मुसलमानों और यहूदियों के बीच सदियों से लड़ाई चली आ रही है. आज भी फिलिस्तीन के मुद्दे पर यहूदी व मुसलिम समाज एक-दूसरे के सामने खड़ा है. पर वहीं फिलिस्तीन से हजारों किलो मीटर दूर कोलकाता में मुसलमान वर्षो से यहूदियों के इबादतघरों की निगेहबानी कर रहे हैं.
अंगरेजों के समय कोलकाता को भारत में यहूदियों का घर कहा जाता था, जो व्यवसाय के लिए दुनिया के विभिन्न मुल्कों से आ कर यहीं बस गये थे. इन्हें बगदादी यहूदी कहा जाता है. एक समय महानगर में उनकी तादाद लगभग तीन हजार थी, पर देश की आजादी के बाद अंगरेजों के साथ-साथ इन्होंने भी महानगर छोड़ना शुरू कर दिया था.
आज कोलकाता में बमुश्किल 30 यहूदी रह रहे होंगे. एक समय शहर में उनकी तीन इबादतगाहें थीं, जिनमें से दो आज भी इस्तेमाल में हैं. यहूदियों के धार्मिक स्थलों को सिनगॉग शेख परिसर व आसपास स्थित दुकानों से किराया वसूलते हैं. यह सभी दुकानें यहूदियों की संपत्ति है. शुक्रवार दोपहर तक सफाई का काम पूरा कर देना होता है. रब्बुल खान के अनुसार शनिवार होनेवाली नमाज (प्रार्थना) के लिए यह जरूरी है. हालांकि अब शनिवार की प्रार्थना नियमित रुप से नहीं होती है. यहूदी समाज का केवल एक व्यक्ति प्रत्येक शुक्रवार की शाम को मोमबत्ती जलाने के लिए वहां नियमित रुप से आता है. मुसलमानों और यहूदियों के बीच चली आ रही लड़ाई के बारे में रब्बुल का कहना है कि हमें लड़ाई से लेना-देना नहीं है. युद्ध दूसरे देशों में हो रहे हैं.
हम लोग इस बारे में नहीं सोचते हैं. यहूदी हमारा सम्मान करते हैं और हम उनका सम्मान करते हैं. वयोवृद्ध नासीर शेख सिनगॉग परिसर के अंदर ही अपनी नमाज अदा करते हैं, उनका कहना है कि कुरान, तौरैत और बाइबल सभी एक जैसे हैं तो ऐसे में हमारे बीच लड़ाई कैसे हो सकती है. सिराज का कहना है कि हम लोग यहां काम करते हैं और इस यहूदी इबादतघर की उसी तरह सफाई करते हैं, जैसा हम अपनी मसजिद की करते हैं. यहूदी इबादतगाहों की देखभाल करनेवालों में एक हिंदू नूर सिंह भी है, जिन्हें उनके पिता इस काम में लाये थे. उनका कहना है कि यह भगवान का घर है और यही मेरी जीविका है. मैं इस स्थान के लिए अपनी जिंदगी दे सकता हूं.देश की आजादी के समय हिंदूओं और मुसलमानों में बढ़ते तनाव को देखते हुए यहूदियों ने कोलकाता को अलविदा कहना शुरू कर दिया था, अब लगभग 30 यहूदी इस शहर में रह गये हैं. एक छह सदस्यीय यहूदी बोर्ड इन सिनगॉग के अलावा शहर में स्थित तमाम यहूदी संपत्तियों की देखभाल करता है. महानगर में फिलहाल यहूदियों का एक स्कूल एवं एक कब्रिस्तान है.
71 वर्षीय खलील ने इस काम की शुरुआत 50 रुपये मासिक वेतन के रुप में शुरू की थी. जो आज बढ़ कर 7500 रुपये हो गया है. इतनी कम वेतन से बड़ी मुश्किल से गुजारा होता है. पहले मिलनेवाला बोनस भी बंद हो गया है. युवा कर्मियों को तो 7000 रुपये ही मिलता है. सरदी के मौसम में आनेवाले पर्यटकों से इन्हें कुछ कमाई हो जाती है. कमाई कम होने के कारण सभी कर्मी अकेले ही इस शहर में रहते हैं और तीन-चार महीने में एक दो बार ही अपने पुश्तैनी घर का चक्कर लगा पाते हैं.