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खाद्य पदार्थों में जारी है मिलावट का खेल, विभाग उदासीन

सुपौल : महंगाई की मार ने अच्छे-अच्छे की कमर तोड़ दी है. इससे नौकरी पेशा से लेकर गृहणियां व किसान मजदूर भी परेशान हैं. वहीं बाजार क्षेत्र में खाद्य पदार्थों में खुलेआम मिलावट का धंधा बदस्तूर जारी है. मिलावटी खाद्य पदार्थों के सेवन का सीधा असर मानव के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. मिलावटी खाद्य […]

सुपौल : महंगाई की मार ने अच्छे-अच्छे की कमर तोड़ दी है. इससे नौकरी पेशा से लेकर गृहणियां व किसान मजदूर भी परेशान हैं. वहीं बाजार क्षेत्र में खाद्य पदार्थों में खुलेआम मिलावट का धंधा बदस्तूर जारी है. मिलावटी खाद्य पदार्थों के सेवन का सीधा असर मानव के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. मिलावटी खाद्य पदार्थों से न सिर्फ लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है,
बल्कि ठगी का शिकार हो रहे लोगों की जेबें भी हल्की हो रही है. ऐसे में आम ग्राहक दोहरे शोषण के शिकार हो रहे हैं. जानकारों की माने तो दुकानदारों द्वारा मिलावट इतने सफाई से किया जाता है कि ग्रामीण परिवेश की बात तो दूर पढ़े-लिखे लोग भी एकबारगी चकमा खा जाते हैं कि खरीदी जाने वाली सामग्री असली है या नकली. आलम यह है कि मिठाई, बिस्कुट, दाल, आटा, सूजी, मैदा, मसाले व आम सामग्रियों के अलावा ब्रांडेड सामानों में भी नकल व मिलावट का खेल जारी है.
जबकि खाद्य पदार्थों में जारी मिलावट से लोगों के स्वास्थ्य को विशेष क्षति पहुंच रही है. चिकित्सकों का भी स्पष्ट मत है कि हाल के वर्षों में गेस्ट्रोइनट्रेटाईटिस, डायबिटीज जैसी बीमारियों के अलावा हृदय, लीवर व किडनी के रोगों में व्यापक वृद्धि हुई है. जिसका मुख्य कारण खाने में मिलावटी सामानों का उपयोग है. यूनिसेफ की ताजा रिर्पोट के मुताबिक 55-60 प्रतिशत व्यक्ति इन रोगों की चपेट में फंसते जा रहे हैं. कोसी कछार पर बसे सुपौल जैसे पिछड़े जिले में भी मिलावट का खेल प्रारंभ हो गया है. जिसका खामियाजा स्थानीय नागरिकों को भुगतना पड़ता है.
ज्यादा कमाने की चाह में चल रहा खेल
गौरतलब है कि बढ़ते मंहगाई के दौर में रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले खाद्य सामग्री की कीमत में बेतहाशा वृद्धि हो रही है. यही वजह है कि ज्यादा मुनाफा कमाने एवं जल्द अमीर बनने की चाहत में कुछ दुकानदार मिलावटी धंधे में जुट जाते हैं. देखा-देखी शुरू हुआ यह मिलावटी धंधा अब बृहत रूप ले चुका है. विभागीय तालमेल रहने से ऐसे दुकानदारों में किसी प्रकार का भय भी नहीं देखा जाता. नतीजतन जब सैयां भैल कोतवाल तो अब काहे का डर वाली कहावत के तौर पर मिलावट करने वाले धंधेबाज आज भी इस गौरखधंधे को अंजाम दे रहे हैं और सरकारी खौफ नहीं होने की वजह से यह धंधा काफी फल-फुल भी रहा है. इधर, जब इस बाबत प्रभारी एसडीओ से बात की गयी तो उन्होंने बताया कि शिकायत मिलने पर कार्रवाई की जायेगी.
अधिकारी की कमी के कारण नहीं होती जांच
पहले खाद्य पदार्थों की जांच सरकारी स्तर पर नियमित रूप से होती थी. संबंधित अधिकारी द्वारा परचुन, होटल व अन्य सामानों की नियमित सेम्पलिंग ली जाती थी. लेकिन 1984 में सरकार ने सेम्पलिंग एवं खाद्य पदार्थों के जांच का जिम्मा स्वास्थ्य विभाग से हटाकर जिला परिषद के जिम्मे कर दिया. इससे पहले सभी पीएचसी में बजाब्ते सेनेटरी निरीक्षक पदास्थापित थे, जो नियमित रूप से सेम्पलिंग करते थे. लेकिन जिला परिषद में यह व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो गयी.
जानकारी अनुसार सरकार ने जांच का अधिकार जिला परिषद को तो दे दिया था. लेकिन जांच के लिए काम आने वाले समानों यथा पैकेट, लिफाफा, सुतली, पोस्टल खर्च, सेम्पलिंग समान की राशि के लिए अतिरिक्त बजट का प्रावधान ही नहीं किया. 1998 में सरकार ने जांच का अधिकार जिला परिषद से हटाते हुए पुन‍: यह जिम्मा स्वास्थ्य विभाग को दे दिया. लेकिन नयी नियुक्ति नहीं होने से पूर्व के सभी स्वच्छता निरीक्षक कमोवेश सेवानिवृत हो गये थे. 2009 में सरकार ने प्रमंडलीय स्तर पर अनुभाजन पदाधिकारी का पद सृजित कर जांच के लिए अधिकृत किया. लेकिन क्षेत्र काफी बड़ा होने की वजह से जांच का काम सही रूप से नहीं हो पाता है.

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