Success Story: एक लड़का था जिसकी जेब में पैसे कम थे, लेकिन आंखों में सपने बड़े थे. जो साइकिल पर रूई बेचता था, और रातों में आसमान की तरफ देख कर सोचता था- “क्या वहां मेरी भी कोई जगह है?” वही लड़का कान्स फिल्म फेस्टिवल की रेड कार्पेट पर चला. तालियों की गूंज में उसका नाम पुकारा गया और इस सफर के हर मोड़ पर सिर्फ एक ही चीज़ साथ थी- जिद. ‘पंचायत’ में “देख रहा है विनोद…” कहने वाला ये चेहरा, असल ज़िंदगी में भी उतना ही सादा, उतना ही सच्चा और उतना ही संघर्षशील है. अशोक पाठक सीवान की मिट्टी से निकलकर मुंबई की चकाचौंध को चुनौती देने वाले उस नाम की कहानी है, जो न हार मानता है, न रुकता है.
बचपन की तंगी और संघर्ष
बता दें कि अशोक पाठक सीवान के रहने वाले हैं लेकिन उनका जन्म हरियाणा में हुआ और जिंदगी का बचपन भी हरियाणा में ही गुजरा. पिता पहले भट्टी में कोयला झोंकने वाले फायरमैन थे, फिर बॉयलर अटेंडर बने, लेकिन आमदनी इतनी नहीं थी कि परिवार को चैन की रोटी नसीब हो.
कम उम्र से ही अशोक ने रूई बेचने का काम शुरू किया. साइकिल पर कई किलोमीटर दूर जाकर रूई बेचना और सौ रुपये रोज़ की कमाई, यही उनकी पहली ‘कमाई की पढ़ाई’ थी. उसी कमाई से पहली बार थिएटर में फिल्म देखने का सुख मिला.
बुरी संगत, बिगड़ती राहें
अशोक पाठक को पढ़ाई में मन नहीं लगता था. स्कूल वाले परेशान, घरवाले हताश रहा करते थे. गुटखा, पान और सिगरेट की लत ने किशोर अशोक को अपनी गिरफ्त में ले लिया. मोहल्ले में वो वैसा बच्चा बन गए, जिससे माता-पिता अपने बच्चों को दूर रखने की हिदायत देते थे. उम्र के उस मोड़ पर जब दोस्ती उम्र के साथ होती है, अशोक बड़े लोगों की संगत में बहक गए.
थिएटर बना जिंदगी की दिशा
हिसार में ग्रेजुएशन के दौरान उनका थिएटर से परिचय हुआ. कॉलेज फेस्टिवल में बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला. पहली बार लगा कि कोई मंच है, जहां न शक्ल मायने रखती है, न सूरत. सिर्फ हुनर बोलता है. NSD में दाखिले की कोशिश की, दो बार रिजेक्ट हुए. आत्मविश्वास डगमगाया, सपना टूटा. लेकिन, पिता ने ढाढ़स बंधाया और उन्होंने कहा “पैसे की चिंता मत कर, मुंबई चला जा बेटा.” जिसके बाद अशोक पाठक का मनोबल बढ़ा.
मुंबई की तरफ बढ़ते कदम
भारतेंदु नाट्य अकादमी से एक्टिंग सीखी और एक प्ले डायरेक्शन से मिले चालीस हजार रुपये जेब में डालकर मुंबई की ट्रेन पकड़ी. सपनों की नगरी में कदम रखते ही पहला ऑडिशन पास हुआ और काम भी मिला. सोनी मैक्स चैनल से शुरू हुआ सफर डोमिनोज़ के ऐड तक पहुंचा, जहां 70 हजार की फीस ने जैसे यकीन दिलाया “हां, ये सफर मुमकिन है.”
पहली फिल्म हो गई फ्लॉप
‘बिट्टू बॉस’ से फिल्मों में एंट्री मिली, लेकिन फिल्म फ्लॉप हो गई. कैरेक्टर एक्टिंग में स्टीरियोटाइप होने लगे. एक ही तरह के रोल- ड्राइवर, चौकीदार यही सब मिलने लगे. 2014 तक हालात ऐसे हो गए कि काम की कमी से घर चलाना मुश्किल हो गया. लेकिन पंजाबी फिल्मों में दस्तक दी और वहां की जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया.
‘पंचायत’ से मिली पहचान
‘पंचायत’ का पहला सीज़न देखकर खुद फैन हो गए थे. दूसरे सीज़न के लिए जब विनोद के किरदार का ऑफर आया तो संकोच हुआ. पहले भी कई छोटे रोल किए थे, मन नहीं था. लेकिन दोस्तों की ज़िद और ऑडिशन के बाद जब टीम को अशोक का अभिनय पसंद आया तो ‘विनोद’ बन कर स्क्रिप्ट का हिस्सा बन गए. सीरीज स्ट्रीम होते ही लोगों के मैसेजेस की बाढ़ आ गई. छोटा सा किरदार बड़े पैमाने पर वायरल हो गया. वो लोग, जो पहले शक्ल-सूरत को देख हंसते थे, अब तारीफों में पुल बांधने लगे.
कान्स तक का सफर
सफलता की सबसे ऊंची छलांग तब लगी जब 2024 के कान्स फिल्म फेस्टिवल में अशोक पाठक ने भारत का प्रतिनिधित्व किया. राधिका आप्टे के साथ उनकी फिल्म ‘सिस्टर मिडनाइट’ को जब डायरेक्टर्स फोर्टनाइट सेक्शन में दिखाया गया, तो फिल्म को 10 मिनट तक स्टैंडिंग ओवेशन मिला. वो विनोद, जो कभी ‘साइड कैरेक्टर’ समझा जाता था, अब देश की सिनेमाई पहचान का हिस्सा बन चुका था.
संघर्ष से सफलता तक की मिसाल
अशोक पाठक की कहानी सिर्फ एक्टर बनने की नहीं, खुद को ढूंढ़ने की कहानी है. ये उन युवाओं के लिए प्रेरणा है जो हताशा में अपने सपनों को दफना देते हैं. वो बच्चा, जिससे मोहल्ले वाले डरते थे आज उसी के अभिनय के दीवाने हैं. बिहार के छोटे से कस्बे से निकलकर कान्स के रेड कार्पेट तक पहुंचने वाला ये सफर इस बात का प्रमाण है कि सपनों की कोई शक्ल नहीं होती बस हौसला चाहिए, और वक्त आने पर पूरी कायनात उन्हें पूरा करने में लग जाती है.
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