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बरसात देती है टाउन प्लानिंग की गड़बड़ियां समझने का मौका

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक बरसात बता देती है कि टाउन प्लानरों की दूरदर्शिता कितने पानी में है़ अन्य किस शहर की बात करें, हर बरसात में मुंबई जैसे महानगर की हालत भी दयनीय हो जाती है़ पर हम हैं कि कोई सबक सीखने को तैयार ही नहीं हैं. पटना तथा बिहार के अन्य अधिकतर शहरों […]

सुरेंद्र किशोर

राजनीतिक विश्लेषक

बरसात बता देती है कि टाउन प्लानरों की दूरदर्शिता कितने पानी में है़ अन्य किस शहर की बात करें, हर बरसात में मुंबई जैसे महानगर की हालत भी दयनीय हो जाती है़ पर हम हैं कि कोई सबक सीखने को तैयार ही नहीं हैं.

पटना तथा बिहार के अन्य अधिकतर शहरों के विकास की शैली को भी बरसात बेनकाब कर देती है. जिसने जहां चाहा, घर बना लिया. कहीं सड़क का अतिक्रमण हुआ तो कहीं नालों का. नालियों और सड़कों के निर्माण की गुणवत्ता की सच्चाई भी सबके सामने होती है. बरसात में भ्रष्टाचार की भी बू आने लगती है. फिर भी हर बरसात के बाद हम सब कुछ भूल जाते हैं. समस्या नगर निकायों और सरकार के बीच तालमेल की भी आती है.

वैसे किसी भी जनसेवी सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह बरसात में यह आकलन करा ले कि बरसात के बाद कहां-कहां और क्या-क्या सुधार जरूरी हैं. वैसे अनेक शहरों के मध्य में भी आबादी के बढ़ते दबाव के कारण भी तरह-तरह की समस्याएं आ रही हैं. आश्चर्य है कि किसी भी राज्य सरकार ने इस बात पर विचार क्यों नहीं किया कि पटना में गंगा किनारे के चार बड़े संस्थानों में से कम से कम दो को मुख्य पटना से बाहर स्थानांतरित कर दिया जाये?

आसपास ही बसे पटना विश्वविद्यालय, पीएमसीएच, पटना कलक्टरी और जिला अदालत ने मध्य पटना की भीड़ बढ़ा दी है. ये सब भीड़ जुटाऊ जगहें हैं. साथ ही गांधी मैदान भी पास में ही हैं. खैर, उसका तो कोई विकल्प नहीं है.

ट्रैफिक प्रबंधन की समस्या : केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी गत माह यह स्वीकारा कि ट्रैफिक प्रबंधन इस देश की पुलिस के लिए बड़ी समस्या बन चुकी है. उन्होंने तीव्र शहरीकरण को इसका मुख्य कारण बताया है.

अब सवाल है कि सुव्यवस्थित शहरीकरण के लिए इस देश की सरकारें क्या और कितना कुछ कर रही हैं? यदि सरकार नहीं करेगी तो निजी एजेंसियां तो करेंगी ही. निजी एजेसियां तो आम तौर पर जैसे-तैसे ही करेंगी. निजी एजेंसियों पर नजर रखने वाली सरकारी एजेंसियों में से अधिकतर का मुख्य लक्ष्य पैसे कमाना रहता है. पहले यह कहावत बिहार में ही थी. पर अब पूरे देश के लिए यह सत्य है.

यानी अधिकतर सरकारी कर्मी आॅफिस आने के लिए वेतन लेते हैं और काम करने के घूस. हालांकि, इसके अपवाद भी हैं. देश भर के भ्रष्टाचारियों में जेल जाने का भय समाप्त हो चुका है. फिर उपाय क्या है? जो सत्ता में हैं, उन्हें अन्य बातों के साथ-साथ इस पर भी गंभीरता से सोचना होगा कि सख्त अदालती आदेश के बावजूद अतिक्रमणकारी इतना निर्भीक क्यों रहते हैं? फुटपाथों और सड़कों पर अतिक्रमण ट्रैफिक समस्या का एक बड़ा कारण है.

यह सब पटना सहित लगभग पूरे देश में देखा जा रहा है. सिर्फ वीवीआईपी इलाके इसके अपवाद हैं. केंद्रीय गृहमंत्री को चाहिए कि वे सभी राज्यों की बैठक बुलाएं और इस समस्या के समाधान के लिए कानून में बदलाव करना जरूरी हो तो वह भी करें.

सीमा पर चौकसी जरूरी : असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के ड्राफ्ट में अभी करीब 40 लाख लोगों के नाम नहीं हैं. इनमें से जो चाहें, अभी सबूतों के साथ अपना नाम दर्ज करने का दावा कर सकते हैं.

जिनके पास पक्के सबूत होंगे, उनके तो नाम अंततः दर्ज हो ही जायेंगे. पर फिर भी संकेत हैं कि लाखों लोग सबूत नहीं जुटा पायेंगे. नतीजतन वे वोटर नहीं रहेंगे.

यानी ऐसे गैर वोटरों में उन राजनीतिक दलों की रुचि समाप्त हो जायेगी, जिन्होंने इन बांग्लादेशियों को नाजायज तरीकों से वोटर बनवाया और दूसरी सरकारी सुविधाएं दिलवायीं. बॉर्डर पार कराकर भारत लाने में तो सीमा पर तैनात भ्रष्ट सुरक्षाकर्मी व दलाल जिम्मेदार होते हैं. पर उन्हें वोटर बनवाने में वोट लोलुप नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता जिम्मेदार होते हैं.

यदि टपा कर लाये गये मानुष वोटर ही नहीं बन पायेंगे तो फिर नेता लोग क्यों घुसपैठियों की मदद करेंगे? नतीजतन घुसपैठ की समस्या काफी कम हो जायेगी. असम में भी और अन्य राज्यों में भी. हां, साथ ही समस्या के पूर्ण निदान के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों के बीच फैले भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार को विशेष उपाय करने होंगे.

सुप्रीम कोर्ट की पहल से उम्मीद जगी : सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरपुर अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड का खुद संज्ञान लेकर केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है. देश की सबसे बड़ी अदालत की इस पहल से लोगों में यह उम्मीद बढ़ी है कि उस कांड के पीड़ितों को न्याय मिलेगा.

दरअसल सीबीआई जांच पर जब तक अदालत की नजर नहीं रहती, तब तक निष्पक्ष जांच की उम्मीद कम ही रहती है. बिहार के 1983 के बाॅबी हत्याकांड और 1999 के शिल्पी जैन हत्याकांड में ऐसा हो चुका है. सत्ताधारी आरोपितों के समक्ष तो जांच एजेंसी की बेचारगी ही सामने आती रही है. दर्जनों निरीह बच्चियों के साथ जघन्य महापाप के ताकतवर आरोपित बच कर निकल न जाये, इसके लिए जरूरी है कि उनकी नार्काे और डीएनए जांच भी हो.

यदि सुप्रीम कोर्ट इसकी खास अनुमति देगा तो न्याय होने में सुविधा होगी. याद रहे कि 2010 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि आरोपित की मर्जी के खिलाफ उसका नार्को-डीएनए टेस्ट नहीं हो सकता. इस निर्णय ने बिहार में भी कई बार जांच एजेंसियों का काम कठिन बना दिया है. यदि जरूरत समझे तो सुप्रीम कोर्ट इन निरीह व बेसहारा बच्चियों के लिए 2010 के अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर ले.

भूली-बिसरी याद : आपातकाल के बड़ौदा डायनामाइट केस से कन्नड़ व तेलुगु की मशहूर फिल्म अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम अंतिम समय में हटा दिया गया था. याद रहे कि जाॅर्ज फर्नांडिस उस केस के मुख्य आरोपित थे. आपातकाल में जब सीबीआई ने अभियुक्तों की सूची बनायी थी तो उसमें स्नेहलता का भी नाम था.

पर आरोप पत्र से उनका नाम हटा दिया गया. इस संबंध में गृह मंत्रालय की राय बनी थी कि स्नेहलता अत्यंत लोकप्रिय व खूबसूरत अभिनेत्री हैं. अभिनेत्री किसी मुकदमे में अभियुक्त बनेगी तो मुकदमे में ग्लेमर का तत्व आ जायेगा. इससे मुकदमा अधिक चर्चित हो जायेगा. इससे उस केस के अन्य अभियुक्तों के प्रति भी लोगों की सहानुभूति बढ़ सकती है.

पर सरकार नहीं चाहती थी कि बड़ौदा डायनामाइट केस के अभियुक्तों खास कर जाॅर्ज फर्नांडिस के प्रति किसी की सहानुभूति हो. हालांकि, सरकार यह नहीं जानती थी कि स्नेहलता डायनामाइट के इस्तेमाल के खिलाफ थीं. बेंगलुरु निवासी स्नेहलता का पूरा परिवार समाजवादी था.

डाॅ राम मनोहर लोहिया का अत्यंत प्रशंसक. जाॅर्ज का भी उनके घर आना जाना था. पर हिंसा के सवाल पर स्नेहलता परिवार में मतभेद था. स्नेहलता आपातकाल के खिलाफ सिर्फ अहिसंक आंदोलन के पक्ष में थीं, जबकि उनकी पुत्री नंदना रेड्डी जाॅर्ज के साथ थी. फिर भी स्नेहलता को मई, 1976 में गिरफ्तार किया गया था. उन्हें जेल में इतना अधिक कष्ट दिया गया कि उनकी हालत खराब हो गयी.

खराब हालत के कारण उन्हें छोड़ा गया. जेल से छूटने के कुछ ही समय बाद यानी जनवरी 1977 में उनका निधन हो गया. याद रहे कि कन्नड़ की पहली समानांतर सिनेमा ‘संस्कार’ में स्नेहलता काम कर चुकी थीं.

और अंत में : यदि कोई सरकार चाहती है कि किसी आयोग की रपट जल्द से जल्द उसे मिल जाये तो उसे एक काम पहले ही कर देना चाहिए. उसे आयोग या कमेटी के प्रधान व सदस्यों से अनौपचारिक रूप से यह कह देना चाहिए कि इस आयोग का काम समाप्त होते ही आपको एक दूसरे आयोग को संभालना है.

दरअसल, आयोग की कुर्सी मिल जाने पर शायद ही उसे कोई छोड़ना चाहता है. क्योंकि उसके साथ कई सुविधाएं जुड़ी रहती हैं. इसलिए अधिकतर आयोग फाइनल रपट तैयार करने में अनावश्यक विलंब करते हैं.

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