मधेपुरा : लोकसभा चुनाव 2019 ने कई राजनीतिक दल व कई राजनेताओं को एक नया सबक दिया है. जातीय गोलबंदी के लिए चर्चित कोसी में भी इस बार लालू प्रसाद, शरद यादव और पप्पू यादव का किला ध्वस्त हो गया है. परिणाम बताते हैं कि मतदाताओं ने जातीय तिलिस्म को त्याग राष्ट्रहित को देखते अपने विवेक से मतदान किया.
इस चुनाव से तो यह स्पष्ट हो गया है कि लोकसभा का चुनाव राज्य की सरकार बनाने के लिए नहीं, बल्कि केंद्र में मजबूत सरकार बनाने के लिए होता है. इसीलिए लालू के वर्चस्व वाले मधेपुरा में शरद यादव जैसे कद्दावर नेता और 2009 से सुपौल के रास्ते संसद पहुंचती रहीं रंजीत रंजन को लोगों ने नकार दिया है. यादव बहुल होने के कारण मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र पर लालू प्रसाद की पार्टी का दबदबा था. वैसे तो मधेपुरा के संसदीय इतिहास में अब तक जितने भी सांसद हुए हैं, सब यादव जाति से ही हैं. लेकिन 1990 के बाद इस सीट पर लालू प्रसाद और उनकी पार्टी का ही प्रभुत्व कायम हो गया. कहते थे, यहां से लालू जिसे टिकट दे देंगे, वे लोकसभा या विधानसभा पहुंच जायेंगे.
1990 के बाद लगभग 20 वर्षों तक यही स्थिति बनी रही. खुद लालू प्रसाद ने भी एक बार यहां से चुनाव लड़ा और जीता था. इस बार शरद यादव तीन बार रांची जाकर अपनी पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल के लिए मधेपुरा की सीट मांगी, लेकिन लालू ने इसे राजद की सीट बताते हुए शरद को लालटेन से ही लड़ने का प्रस्ताव दिया. अंतत: शरद यादव को मानना पड़ा और उन्होंने लोजद को राजद में विलय करने की घोषणा कर लालटेन थाम लिया. लेकिन लोगों ने राष्ट्रनिर्माण में नरेंद्र मोदी की भूमिका को सफल मानते जदयू प्रत्याशी के सिर जीत का सेहरा पहना दिया है.
वहीं, 2009 में अस्तित्व में आये सुपौल लोकसभा क्षेत्र की पहली सांसद रंजीत रंजन ने दूसरी बार 2014 में भी अपनी जीत को बरकरार रखा. हालांकि रंजीत रंजन ने अपनी राजनीति व चुनावी यात्रा 2004 में सहरसा लोकसभा क्षेत्र से लोजपा से शुरू की थी. इस बार भी महागठबंधन ने सुपौल की सीट कांग्रेस से रंजीत रंजन को ही दिया. उनके नामांकन के साथ ही जमकर विरोध हुआ.