ई कइसन बेयार, बूढ.-बुजुर्ग के नइखे देखनीहारडाॅ दीपक रायवैश्वीकरण के बयार में उदारीकरण के नाम पर लोगन के अनुदार बनानेवाली व्यवस्था चलि रहल बिया. निजीकरण के दौर में स्वार्थपरता अउरि व्यक्तिवादिता बढ़ल बा, ‘निज आ निजी’ के दायरा से अब भाई-बाबू बहरिया गइलन. असुरक्षित रोजगार आ आर्थिक तंगी में माई-बाबू बोझा बनि गइल बाड़न. इच्छा-कामना के बेलगाम घोड़ा दउरावे में भी बूढ़ माई-बाप अब एगो बाधा मानल जा तड़न.कैरियर के उड़ान में भी घर के बू़ढ़-बुजुर्ग के युवा पीढ़ी बाधक के तौर पर देखि रहलि बिया. घर-परिवार, समाज में फइल रहल एह प्रवृति से बुजुर्ग लोगन के जीवन में दुश्वारी बढ़ल बा. दरअसल, वृद्घ लोगन के साथे बरताव हमनी के भोजपुरिया समाज में भी एगो सभ्यतागत समस्या बनल जा रहल बा. ई त ऊ समाज हù जे परिवार में वृद्घ लोगन के सेवा-सुसुक्षा में आपन जीवन धन्य मानल जात रहे. गोड़ के माटी माथे लगावल जात रहे. कवनो शुभ काम घर के बुजुर्ग लोगन के हाथे ही शुरू करावल जात रहे. लेकिन, ई परम्परा क्षीण पड़ि रहल बिया. अब तù कई गो घटना भोजपुरिया क्षेत्र से ही सुने में अइली ह सù, कि बेटा माई-बाबू के मारे के सुपारी देले बा, आ मरवाईयो देहलस. काहे कि ओकरा के पैतृक संपति में हिस्सा चाहीं, खुल के खेले के छूट चाहीं. माई-बाबू के टोका-टाकी, सलाह-सुझाव ना चाहीं. ई कुल तù युवा पीढ़ी के अब ‘बुढ़भस’ बुझात. बाति ई बाकि एह अर्थ प्रधान युग में बुजुर्ग लोग, जे कवनो आर्थिक गतिविधि में शामिल नईखे, ऊ एगो बोझा बा, सबसे कमजोर कड़ी एह तंत्र में उहे बा. जेकरा के कवनो पेंशन नईखे मिलत, ओकर त जीयल अउरि मुश्किल बा. एह भाग-दौड़ में, तेज रफ्तार में, जोश, मस्ती, मादकता, उल्लास में आसमान छुअत इच्छा के स्वपA लोक में कांपत हाथ, उदास लस्त-पस्त हौंसला, झुर्रियन से भरल चेहरा, झुकल करिहाई, नवहा लोगन खातिर लगामे बुझाता. बेटा-बेटी के बहरी कमाए चलि गईला पर गांवे-घरे केहू देखभाल खातिर रहिए नईखे जात. ओह लोग के खाता में पईसा चलि आवेला, बाकिर खुषी कईसे आई. ई तù ना मनीआर्डर होखेला ना आरटीजीएस होखेला. पईसा रही बाकिर अकेलापन भी रही. मान लेई केहू बूढ़ा-बुढ़ी के नोकरियों पर लिया गईल तù ओहिजो अकेले ही रहे के बा. आपन समाज से कटि जाए के बाù. जीवन भर जवना परिवेश, जवना समाज में आदिमी रहल, बुढ़ापा में खाली एह से ओकरा से वंचित हो जाये कि ऊ कमाऊ पूत पर आश्रित हो गइल. ई ठीक नईखे. ई एक किसिम के विस्थापन हù. जेकर दंश कई गो माई-बाप बुढ़ापा में ङोले खातिर बाध्य बाड़न. ई एगो बड़ा षाकाहारी किसिम के हिंसा हù बुजुर्ग लोगन के प्रति. कई बेर त देखे-सुने में आवेला कि लोग अपना सभा-सोसाईटी में माई-बाप के नोकर बता देलन, कि ‘बच्चा लोग के देखभाल के लिए लाए हैं.’ एह टूटन के दर्ज करे वाला कवनो मीटर, कवनो यंत्र नईखे. बुढ़ापा में लोगन के एगो संवेदनात्मक संरक्षण के भी जरूरत बा. ऊ लोग अनुपयोगी हो गइल बाù. एह एहसास से भी ओह लोगन के बचावे के जरूरत बा. घर के फैसलन में ओह लोगन के भागीदारी के एहसास करावल जाये. माई-बाप के हैसियत, महत्व आ जरूरत पईसा से ना, रिश्ता, संवेदना आ आत्मीयता से तय होखे. ओह लोगन के उपयोगी-अनुपयोगी के शब्दावली में ना देखल जाव. ओह लोगन के कवनो ना कवनो भूमिका दिहल जाये जेकरा चलते ऊ लोग अपना के, अपना व्यक्तित्व के जी सके. जीवन निर्थक ना लागे. केहू के माई, केहू के बाप के रूप में ना, एगो जरूरी नागरिकता के संगे जी सके. आ ई संदेश अगर भोजपुरिया माटी से जाए तù का निमन होई.
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ई कइसन बेयार, बूढ.-बुजुर्ग के नइखे देखनीहार
ई कइसन बेयार, बूढ.-बुजुर्ग के नइखे देखनीहारडाॅ दीपक रायवैश्वीकरण के बयार में उदारीकरण के नाम पर लोगन के अनुदार बनानेवाली व्यवस्था चलि रहल बिया. निजीकरण के दौर में स्वार्थपरता अउरि व्यक्तिवादिता बढ़ल बा, ‘निज आ निजी’ के दायरा से अब भाई-बाबू बहरिया गइलन. असुरक्षित रोजगार आ आर्थिक तंगी में माई-बाबू बोझा बनि गइल बाड़न. इच्छा-कामना […]
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