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लावारिस शवों का वारिस बन कर सामने आ जाते हैं बुजुर्ग भारती

सेवा भाव l 1962 से चल रहा है सिलसिला, तीन हजार से अधिक शवों का कर चुके हैं अंतिम संस्कार अररिया : अपने जीवन की 56 साल पुरानी इस दास्तां को सुनाते हुए पारस चंद्र भारती के आंखों में जवानी की चमक लौट आती है़ चेहरे पर प्रसन्नता और आत्मसंतुष्टि का भाव छलकने लगता है. […]

सेवा भाव l 1962 से चल रहा है सिलसिला, तीन हजार से अधिक शवों का कर चुके हैं अंतिम संस्कार

अररिया : अपने जीवन की 56 साल पुरानी इस दास्तां को सुनाते हुए पारस चंद्र भारती के आंखों में जवानी की चमक लौट आती है़ चेहरे पर प्रसन्नता और आत्मसंतुष्टि का भाव छलकने लगता है. लंबे घुंघराले व सफेद बाल वाले 85 वर्षीय पारस चंद्र भारती के चेहरे पर पड़ी उम्र की झुर्रियां मलीन पड़ जाती है. हाजिपुर के कोनहरा घाट पर मानवता की सेवा से प्रेरित होकर पारस चंद्र भारती ने 1962 में लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का बीड़ा उठा लिया़
लावारिस शवों का…
जात-पात धर्म और मजहब के बंधनों से मुक्त होकर मानवता की सेवा के साथ पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी अपनी चिंताओं के कारण आस-पास फेंके गये मवेशी के शवों को भी वे दफनाने का काम करने लगे़ शव अगर दूसरे समुदाय का होता, तो अंतिम संस्कार उनकी धार्मिक परंपराओं के अनुसार कराते थे. बतौर पारस चंद्र भारती बाद में दोनों समुदाय के शवों की पहचान उनके लिए बेहद आसान हो गयी.
मानवता की सेवा व पर्यावरण संरक्षण की चिंता के कारण चुना यह काम :
70 के दशक में भारती अररिया काली मंदिर वार्ड संख्या 23 स्थित अपने घर लौट आये़ मानवता की सेवा और पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी चिंताओं के कारण उनका यह संघर्ष यहां भी जारी रहा. जो जीवन के अस्सी दशक बाद आज तक नहीं रुका. उम्र की वजह से कुछ लाचारियां तो बढ़ी हैं, लेकिन इस नेक कार्य के प्रति उनका हौसला आज भी कम नहीं हुआ. अभी भी लावारिस लाश मिलने की सूचना पर उनके अंत्येष्टि की चिंताओं से परेशान होकर वे वहां आ धमकते हैं. अब तक तीन हजार से अधिक शव को वे मुक्तिधाम पहुंचा कर उनका विधिवत संस्कार संपन्न करा चुके हैं.
शवदाह गृह की बदहाली और अशांति काल की यादों से होते हैं दुखी:
जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके पारस चंद्र भारती काली मंदिर के पीछे परमान नदी घाट पर करोड़ों की लागत से बने शवदाह गृह की दुर्दशा देख कर बेहद आहत होते हैं. कहते हैं कि जिले में शवदाह के लिए कोई जगह अधिकृत नहीं है. परमान की धार लगातार पूरब खिसक रही है. नदी की धार व शहर के सबसे घनी आबादी वाले इलाका के बीच का फासला लगातार बढ़ रहा है. खाली जगह पर बरसात के दिनों जलजमाव की समस्या गंभीर रूप ले लेती है. इससे शव दाह की परेशानी कई गुणा बढ़ जाती है.
इस कारण परमान किनारे बने शवदाह गृह की दुर्दशा उन्हें परेशान करती है़ वैसे 1992 में अशांति के उस दौर को याद कर के वे बेहद दुखी होते हैं. कहते हैं कि वह एक मुश्किल घड़ी थी. हर तरफ लावारिस लाश पड़े होने की सूचना मिल रही थी. कानूनी पचड़ों में पड़ने के डर से शवों की पहचान नहीं हो पाती थी. माहौल में तनाव व्याप्त होने के कारण जान का खतरा भी था़ दाह संस्कार के लिए लकड़ी जुटाना बेहद मुश्किल हो गया था. भारती जी कहते हैं वह तो हौसला ही इतना मजबूत था़ जो अपने प्रण को पूरा करने के बीच आने वाली तमाम बाधाएं अपने आप खत्म होती चली गयी़
लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का उठा रखा है बीड़ा
पारस चंद्र भारती कहते हैं कि गंगा व अन्य नदियों में आदमी व जानवर की लाश लोग यूं ही बहा देते हैं. बिना यह सोचे की इससे नदियों की पवित्रता प्रभावित होती है़ पर्यावरण को भी इससे गंभीर नुकसान पहुंचता है़ सवाल है कि हम अपने अगले पीढ़ी को जीने लायक माहौल भी देंगे की नहीं. मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा सवाल तो इससे भी महत्वपूर्ण है. मनुष्य हो या पशु जीते जी ही नहीं, मृत्यु के बाद भी उनकी दुर्गती नहीं होनी चाहिए.
अपनों से मदद मिली करना पड़ा भिक्षाटन भी
साठ के दशक में कोनहरा घाट पर पारस चंद्र भारती किसी संवेदक के मुंशी के तौर पर काम करते थे़ गंगा व गंडक के इस संगम पर हर दिन सैकड़ों शव बह कर आते थे़ वहीं उन्हें संपूर्ण मानवता की सेवा के लिए इस विशेष पहल की प्रेरणा मिली थी.
अपनों से मदद…
कुछ दिन बाद यह नौकरी छूट गयी़ लौट कर अररिया में परिवार चलाने के लिए उन्होंने आयुर्वेदिक जड़ी-बुटियों की दुकान खोल ली. घर की माली हालत बहुत ठीक नहीं थी़ शवदाह व जरूरी संस्कार के लिए पैसों की कमी हमेशा लगी रहती थी. करीबी लोग समय-समय पर उचित मदद करते थे. बावजूद इसके जब रुपये का जुगाड़ नहीं हो पाता, तो जरूरत की राशि जुटाने के लिए उन्हें भीक्षाटन से भी कभी कोई परहेज नहीं रहा. उनका जड़ी-बुटी का कारोबार आज भी चल रहा है़
अपने इस पेशे के जरिये भी वे लोगों के लिए मददगार साबित हो रहे हैं. इलाज के लिए वे गरीबों से पैसा नहीं लेते. जब कोई संपन्न व्यक्ति उनके पास इलाज के लिए पहुंचता है़, तो मदद स्वरूप उनसे जो कुछ मिलता है़ उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं.

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