भाषण के चार स्तर होते हैं- पर, पश्यंति, मध्यमा और विकारी. जो भाषा हम इस्तेमाल करते हैं, वह विकारी है. यह भाषा का सबसे प्रचलित रूप है. मनुष्य केवल चौथी प्रकार की भाषा बोलते हैं. विकारी से सूक्ष्म है मध्यमा. इसको बोलने से पहले ही आपको विचार के रूप में सतर्कता आ जाती है. जब आप इसे उस स्तर पे पकड़ लेते हो, तो यह मध्यमा है.
पश्यंति एकदम समझ आनेवाला है. इसमें कुछ शब्द कहने की आवश्यकता नहीं होती. अनकहा, अप्रकट ज्ञान है, जो शब्दों या समझ से परे है. सारा ब्रह्मांड गोलाकार है. यह न तो कभी शुरू हुआ था और न कभी इसका अंत होगा. यह अनादि और अनंत है. कहा जाता है कि हर युग में बहुत से ब्रह्मा, विष्णु,और शिव होते हैं. समय और अंतरिक्ष में ऐसा होता रहता है. तो इस सर्जन का स्रोत कहां है? ज्ञान आकाश से परे है. ज्ञान पंच तत्वों से परे है.
वेदों का ज्ञान विकारी नहीं है. ये ज्ञान अंतरिक्ष से परे है. सभी दैवी शक्तियां उस तत्व में निहित हैं, जो कि सर्वव्यापी है. यह आकाश क्या है? आकाश में सब कुछ विद्यमान है, सारे चार तत्व आकाश में हैं. सबसे स्थूल भूमि है, फिर जल, अग्नि, वायु और आकाश है. वायु अग्नि से सूक्ष्म है. आकाश सबसे अधिक सूक्षम है. वह क्या है जो आकाश से भी परे है? वे है मन, बुद्धि, अहम, और महातत्व. इसे तत्त्व ज्ञान कहते हैं- ब्रह्मांड के सिद्धांत को जानना. जब तक आप ब्रह्मांड के सिद्धांतों को नहीं जानोगे, तब तक आप स्वयं को नहीं जान सकते. जब आप आकाश से परे जाते हो, यह एक अनुभवात्मक क्षेत्र है. सारा क्षेत्र आकाश के परे शुरू होता है. प्राचीन संतों ने द्रव्य और पदार्थ के गुणों के संबंधों के बारे में बताया है.
पदार्थ और उसके गुणों को अलग करने को लेकर एक बहुत मनोरंजक विवाद है. निष्कर्ष यह कि तुम पदार्थ से गुण अलग नहीं कर सकते. क्या चीनी से मिठास हटायी जा सकती है? पदार्थ में गुण कहां से आते हैं? पहले क्या आता है- गुण या वस्तु? बहुत सारे ऐसे प्रश्न आते हैं. जितनी गहराई में आप जाते हो, आप पाते हो कि सभी देवी-देवता उसी अनुभवात्मक क्षेत्र में रहते हैं. जहां विज्ञान समाप्त होता है, वहां से अध्यात्म शुरू होता है.
– श्री श्री रविशंकर