अकेले होकर स्वयं का सामना करना भयावह है और प्रत्येक को इसका कष्ट भोगना पड़ता है. हर एक को यह कष्ट, यह पीड़ा भोगना होगा और इससे गुजरना होगा. यह अच्छा संकेत है कि तुम एक नये जन्म के नजदीक हो, क्योंकि हर जन्म के पूर्व पीड़ा अवश्यंभावी है.
इससे बचा नहीं जा सकता और इससे बचने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह तुम्हारे विकास का एक आवश्यक अंग है. लेकिन यह पीड़ा क्यों होती है? इसे समझ लेना चाहिए, क्योंकि समझ इससे गुजरने में मददगार होगी, और यदि तुम इसे जानते हुए इससे गुजर सके, तब तुम अधिक आसानी से और अधिक शीघ्रता से इसके बाहर आ सकते हो. जब तुम अकेले होते हो तो पीड़ा क्यों होती है? पहली बात यह है कि तुम्हारा अहंकार बीमार हो जाता है. तुम्हारा अहंकार तभी रह सकता है, जब तक दूसरे हैं.
यह संबंधों में विकसित हुआ है, यह अकेले में जी नहीं सकता. इसलिए यदि ऐसी स्थिति आ जाये, जिसमें यह जी ही नहीं सकता, तो यह घुटन महसूस करने लगता है, उसे लगता है कि यह मृत्यु के कगार पर है. यह सबसे गहरी पीड़ा है. तुम ऐसा महसूस करते हो, जैसे तुम मर रहे हो. लेकिन यह तुम नहीं हो जो मर रहे हो, यह केवल तुम्हारा अहंकार है, जिसे तुमने स्वयं होना मान लिया है. यह जिंदा नहीं रह सकता, क्योंकि यह तुम्हें दूसरों के द्वारा दिया हुआ है. जब तुम दूसरों को छोड़ देते हो तब तुम इसे ढो नहीं सकते. इसलिए अकेलेपन में, तुम जो भी अपने बारे में जानते हो, सब गिर जायेगा; धीरे-धीरे वह विदा हो जायेगा.
तुम अपने अहंकार को कुछ समय के लिए लंबा खींच सकते हो, लेकिन तुम इसे बहुत लंबे समय तक नहीं खींच सकते. समाज के बिना तुम्हारी जड़ें उखड़ जाती हैं; जमीन नहीं मिलती, जहां से जड़ों को भोजन मिल सके. यही मूल पीड़ा है. तुम्हें यह भी निश्चित नहीं रहता कि तुम कौन हो- तुम एक फैलते हुए व्यक्तित्व मात्र रह गये हो, एक पिघलते हुए व्यक्तित्व. लेकिन यह अच्छा है, क्योंकि जब तक तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व समाप्त नहीं होता, वास्तविक प्रकट नहीं हो सकता. जब तक तुम पूरी तरह धुल नहीं जाते और स्वच्छ नहीं हो जाते, वास्तविकता प्रकट नहीं हो सकती.-आचार्य रजनीश ओशो