आत्मा कोई इकाई नहीं है. लोगों में बस थोड़ी समझ पैदा करने के लिए हिंदू संस्कृति में, ‘जो असीमित है,’ उसके लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया गया, लेकिन दुर्भाग्य से इसे अब गलत अर्थ में समझा जाता है. जो असीमित है वह कभी भी एक इकाई नहीं हो सकता. लेकिन जैसे ही आप इसे एक नाम दे देते हैं, यह एक इकाई बन जाता है.
लोग ‘अच्छी आत्माओं’ की बात करते हैं. पश्चिम में लोग कहते हैं, ‘अरे, वह एक अच्छी आत्मा है.’ कोई आत्मा अच्छी या बुरी नहीं होती. आत्मा सभी पहचानों से, सभी इकाइयों से, सभी चीजों से परे है. इसे समझने का दूसरा तरीका यह है कि आत्मा जैसी कोई चीज ही नहीं है. इसी वजह से गौतम बुद्ध कहते फिरते थे, ‘तुम ‘अनात्म’ हो. आत्मा कुछ नहीं है.’ प्राण एक अन्य शरीर की तरह है, अब आप प्राण के बारे में पूछ रहे हैं. योग में कहा जाता है कि हर चीज शरीर है. भौतिक शरीर, शरीर है, मन शरीर है, प्राण शरीर है, आकाशीय-तत्व शरीर है, हर चीज शरीर की तरह है, यहां तक कि आत्मा भी शरीर की तरह है. यह चीजों को देखने का बहुत समझदारी भरा तरीका है.
जब हम कहते हैं आनंदमय कोष, तो बेशक हम परम तत्व की बात कर रहे हैं, लेकिन उसे भी एक शरीर के रूप में. ऐसा इसलिए कि आप इन बातों को समझ सकें. दूसरे शब्दों में, अगर आप अपने शरीर को पूरी सृष्टि के एक ‘मॉडल’ यानी नमूने की तरह लेते हैं, तो यह कुछ ऐसा है, जैसे आप ब्रश से पेंट को फैला रहे हों. जब आप ब्रश से पेंट को फैलाते हैं, तो रंग शुरू में बहुत गाढ़ा या सुर्ख होता है, और अंत में रंगहीन हो जाता है. कुछ इसी तरह यह भौतिक-शरीर से शुरू होकर मानसिक-शरीर फिर ‘प्राणिक-शरीर’ तक स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता चला गया है.
भौतिक-शरीर और मानसिक-शरीर में ज्यादा स्थूलता है. प्राणिक-शरीर वह ऊर्जा है, जो इन सबको चलाती है, और यही है जो आपको शरीर से जोड़ कर रखती है. प्राण खत्म हो जाते हैं, तो आप खत्म हो जाते हैं. आपका शरीर निर्जीव हो जाता है या आप अपने खुद के अनुभव में मर जाते हैं, इसे आप जैसे भी चाहें ले सकते हैं. मौत सिर्फ यही है कि प्राण ने अपना कंपन खो दिया है.
-सद्गुरु जग्गी वासुदेव