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देवताओं का एक दिन है एक संवत

‘सदगुरु स्वामी आनन्द जी’संवत सिर्फ़ भारतीय कैलेंडर मात्र नहीं है, बल्कि इसे देवताओं का एक दिन भी कहते हैं. छः मानव श्वास से एक विनाड़ी बनती है. 10 विनाड़ी यानी साठ श्वासों से एक नाड़ी और साठ नाड़ियां एक दिवस (दिन-रात का युगल) निर्मित करती हैं. तीस दिवसों का एक माह होता है. एक चंद्र […]

‘सदगुरु स्वामी आनन्द जी’
संवत सिर्फ़ भारतीय कैलेंडर मात्र नहीं है, बल्कि इसे देवताओं का एक दिन भी कहते हैं. छः मानव श्वास से एक विनाड़ी बनती है. 10 विनाड़ी यानी साठ श्वासों से एक नाड़ी और साठ नाड़ियां एक दिवस (दिन-रात का युगल) निर्मित करती हैं. तीस दिवसों का एक माह होता है. एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से निर्मित होता है. सूर्य के राशि परिवर्तन से एक सौर मास आरंभ होता है और राशि प्रस्थान से माह पूर्ण हो जाता है. द्वादश माह का एक संवत होता है और एक संवत देवताओं का एक दिन कहलाता है. जम्बूद्वीप यानि भारतीय उपमहाद्वीप में यूं तो कई संवत प्रचलित रहे हैं, हैं पर आज दो संवत अधिक प्रख्यात हैं, पहला, विक्रम संवत, दूसरा शक संवत..

विक्रम संवत ईसा से लगभग पौने 58 साल पहले प्रकट हुआ. समय को गिनने की यह पद्धति गर्दभिल्ल के पुत्र सम्राट विक्रमादित्य, जिन्होंने मालवों का नेतृत्व कर विदेशी ‘शकों’ को धूल धुसरित किया था,के महती प्रयास से अस्तित्व में आयी. बृहत्संहिता की व्याख्या करते हुए 966 ईसवी में ‘उत्पल’ ने लिखा कि शक साम्राज्य को जब सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने पराभूत कर दिया,तब नया संवत अस्तित्व में आया, जिसे आज विक्रम संवत कहा जाता है. विदेशी शकों को उखाड़ फेंकने के बाद तब के प्रचलित शक संवत के स्थान पर विदेशियों और आक्रांताओं पर विजय स्तंभ के रूप में विक्रम संवत स्थापित हुआ. आरम्भ में इस संवत को कृत संवत के नाम से जाना गया. कालांतर में यह मालव संवत के रूप में भी लोकप्रिय हुआ. बाद में जब विक्रमादित्य राष्ट्र प्रेम प्रतीक चिन्ह के रूप में स्थापित हुए, तब मालव संवत ख़ामोशी से, कई सुधारों को स्वयं में समेटते हुए, विक्रम संवत के रूप में तब्दील हो गया. पर शकों का शक संवत अब तक भारत में मान्य है. महाकवि कालिदास इन्ही सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न थे.

द्वादश माह के वर्ष एवं सात दिन के सप्ताह का आग़ाज़ विक्रम संवत से ही आरम्भ हुआ. विक्रम संवत में दिन, सप्ताह और मास की गणना सूर्य व चंद्रमा की गति पर निश्चित की गयी. यह काल गणना अंग्रेज़ी कैलेंडर से बहुत आधुनिक और विकसित प्रतीत होती है. इसमें सूर्य, चंद्रमा के साथ अन्य ग्रहों को तो जोड़ा ही गया,साथ ही आकाशगंगा के तारों के समूहों को भी शामिल किया गया, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है. एक नक्षत्र चार तारा समूहों के मेल से निर्मित होता है, जिन्हें नक्षत्रों के चरण के रूप में जाना जाता है. कुल नक्षत्र की संख्या सत्ताईस मानी गयी है, जिसमें अट्ठाईसवें नक्षत्र अभिजीत को शुमार नहीं किया गया. सवा दो नक्षत्रों के समूहों को एक राशि माना गया. इस प्रकार कुल बारह राशियां वजूद में आईं, जिन्हें बारह सौर महीनों में शामिल किया गया. पूर्णिमा पर चंद्रमा जिस नक्षत्र में गतिशील होता है, उसके अनुसार महीनों का विभाजन और नामकरण हुआ है. सूर्य जब नई राशि में प्रविष्ट होता है वह दिवस संक्रांति कहलाता है. पर चूंकि चंद्रवर्ष सूर्यवर्ष यानि सौर वर्ष से ग्यारह दिवस,तीन घाटी, और अड़तालीस पल कम है, इसीलिए हर तीन साल में एक एक मास का योग कर दिया जाता है, जिसे बोलचाल में अधिक माह,मल मास या पुरूषोत्तम माह कहा जाता है.

राष्ट्रीय शाके अथवा शक संवत भारत की बेहद प्रचलित काल निर्णय पद्धति है.

शक संवत्‌ का आरम्भ यूं तो ईसा से लगभग अठहत्तर वर्ष पहले हुआ, पर इसका अस्पष्ट स्वरूप ईसा के पांच सौ साल पहले से ही मिलने लगा था. वराहमिहिर ने इसे शक-काल और कहीं कहीं शक-भूपकाल कहा है. शुरुआती कालखंड में लगभग समस्त ज्योतिषिय गणना और ज्योतिषिय ग्रंथों में शक संवत ही प्रयुक्त होता था. शक संवत के बारे में धारणा ये है कि यह उज्जयिनी सम्राट ‘चेष्टन’ के अथक प्रयास से प्रकट हुआ. इसके मूल में सम्राट कनिष्क की भी महती भूमिका मानी जाती है. शक संवत को ‘शालिवाहन’ भी कहा जाता है. पर शक संवत के शालिवाहन नाम का उल्लेख तेरहवीं से चौदहवीं सदी के शिलालेखों में मिलता है. कहीं कहीं इसे सातवाहन भी कहा गया है. संभावना है कि सातवाहन नाम पहले साल वाहन या शाल वाहन बना और कालांतर में ये ‘शालिवाहन’ के स्वरूप में प्रख्यात हुआ. शक संवत के साल का आग़ाज़ चन्द्र सौर गणना के लिए चैत्र माह से और सौर गणना के लिए मेष राशि से होता है.

इनके अलावा एक और संवत्सर प्रचलित है, जिसे लौकिक संवत कहा जाता है. इसे सप्तर्षि संवत भी कहते हैं, जो उत्तर में विशेष रूप से कश्मीर और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है. इसे शक संवत से भी अधिक प्राचीन माना गया है. बौद्ध धर्म के विस्तार से पूर्व इस संवत्सर के विस्तारसूत्र चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया और उससे आगे तक नज़र आते हैं. बृहत्संहिता के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र में शतवर्षों तक यानि सौ साल तक रहते है।मान्यताओं के अनुसार युधिष्ठर के शासन काल में भिनसप्तर्षि संवत्सर अस्तित्व में था. सप्तर्षि संवत दरअसल मेष राशि से प्रारम्भ होकर, सौ वर्षों के वृत्तों में गणना की विधि थी। है. मध्य काल में अन्य बहुत से संवत् वजूद में थे.

जैसे गुप्त, कोल्लम या परशुराम, हर्ष, वर्धमान, चेदि, बुद्ध-निर्वाण और लक्ष्मणसेन। वक़्त के थपेड़ों में गुम होने से पहले ये सारे संवत अपने काल में आज के अंग्रेज़ी कैलेंडर और विक्रम या शक संवत से कहीं बहुत ज़्यादा बड़ी हैसियत रखते थे और बेहद असरदार और प्रख्यात थे.

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