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योगी के प्रभाव को दर्शाते परिणाम

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रदेश में लहर है. इन चुनावों को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से लड़ा और जगह-जगह वह प्रचार के लिए भी गये. मुख्यमंत्री योगी ने मुख्य रूप से अपने प्रचार में यह कहा कि उत्तर प्रदेश से गुंडा तत्वों और माफिया राज का सफाया कर दिया गया है.

उत्तर प्रदेश के नगर निकायों के चुनाव में भाजपा ने बहुत बड़ी विजय दर्ज की है. नगर निकायों की तीनों शाखाओं में राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा का प्रदर्शन 2017 की तुलना में काफी बेहतर रहा है. सभी 17 नगर निगमों पर उसने कब्जा जमा लिया है. पिछली बार बसपा के दो मेयर जीते थे. साल 2017 में भाजपा ने 14 मेयर जीते थे. नगर पालिका और नगर पंचायत में भी उसने बढ़त हासिल की है. राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी सपा का प्रदर्शन पहले की अपेक्षा बहुत खराब रहा है.

इसी तरह बसपा की स्थिति भी निराशाजनक रही है. कांग्रेस तो स्वाभाविक रूप से उत्तर प्रदेश में अनुपस्थित है. कहीं-कहीं वह सांकेतिक जीत दर्ज करा सकी है. इससे यह पता लगता है कि नगर निकाय चुनावों में मुख्य शहरों के अलावा आसपास के कस्बाई इलाकों और गांवों में भी भाजपा की पैठ गहरी होती जा रही है. भाजपा की इस बड़ी विजय के जो मुख्य कारण दिखते हैं, उनमें एक तो यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रदेश में लहर है. इन चुनावों को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से लड़ा और जगह-जगह वे प्रचार के लिए भी गये.

मुख्यमंत्री योगी ने मुख्य रूप से अपने प्रचार में यह कहा कि उत्तर प्रदेश से गुंडा तत्वों और माफिया राज का सफाया कर दिया गया है. यह इस समय राज्य में घर-घर चर्चा का विषय भी है. हाल में अतीक अहमद के माफिया साम्राज्य को जिस तरह से ध्वस्त किया गया है, उससे जनता में यह संदेश गया है कि योगी राज में अपराधियों का खात्मा किया जा चुका है. समाजवादी पार्टी इस प्रचार का मुकाबला नहीं कर पायी, उसके पास इसकी कोई काट नहीं थी.

अखिलेश यादव ने अपने भाषणों में यह जरूर कहा कि राज्य में असल में पुलिसिया गुंडागर्दी चल रही है, लेकिन वे जनता के बीच यह संदेश नहीं ले जा सके कि मुख्यमंत्री योगी ने कानून-व्यवस्था और अदालतों का काम अपने हाथ में ले लिया है या पुलिस महकमे को थमा दिया है. यह बात भी उल्लेखनीय है कि जितना प्रचार योगी जी और उनके मंत्रियों ने किया, उसके मुकाबले अखिलेश यादव कम ही निकल सके.

बसपा प्रमुख मायावती तो प्रचार के लिए निकली ही नहीं. पार्टी के अन्य मुख्य नेता सतीशचंद्र मिश्र भी प्रचार अभियान से अलग ही रहे. नगर निकायों के चुनाव में आम तौर पर निर्दलीय बहुत जीतते हैं. इस बार भाजपा ने यह किया कि जो निर्दलीय जीतने लायक थे, उन्हें अपने पाले में करने की कोशिश की.

यह भी महत्वपूर्ण है कि भाजपा ने दलित और पिछड़े समुदायों के अलावा मुस्लिम समुदाय के पिछड़े वर्ग, जिन्हें हम पसमांदा मुस्लिम के नाम से जानते हैं, को जोड़ने की हरसंभव कोशिश की. यह पहली बार है, जब भाजपा ने इन चुनावों में 395 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे. इनमें से 54 लोग जीत भी गये हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार कहा भी था कि भाजपा को पसमांदा तबके से जुड़ने का प्रयत्न करना चाहिए.

ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में इस दिशा में भी काम हो रहा है. अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी और ओवैसी की पार्टी मीम के उम्मीदवार भी मैदान में थे. इन्हें भी कहीं कहीं सांकेतिक जीत ही हासिल हो सकी है, जो बहुत उल्लेखनीय नहीं कही जायेगी. तो, 2023 में हुए उत्तर प्रदेश के नगर निकायों के चुनाव का संदेश यह है कि राज्य में भाजपा ने अपना राजनीतिक प्रभुत्व और वर्चस्व बढ़ाया है.

योगी आदित्यनाथ एक सख्त प्रशासक के रूप में देखे जा रहे हैं और उनकी वाहवाही हो रही है. इससे आप संकेत निकाल सकते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में राज्य का रूख क्या रहने वाला है. अभी तो यही लग रहा है कि बीते दो आम चुनावों की तरह राज्य में पलड़ा भाजपा के ही पक्ष में झुका रहेगा. भले ही कर्नाटक से कांग्रेस के लिए, या कह सकते हैं, विपक्ष के लिए उम्मीद भरी खबर आयी है, लेकिन उत्तर प्रदेश से बदलाव का कोई संकेत मिलता दिखाई नहीं देता.

जहां तक कर्नाटक से प्रेरित होकर तथा उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव के परिणाम के आलोक में विपक्ष के सबक लेने का सवाल है, तो हमें यह समझना होगा कि उत्तर प्रदेश का हिसाब अलग है. इस संदर्भ में यहां जो क्षेत्रीय स्तर के प्रभुत्वशाली नेता हैं, मेरा मतलब मुख्य रूप से मायावती और अखिलेश यादव से है, उनकी पहल महत्वपूर्ण हो जाती है. ये नेता पहले एक साथ आ चुके हैं और फिर अलग भी हुए. अब उनके साथ आने की संभावना नहीं दिखती. इनके दोनों दल कांग्रेस के विरोध से जन्मे हैं.

इसलिए इनके कांग्रेस के साथ जाने की संभावना भी नहीं है. दूसरी बात यह भी है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार लगातार क्षीण होता जा रहा है. नगर निकायों के चुनाव में किसी भी बड़े कांग्रेसी नेता ने कोई दिलचस्पी नहीं ली. समाजवादी पार्टी नीतीश कुमार या ममता बनर्जी के साथ जाती है या नहीं, इस पर अभी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि दोनों नेताओं से अखिलेश के अच्छे संबंध हैं, पर उनका कांग्रेस के साथ जा पाना बेहद मुश्किल दिखता है. तो, उत्तर प्रदेश से हमें बड़े विपक्षी मोर्चे की संभावना नहीं दिखती है.

इन चुनावों ने भाजपा के भीतर भी योगी आदित्यनाथ के कद को बढ़ाया है. उनकी सरकार के कामकाज का मूल्यांकन अन्य बातों के आधार पर नहीं हो रहा है. उन्हें लोग एक पीठ के प्रमुख साधु-संत के रूप में देखते हैं. उनकी छवि एक आक्रामक धार्मिक नेता की छवि है. मुख्यमंत्री के रूप में उनकी यह छवि बन गयी है कि वे ही गुंडा राज को नियंत्रित रख सकते हैं. उत्तर प्रदेश में अगर आर्थिक मसलों, बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था आदि अन्य मामलों को देखेंगे, तो वे कुछ कमजोर दिखते हैं.

यह भी है कि जो माफिया या अपराधी दूसरे दलों से जुड़े हैं, उन पर तो कार्रवाई हो रही है, पर भाजपा से संबंधित लोगों पर नहीं. एक बड़ा उदाहरण भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह का ही है. लेकिन यह जरूर है कि भाजपा जिस एजेंडे की ओर बढ़ रही है, उसमें योगी का महत्व बहुत बढ़ जाता है. याद किया जाना चाहिए कि 2019 में भाजपा के भीतर योगी को हटाने की एक मुहिम भी चली थी, जो कारगर नहीं हो सकी थी.

आज जो स्थिति है, उसमें वे बड़े मजबूत नेता हैं, खासकर उत्तर प्रदेश से भाजपा के बड़े नेताओं की तुलना में. इसमें कोई दो राय नहीं है कि योगी आदित्यनाथ अपना कद बहुत बढ़ा गये हैं तथा उनके सामने फिलहाल कोई बड़ी चुनौती भी नहीं हैं. (बातचीत पर आधारित).

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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