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संयत भाषा का इस्तेमाल करें नेता

लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी होता है, लेकिन कांग्रेस और अन्य दलों की जो स्थिति है, उसने विपक्ष को बेहद कमजोर कर दिया है. अब हालत यह है कि 1885 में स्थापित कांग्रेस आज अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है. इस साल अनेक राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और फिर 2024 में लोकसभा चुनाव हैं.

आजकल बिना सोचे समझे बोलने का रिवाज-सा चल गया है. कई बार नेता, चाहे वे सत्तापक्ष के हों या विपक्ष के, अनर्गल बातें बोलते हैं. वे यह नहीं समझ रहे हैं कि यह सोशल मीडिया का दौर है, देश के किसी भी कोने में कही उनकी बात की गूंज पूरे देश में सुनाई देती है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी का मामला सुर्खियों में है. उन्हें मानहानि मामले में दोषी करार देते हुए सूरत की एक अदालत ने दो साल की सजा सुनायी थी, जिसके आधार पर उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी है. पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन कहा जा रहा है कि सलाहकारों ने राहुल गांधी को सही सलाह नहीं दी, अन्यथा राहुल गांधी माफी मांग कर इस मामले से मुक्त हो सकते थे. यह भी कहा जा रहा है कि उनकी सजा के खिलाफ तत्काल ऊपरी अदालत का दरवाजा भी नहीं खटखटाया गया. कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी पर की गयी अनर्गल टिप्पणी को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा को दिल्ली हवाई अड्डे से गिरफ्तार किया गया था. पवन खेड़ा तत्काल हरकत में आये और सुप्रीम कोर्ट चले गये, जहां से उन्हें अंतरिम राहत मिल गयी थी. विधि विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि मानहानि के ज्यादातर मामले अदालत में माफी मांगने के साथ ही समाप्त हो जाते हैं. अगर राहुल गांधी भी माफी मांग लेते, तो वे न तो दोषी ठहराये जाते और न ही उनकी लोकसभा सदस्यता समाप्त होती.

भले ही आज राहुल कह रहे हों- ‘मेरा नाम सावरकर नहीं है, गांधी है. गांधी किसी से माफी नहीं मांगता,’ जबकि सच यह है कि वे पहले कई बार माफी मांग चुके हैं. साल 2013 में राहुल गांधी ने अपनी ही यूपीए सरकार के एक अध्यादेश की कॉपी फाड़ दी थी. वह अध्यादेश उसी कानून को बदलने के लिए था, जिसके तहत उनकी सदस्यता रद्द हुई है. तब उन्होंने अध्यादेश को बकवास बताया था. साल 2018 में उन्होंने इस कृत्य के लिए माफी मांगी थी. फिर 2018 में राफेल मुद्दे पर फंसे राहुल ने 2020 में माफी मांगी थी. वर्ष 2018 में कहे गये ‘चौकीदार चोर है’ वाले मामले में भी 2019 में माफी मांग कर वे उससे मुक्त हो गये थे. कई अन्य नेताओं ने भी अदालत में माफी मांग कर खुद को बचाया है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर भाजपा के दिवंगत नेता अरुण जेटली ने 2015 में 10 करोड़ रुपये का मानहानि का केस किया था. तीन साल बाद केजरीवाल की ओर से लिखित माफी के बाद मामला समाप्त हो गया था. केजरीवाल अन्य मामलों में भी नितिन गडकरी और कपिल सिब्बल से माफी मांग चुके हैं. इसी आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर राहुल गांधी माफी मांग लेते, तो शायद उन्हें सजा न मिलती और न ही उनकी लोक सभा की सदस्यता जाती.

यह सभी स्वीकार करते हैं कि इतने वर्षों तक सार्वजनिक जीवन में रहने के बावजूद राहुल गांधी नपा-तुला नहीं बोलते हैं. कई बार तो उनकी बातों के सिरे जोड़ना मुश्किल हो जाता है. सदस्यता जाने के बाद उन्होंने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कहा- यह मेरी तपस्या है, उसको मैं करता जाऊंगा. चाहे मुझे अयोग्य ठहराएं, मारें-पीटें, जेल में डालें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, मुझे अपनी तपस्या करनी है. मुझे अयोग्य ठहराया गया, क्योंकि प्रधानमंत्री मेरे अगले भाषण से डरे हुए थे, क्योंकि मैं सदन में अदानी मामले पर अपना अगला भाषण देने वाला था. मैंने उनकी आंखों में यह डर देखा है. उन्होंने एक पत्रकार की भी बिलावजह लानत-मलानत कर दी, जो उचित नहीं थी. मैंने पिछले सप्ताह के अपने लेख में कहा था कि नियम-कानून सबके लिए बराबर होता है. अगर कानून का पालन नहीं करेंगे, तो आप भले ही कितने खास हों, आपको कोई रियायत नहीं मिलनी चाहिए. हालांकि अपने देश के किसी कोने में किसी सांसद, मंत्री अथवा सेलिब्रिटी को हाथ लगाने पर पूरे तंत्र पर हल्ला बोल दिया जाता है. यह बात कोई छुपी हुई नहीं है कि भारत में प्रशासनिक कामकाज में भारी राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. नेता-अभिनेता क्या, उनके सगे-संबंधी भी अपने को कानून से ऊपर मानते हैं.

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इसमें कोई शक नहीं है कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी होता है, लेकिन कांग्रेस और अन्य दलों की जो स्थिति है, उसने विपक्ष को बेहद कमजोर कर दिया है. अब हालत यह है कि 1885 में स्थापित कांग्रेस आज अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है. इस साल अनेक राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और फिर 2024 में लोकसभा चुनाव हैं, लेकिन नेतृत्व को लेकर कांग्रेस और विपक्ष ऊहापोह की स्थिति में है. कांग्रेस ने भले ही मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष बना दिया है, लेकिन यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि नेपथ्य से गांधी परिवार ही पार्टी का मार्गदर्शन करता है. पिछले दिनों राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा की थी. ऐसा लगा कि शायद इससे उनकी देश में स्वीकार्यता बढ़ जायेगी, लेकिन पुराना अनुभव कोई बहुत अच्छा नहीं है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का हश्र तो हम सबके सामने है. पिछले आम चुनाव में प्रचार की कमान खुद राहुल गांधी ने संभाली थी और उन्होंने आक्रामक प्रचार भी किया था. उन्होंने कर्ज माफी, न्याय और राफेल को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की थी. इससे यह आभास हुआ था कि वे कांग्रेस को पुनर्जीवित करने में शायद सफल हो जायेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने सबसे ज्यादा प्रचार उत्तर प्रदेश में किया, पर वहां कांग्रेस 80 में केवल एक सीट रायबरेली से जीत पायी. और तो और, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी अमेठी सीट को भी नहीं बचा पाये. प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में जोर-शोर से उतारा गया था, लेकिन वह भी कोई कमाल नहीं दिखा सकी थीं. वहां 403 में से कांग्रेस केवल दो सीटें ही जीत पायी थी, लेकिन कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का वजूद नहीं रहेगा. दरअसल, एक समस्या यह भी है कि कांग्रेस को बिना नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व के कार्य करने की आदत नहीं रही है और यही वजह है कि पार्टी की यह स्थिति है. यदि कांग्रेस को प्रासंगिक रहना है, तो उसे अपनी कार्य संस्कृति में बदलाव लाना होगा और संगठन को मजबूत करना होगा, अन्यथा उसके अप्रासंगिक होने का खतरा है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुख्य विपक्षी दल की यह स्थिति शुभ संकेत नहीं है.

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