भारतीय राजनीति के महासागर में चंद हंस ऐसे हैं जो डॉ पांडुरंग वामन काणे का महत्व समझते हैं. भारतीय चिंतन, धर्म और अध्यात्म पर काम करने वालों में काणे का नाम अग्रपंक्ति में है. उन्होंने अपनी सारस्वत साधना से इतिहास खड़ा किया. वे न केवल संस्कृत एवं प्राच्य विद्याओं के विशारद थे, बल्कि विधिज्ञ भी थे. डॉ काणे संस्कृत के आचार्य, मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति और 1953 से 1959 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे. उन्होंने पेरिस, इस्तांबुल व कैंब्रिज के प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया. साहित्य अकादमी ने 1956 में उन्हें ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया. वर्ष 1963 में काणे को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया.
महाराष्ट्र के रत्नागिरी में सात मई, 1880 को जन्मे काणे ने भी नहीं सोचा था कि वे भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास लिख डालेंगे. वे तो धर्मशास्त्र के एक ग्रंथ ‘व्यवहार-मयूख’ की रचना में लगे थे और उस ग्रंथ को रचने के उपरांत उनके मन में आया कि पुस्तक का एक परिचय लिखा जाए, ताकि पाठकों को धर्मशास्त्र के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी हो सके. धर्मशास्त्र की संक्षिप्त जानकारी देने के प्रयास में काणे एक ग्रंथ से दूसरे ग्रंथ, एक खोज से दूसरी खोज, एक सूचना से दूसरी सूचना तक बढ़ते चले गये और पृष्ठ दर पृष्ठ लिखते गये. एक नया विशाल ग्रंथ तैयार हुआ और भारतीय ज्ञान परंपरा के इतिहास में एक बड़ा काम हो गया. ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ का पहला खंड 1930 में प्रकाशित हुआ. केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में पुरातन ज्ञान की नयी हलचल मच गयी. ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ के प्राक्कथन में काणे ने स्वयं लिखा है- ‘व्यवहार-मयूख के संस्करण के लिए सामग्री संकलित करते समय मेरे ध्यान में आया कि जिस प्रकार मैंने ‘साहित्य दर्पण’ के संस्करण में प्राक्कथन के रूप में अलंकार साहित्य का इतिहास, नामक एक प्रकरण लिखा है, उसी पद्धति पर व्यवहार-मयूख में भी एक प्रकरण संलग्न कर दूं, जो निश्चय ही धर्मशास्त्र के छात्रों के लिए पूर्ण लाभप्रद होगा. इस दृष्टि से जैसे-जैसे धर्मशास्त्र का अध्ययन करता गया, मुझे ऐसा दिख पड़ा कि सामग्री अत्यंत विस्तृत एवं विशिष्ट है, उसे एक संक्षिप्त परिचय में आबद्ध करने से उसका उचित निरूपण न हो सकेगा. साथ ही उसकी प्रचुरता के समुचित परिज्ञान, सामाजिक मान्यताओं के अध्ययन, तुलनात्मक विधि शास्त्र तथा अन्य विविध शास्त्रों के लिए उसकी जो महत्ता है, उसका भी अपेक्षित प्रतिपादन न हो सकेगा. अंत में मैंने यह निश्चय किया कि स्वतंत्र रूप से धर्मशास्त्र का एक इतिहास ही लिपिबद्ध करूं. आज धर्मशास्त्र का इतिहास एक ऐसी अनमोल थाती है, जिसमें वैदिक काल से आधुनिक काल तक के न केवल धर्म ग्रंथ बल्कि तमाम विधि-विधान, सामाजिक रीति-रिवाज का भी पर्याप्त विवरण है.’
काणे के धर्मशास्त्र के इतिहास के एक के बाद एक पांच खंड प्रकाशित हुए. वर्ष 1962 में पांचवां खंड आया. यह काम अद्भुत, उपयोगी और अतुलनीय है. बेहिचक कहना चाहिए कि काणे आज तक अकेले ऐसे ‘भारत रत्न’ हैं, जो शास्त्र चिंतन व संस्कृत को समर्पित रहे हैं. आज जब संस्कृत भाषा को लगातार उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है, तब काणे को याद रखना बहुत जरूरी है. वर्ष 1930 में जब वे पचास वर्ष के थे, तब धर्मशास्त्र के इतिहास का पहला खंड आया और जब अंतिम खंड आया, तब 82 वर्ष के. उन्होंने अपना पूरा जीवन धर्मशास्त्र के अध्ययन में समर्पित कर दिया. इस ऐतिहासिक ग्रंथ के अतिरिक्त भी उनके अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए. उत्तररामचरित से लेकर कादंबरी, हर्षचरित, हिंदुओं के रीति-रिवाज तथा आधुनिक विधि और संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास उनकी कृतियां हैं. उनकी पुस्तकों के बिना आज कोई भी पुस्तकालय पूरा नहीं हो सकता. उनके द्वारा रचा गया ज्ञानकोश अंग्रेजी, संस्कृत और मराठी भाषा में उपलब्ध है.
काणे ने 18 अप्रैल, 1972 को शरीर त्याग दिया, पर जो अनमोल ज्ञान वे छोड़ गये हैं, उसका महत्व अपरिमित है. विद्वानों की दुनिया उन्हें भुला नहीं सकती. जब भी भारतीय संस्कृति को लेकर कोई विवाद उठता है, तो काणे की रचनाओं से निकाल कर ही उद्धरण दिये जाते हैं. उनकी कल्पना तार्किक थी. उन्होंने लिखा, ‘भारतीय संविधान भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है, क्योंकि लोगों को अधिकार तो दिये गये हैं, परंतु जिम्मेदारी नहीं दी गयी है.’ आज कौन उनकी इस बात से इनकार करेगा? भारत में लोगों को हरसंभव अधिकार मिले हुए हैं, परंतु लोग जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हैं, जिससे समाज में अनेक चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं. भारत रत्न डॉ पांडुरंग वामन काणे की 142वीं जयंती पर उन्हें याद करना तभी सार्थक है, जब हम भारत और उसके भारत तत्व के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें.