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शिक्षा को राेजगारपरक बनाएं

अवसर भी तभी मिलेंगे, जब शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जायेगा और उसे कौशल से जोड़ा जायेगा. इस शिक्षा नीति में छठी कक्षा से इस पक्ष पर महत्व दिया गया है.

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा का एक वर्ष पूरा हुआ और इस अवधि में कोरोना काल की चुनौतियों के बावजूद इसे साकार करने की तैयारियां चलती रहीं. कर्नाटक सरकार ने शनिवार को ही घोषणा की है कि राज्य में आगामी सत्र 2021-22 से ही यह नीति लागू हो जायेगी. बड़े गौरव के साथ राज्य के शिक्षा मंत्री ने यह भी कहा है कि ऐसा करनेवाला कर्नाटक पहला राज्य है. सभी राज्य अपने स्तर पर सक्रिय हैं और कहीं स्थिति आगे बढ़ी हुई है और कुछ अभी भी प्रयासरत हैं.

मुझे आशा है कि अगले सत्र से लगभग देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा नीति कार्यान्वित हो जायेगी. यह नीति इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे व्यक्तिगत स्तर पर आगे बढ़ा रहे हैं. वैसे राष्ट्र का नेतृत्व करनेवाले व्यक्ति के लिए हर परियोजना महत्वपूर्ण ही होती है, उस पर दृष्टि रहती है और उसकी सफलता चाहते हैं, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि शिक्षा से ही परिवर्तन संभव है. देश को इक्कीसवीं सदी में उत्कर्ष पर ले जाना है, तो उसमें शिक्षा की बड़ी भूमिका होगी. शायद वे देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बारे में बार-बार जनता, विद्वानों और नीति-निर्धारकों के बीच जाकर विमर्श किया है और उसे दिशा देने का प्रयास किया है.

इस शिक्षा नीति में जो परिकल्पनाएं की गयी हैं, अब उन्हें जमीन पर उतारने का समय आ गया है. कोई भी नीति बनती है, तो कागज पर बेहतर से बेहतर योजनाएं बनायी जाती हैं, लेकिन उनकी सफलता कार्य रूप में ही होती है. नीति के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने उद्बोधन में एकेडेमिक क्रेडिट बैंक की चर्चा की थी. इस प्रक्रिया में कोई भी व्यक्ति किसी भी उम्र में आकार अपनी शिक्षा पूरी कर सकता है. विश्वविद्यालयी शिक्षा में अब यह प्रावधान किया गया है कि अगर बीच में आपको पढ़ाई छोड़नी पड़ती है, तो अवधि के अनुसार आपको समुचित प्रमाणपत्र दी जायेगी.

अब एमए एक वर्ष में पूरा हो सकेगा. उच्च शिक्षा में विद्यार्थी का वर्ष नहीं बढ़ रहा है, पर उसकी गुणवत्ता बढ़ाने का ध्येय अवश्य रखा गया है. सभी जानते हैं कि विश्वविद्यालयों में कई विद्यार्थी केवल इसलिए शोध की ओर आ जाते हैं कि कहीं कुछ मिल नहीं रहा है. अवसर भी तभी मिलेंगे, जब शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जायेगा और उसे कौशल से जोड़ा जायेगा. इस शिक्षा नीति में छठी कक्षा से इस पक्ष पर महत्व दिया गया है.

पाठ्यक्रम बनाने की जो प्रक्रिया चल रही है, उसकी कुछ जानकारी के आधार पर मैं कह सकता हूं कि प्रत्येक विश्वविद्यालय के द्वारा चार वर्ष के पाठ्यक्रम में कम से कम दो सेमेस्टर तक कौशल विकास पर ध्यान अवश्य रहेगा. साइन लैंग्वेज को भाषा की मान्यता देने और विषय के रूप में प्रारंभ से ही पढ़ाने का प्रावधान बहुत सराहनीय है. नीति बनाना और उसका लाभ होना एक अलग बात है, लेकिन आप किन-किन पहलुओं को छू रहे हैं, वह अधिक महत्व रखता है.

प्रधानमंत्री मोदी का संवेदनात्मक पक्ष यहां पुन: उजागर होता है. साइन लैंग्वेज के माध्यम से दिव्यांग और मूक-बधिर बच्चों की समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया गया है. अभी तक ऐसे बच्चों के लिए अगल विद्यालयों की व्यवस्था होती थी और शिक्षकों को बीएड करने के बाद एक साल का विशेष पाठ्यक्रम करना पड़ता था.

अब प्रारंभ से ही इस भाषा को जानने से उनकी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार होगा. यह भी उल्लेखनीय है कि इस शिक्षा नीति में शिक्षक और शिक्षण प्रक्रिया पर बहुत जोर है. जब भी कोई नया शिक्षक विश्वविद्यालय में नियुक्त होगा, तो उसके लिए तीन माह के प्रशिक्षण की व्यवस्था होगी. बीएड पाठ्यक्रम को भी बहुआयामी बनाने का प्रयास किया गया है. इन प्रयासों के दूरगामी लाभ मिलेंगे.

क्षेत्रीय व स्थानीय भाषा में शिक्षा देने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि विद्यार्थी को सीखने में बहुत आसानी होती है. इससे स्थानिक संस्कृति को भी जीवित रखने में मदद मिलेगी. ये छात्र आगे चलकर जब कोई रचना करेंगे, तो उसमें स्थानीय मानदंड और उदाहरण दे पायेंगे. हमें याद करना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा के आने से पहले हमारे यहां तमाम स्थानीय भाषाओं में शिक्षा दी जाती थी. कर्नल मुनरो ने उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों के अपने शोध में लिखा है कि मद्रास की शिक्षा पद्धति इतनी अच्छी है कि इसका अनुकरण इंग्लैंड में भी किया जाना चाहिए.

धर्मपाल जी की किताब ‘द ब्यूटीफुल ट्री’ में इस बारे में विस्तार से पढ़ा जा सकता है. यह हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध है. इंजीनियरिंग शिक्षा में भी क्षेत्रीय भाषा को लाना भी उल्लेखनीय पहल है. हमारे यहां विज्ञान व तकनीक के शब्दों व अवधारणों के अनुवाद की प्रक्रिया चलती रहती है. लेकिन इससे जुड़ी संस्थाओं का जितना उपयोग होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ. विभिन्न भाषाओं में शब्दकोश तो हैं, पर उतनी प्राथमिकता नहीं मिली, जितनी मिलनी चाहिए थी.

भारत में पहले बड़ी संख्या में विदेशी छात्र, खासकर पड़ोसी देशों, से आते थे. आज यह संख्या बहुत कम हो गयी है. जो हमारे छात्र विदेश जाते थे, तो उनके माध्यम से हमारा धन भी विदेश जाता था. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने परिसर खोल सकेंगे.

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