Labour laws : लंबे समय से यह तर्क दिया जाता रहा है कि भारत के श्रम कानून व्यापार, खासकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बाधित करते हैं और उसे देश की विकास गाथा का हिस्सा बनने से रोकते हैं. अब देश के 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को चार श्रम संहिताओं में एकीकृत कर दिया गया है. विगत 29 नवंबर को अधिसूचना जारी करते हुए सरकार ने इन्हें दूरगामी कदम बताया, जो ‘रूपांतरकारी बदलाव’ लायेंगी और ‘भविष्य के कुशल श्रमबल की नींव’ रखेंगी. सरकार के इस फैसले को अनेक लोगों ने सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम बताया है. इसमें संदेह नहीं कि देश के श्रम कानून तथा दूसरे अनेक कानून, आदतें और परंपरा पुराने जमाने की हैं. ब्रिटिश जमाने के बहुतेरे कानूनों को बदला जाना चाहिए. इस पृष्ठभूमि में पुराने पड़ चुके 29 केंद्रीय कानूनों को बदला जाना अच्छा है. पर यह कदम स्वागतयोग्य तभी हो सकता है, जब बदलाव सहमति के आधार पर किये गये हों और श्रम संगठनों को इन पर कोई आपत्ति न हो.
चार श्रम संहिताओं के सामने सबसे बड़ी बाधा यही है, क्योंकि इन पर श्रमिक संगठनों का बहुत कुछ दांव पर लगा है, और उनका मानना है कि इतना बड़ा कदम उठाते हुए उन्हें भरोसे में नहीं लिया गया. इससे कुछ साल पहले के तीन कुख्यात कृषि कानूनों की याद आती है, जिन्हें पारित करने से पहले किसानों को भरोसे में नहीं लिया गया था. उसका नतीजा किसानों के व्यापक आंदोलन के रूप में सामने आया था और आखिरकार सरकार को वे कानून वापस लेने पड़े थे. वास्तविक अर्थ में देखें, तो कृषि कानून और श्रम संहिताओं में कुछ समानताएं भी हैं : दोनों को सितंबर, 2020 में संसद से पारित किया गया था, दोनों को विपक्ष के विरोध के बावजूद पारित किया गया था और दोनों को संसद में पर्याप्त बहस के बगैर पारित किया गया था. तब सरकार को लगा था कि विपक्ष और किसानों के विरोध के बावजूद वह कृषि कानूनों को लागू कर देगी. लेकिन किसानों का व्यापक विरोध देख कर उसे हैरानी हुई थी.
नतीजतन कृषि कानूनों को तो वापस ले लिया गया था, लेकिन श्रम संहिताओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था, जिन्हें अब कानून की शक्ल दी गयी है. श्रमिक संगठन अब इतने कमजोर हो गये हैं कि उनके सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने की संभावना नहीं है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वे इन श्रम संहिताओं को सकारात्मकता के साथ नहीं लेंगे. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि श्रम कानूनों में महत्वपूर्ण बदलाव नहीं होने चाहिए, जैसे कि कृषि कानूनों में भी बदलाव की जरूरत तो है ही. अपने यहां न्यायिक संहिताओं से मुश्किल नहीं है, मुश्किल दरअसल जमीनी वास्तविकताओं की है, जो सत्ता के गलियारों और कंपनी मालिकों व निदेशकों के बोर्ड रूम से अब भी भिन्न हैं. जब इस जमीनी वास्तविकता को उस सरकार की नीतियों से मिला कर देखते हैं, जिसने श्रमिकों के बजाय उद्योग घरानों के हित में ज्यादा काम किया है, तो उम्मीदें बिखर जाती हैं. जाहिर है, सरकार के तथाकथित श्रम सुधारों का भारी विरोध होने वाला है.
श्रम सुधारों का बड़ा लक्ष्य भले ही श्रमबल का औपचारिकीकरण हो, पर सच्चाई यह है कि औपचारिक क्षेत्र में भी कई कमियां हैं. औपचारिक क्षेत्र में जैसा दावा किया जाता है, वास्तविकता उससे बहुत भिन्न है. हाल का ही एक उदाहरण देखें. ‘सेफ इन इंडिया’ नामक एक गैर-लाभकारी संस्था भारतीय ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में कर्मचारी सुरक्षा पर लगातार रिपोर्ट जारी करती है. ‘क्रश्ड 2025’ नामक इस साल की रिपोर्ट में उसने खुलासा किया है कि चोट लगने से हजारों कर्मचारियों द्वारा अपनी अंगुलियां गंवाने का सिलसिला जहां जारी है, वहीं 76 प्रतिशत कर्मचारियों ने सप्ताह में 60 घंटे से अधिक काम करने की बात कही है.
यह एप्पल की आपूर्तिकर्ता कंपनी फॉक्सकॉन द्वारा श्रम कानूनों के घनघोर उल्लंघनों की याद दिलाता है. क्या बड़े ब्रांड्स और सुरक्षा तथा टिकाऊ अभ्यासों के लिए चर्चित बिजनेस लीडर्स को, जैसे कि कई बड़े कार निर्माता दिग्गज वस्तुत: हैं भी, अपने आपूर्तिकर्ताओं द्वारा नियमों के घनघोर उल्लंघनों पर आंखें मूंद लेनी चाहिए? इस तरह की अनियमितताओं पर अंकुश लगाने के लिए कानून बने हुए हैं, लेकिन उनका अनुपालन क्यों नहीं होता? ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब पहले से बने कानूनों पर अमल नहीं होता, तब नये बने कानून भला क्यों और कैसे कार्यकारी होंगे, खासकर तब, जब नयी श्रम संहिताएं उद्योगों के हित में हैं और इनका लक्ष्य श्रम कानूनों के उल्लंघन को अपराध मुक्त बनाना है?
ध्यान दिया जाना चाहिए कि 22 सितंबर, 2022 को जब चार में से तीन श्रम संहिताओं को पहली बार पारित किया गया था, उसी दिन सरकार ने संसद में बताया था कि 1.06 करोड़ से भी अधिक प्रवासी मजदूर, जिनमें पैदल घर लौट रहे मजदूर भी थे, कोविड लॉकडाउन के दौरान मार्च-अप्रैल (2020) में अपने घर लौट गये थे. घर लौटे वे मजदूर अपने साथ वे शर्मनाक अनुभव भी ले गये थे कि लॉकडाउन लगने पर शहरों में ठेकेदारों और कंपनियों ने किस तरह उन्हें अकेला छोड़ दिया था, और वे भूखे-प्यासे, रुपये-पैसे के अभाव में घर पहुंचे थे. लॉकडाउन हटा लिये जाने के बाद उद्योग संगठनों ने श्रम मंत्री से मिल कर व्यापार और उद्योग शुरू करने के लिए जिस तरह श्रम कानूनों के संरक्षणवादी प्रावधानों को हटाने का अनुरोध किया, वह भी उतना ही शर्मनाक था. जाहिर है, श्रम संहिताओं को उद्योग घरानों के साथ मिल कर ही तैयार किया गया है.
ऐसे में स्पष्ट है कि श्रमबल के प्रति असम्मान का भाव ही समस्या की जड़ है. और श्रमबल शोषित होने के लिए अभिशप्त है, क्योंकि वह कम शिक्षित, कम जागरूक, कम उत्पादक और हमेशा रोजगार के लिए चिंतित और जीवन यापन के लिए कोई भी काम करने के लिए तैयार रहता है.
भारत में उत्पादकता कम है, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय कामगार कम उत्पादक हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी उत्पादकता बढ़ाने के लिए जिस स्तर के निवेश की जरूरत है, वह नहीं होता है. उद्योग क्षेत्र इस नजरिये से भी काम करता है कि मजदूरों की बलि ली जा सकती है. वह यह भी जानता है कि जिस ढीली व्यवस्था में श्रम कानूनों का उल्लंघन आम है, वहां श्रमबल अपने अधिकार के लिए खड़ा नहीं हो सकता. भारतीय व्यापार क्षेत्र को उस स्तर पर जाना होगा, जहां वे श्रमिकों को संपत्ति समझें, उनकी बेहतरी के लिए निवेश करें और इसके साथ ही श्रम कानूनों के उल्लंघन को गंभीर माना जाये. नयी श्रम संहिताएं शायद हमें वहां नहीं ले जातीं.
(ये लेखक के निजी विचार है.)

