नरेंद्र मोदी के लिए नौ साल से जारी अमेरिकी बायकॉट आखिर राजदूत नैंसी पॉवेल की मुलाकात के साथ खत्म हुआ. भाजपा कह सकती है कि दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति खुद चल कर मोदी तक आयी और उनके बढ़ते महत्व को पहचाना. मोदी से नैंसी की मुलाकात के बाद तर्क यह भी दिया जा सकता है कि दुनिया के ताकतवर देश मोदी की अगुवाई में भाजपा सरकार बनने की बात मन-ही-मन स्वीकारने लगे हैं. बहरहाल, नैंसी से मोदी की मुलाकात की पृष्ठभूमि बीते एक साल से बनने लगी थी और इसके लिए बेचैनी अमेरिका को कम, खुद भाजपा और मोदी को ज्यादा थी. बीते साल भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अमेरिका-यात्र के दौरान जोरदार लॉबिंग की थी कि किसी तरह ‘गुजरात में धार्मिक स्वतंत्रता के हनन’ के आरोप में रद्द किया गया मोदी का अमेरिकी वीजा फिर से बहाल हो जाये.
उस वक्त बात नहीं बनी, तो मोदी की प्रचारक मशीनरी ने नया इंतजाम किया और मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये अमेरिका स्थित अनिवासी भारतीयों के जमावड़े को संबोधित किया. बीते साल जनवरी में यूरोपीय संघ में शामिल तमाम देशों के राजदूत मोदी को भोज में शामिल होने का न्योता देकर अपनी कड़वाहट खत्म करने का संकेत दे चुके थे. इस घटना के तीन महीने पहले 2012 के अक्तूबर में ब्रिटिश उच्चायुक्त जेम्स बेवन भी अपनी तरफ से दस साल के बॉयकॉट को समाप्त करते हुए गांधीनगर में मोदी से भेंट कर चुके थे. चूंकि अमेरिका ने ब्रिटेन के नक्शे-कदम पर चलते हुए ही 2005 में मोदी का वीजा रद्द किया था, सो बदली हुई परिस्थिति में स्वाभाविक यही था कि वह मोदी के प्रति रुख नरम करे.
देवयानी मामला न उठता तो यह अमेरिकी पहल पहले ही हो चुकी होती, भले ही वीजा की बहाली अब तक न हो पायी है. निवेश के मौके खोजनेवाले किसी भी ताकतवर यूरोपीय देश के लिए भारत एक आकर्षक बाजार है. इसलिए उनके लिए स्वाभाविक है कि भारतीय लोकतंत्र के चुनावी महाकुंभ से पहले अपनी तरफ से हर प्रमुख पक्ष को सकारात्मक संकेत देकर व्यापारिक सौदों की जमीन को उर्वर रखने का काम करें. यूरोपीय देशों की इस कोशिश में भाजपा द्वारा सिर्फ मोदी के लिए स्वीकृति देखना, घूमते आईने में सिर्फ अपनी तस्वीर निहारने की तरह है.