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तारीख, हालात और चंद सवाल

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com साल 2020 की तारीख डालते हुए सहसा सन् 1920 की याद आने लगी. ठीक सौ साल पहले भारत में कैसी उथल-पुथल मची थी? तब देश कैसी सामाजिक-राजनीतिक करवट ले रहा था? बीसवीं सदी के तीसरे दशक ने देश को कैसी दिशा दी थी? उस दौर को याद करना आज किस […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
साल 2020 की तारीख डालते हुए सहसा सन् 1920 की याद आने लगी. ठीक सौ साल पहले भारत में कैसी उथल-पुथल मची थी? तब देश कैसी सामाजिक-राजनीतिक करवट ले रहा था? बीसवीं सदी के तीसरे दशक ने देश को कैसी दिशा दी थी? उस दौर को याद करना आज किस तरह और कितना प्रासंगिक है? क्या उस संदर्भ में आज के कुछ सवाल मौजू हो सकते हैं?
सबसे पहले मोहनदास करमचंद गांधी नाम के एक वकील याद आते हैं, जो दक्षिण अफ्रीका में असहयोग और प्रतिरोध के कुछ अभिनव प्रयोग करके चार वर्ष पहले भारत लौटे थे. ब्रिटिश दासता से आजादी का स्वप्न पालते देश में वे अपने प्रयोगों की विकास-भूमि तलाश रहे थे. चंपारन के शोषित किसानों की व्यथा-कथा और उसके अहिंसक प्रतिरोध से सत्याग्रह का जो रास्ता निकला, उसने 1920 के भारतीय दशक के सर्वथा अभिनव आंदोलन का अध्याय लिखा. असहयोग आंदोलन से लेकर नमक सत्याग्रह तक, और आगे भी.
राष्ट्रीयता के उसी उफान भरे दौर में चौरी-चौरा कांड हुआ था, जिसने सत्य और अहिंसा की शक्ति के बारे में गांधी की परीक्षा ली थी. अपने प्रति गुस्से और बगावत के तीव्र स्वरों के बावजूद गांधी उस कठिन परीक्षा में अव्वल नंबर से पास हुए थे. विश्व ने हाड़-मांस के एक पुतले को महात्मा के रूप में स्वीकारे जाते देखा था. आधी धोती धारे महात्मा ने उस ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थीं, जिसके शासन में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था.
साल 1905 में बनी मुस्लिम लीग और जवाब में 1915 में सामने आयी हिंदू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति ने भी 1920 के दशक की राजनीति को उद्वेलित किया.
वर्ष 1925 में राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ बनने पर यही गांधी के जीवन की यह सबसे बड़ी चुनौती बन गयी. सन् 1917 में सोवियत क्रांति के बाद भारत में कम्युनिस्टों के उभार और राजनीति में छाने का दौर भी वही दशक लाया. खुद कांग्रेस के भीतर समाजवादी खेमा बना, जिसने गांधीवादी नेहरू को वाम झुकाव दिया और बाद तक कांग्रेस की अंतर्धारा के रूप में मौजूद रहा.
तब 1920 के दशक की शुरुआत भारत में किसान जागरण और आंदोलन के वर्ष भी थे. जमीदारों के शोषण के खिलाफ बड़े आंदोलन हुए.
मजदूर संगठनों के बनने और सक्रिय होने का दौर वही था, तो छात्रों के राजनीतिक रूप से सक्रिय होने का भी. भगत सिंह सरीखे युवाओं का मानस उसी दौरान परिपक्व हो रहा था. तो, जो गांधी 1920 की शुरुआत में सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोगों से महात्मा बन रहे थे, 2020 की शुरुआत में उनके मूल्यों की कैसी विकट परीक्षा हो रही है? आज गांधी का नाम लेना कोई नहीं भूलता, किंतु उनकी अवमानना करने में कोई पीछे भी नहीं रहता. गांधी जिस आजादी के लिए लड़े और जैसा समाज बनाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे, वह आजादी और समाज आज किस हाल में हैं?
आजादी के बाद से देश ने बहुत तरक्की है. लेकिन बहुलता में अद्भुत समन्वय वाला संविधान होने के बावजूद क्या वही चुनौती 2020 में विकराल होकर सामने नहीं आ खड़ी हुई है, जो सौ साल पहले सिर उठा रही थी? देश का विभाजन और हिंदू-मुस्लिम आज फिर राजनीति के केंद्र में कैसे आ गये? इसीलिए, क्या आज के भारत को फिर एक गांधी की आवश्यकता नहीं लग रही?
गांधी की बहुत चर्चा है, लेकिन गांधी कहीं नहीं हैं. जिन्हें वे वारिस बना गये थे, उन नेहरू की कांग्रेस भी देश की राजनीति को कितना प्रभावित कर पाने की स्थिति में है? यह अलग चर्चा का विषय होगा कि जो कांग्रेस बची हुई है, वह कितनी गांधी की और कितनी नेहरू की रह गयी है.
जो कम्युनिस्ट विचारधारा उस दौर में भारत के बड़े युवा वर्ग और राजनीति को काफी प्रभावित कर रही थी, वह हाल के दशकों में हाशिये से भी क्यों सिकुड़ गयी है? वह आरोपित विचार रहा या भारत में अपने लिए आधार बनाने में विफल, जबकि यहां मजदूर-किसान-गरीबों के हालात भयानक गैर-बराबरी, शोषण और दमन का शिकार रहे और आज भी हैं? साल 1920 के दशक ने वाम राजनीति को अवसर दिये थे. इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत के युवा भारत में अप्रभावी हैं और ट्रेड यूनियन बिखरे हुए हैं.
इस सबके विपरीत जिस हिंदू महासभा और आरएसएस की राजनीति को 1920 के दशक से आजादी के दशकों बाद तक भारतीय मुख्यधारा ने उभरने के अवसर ही नहीं दिये, वह 2020 में सड़क से संसद तक छाई हुई दिखती है.
जो एकांगी राजनीति 1960 के दशक तक बाकी दलों के लिए ‘अछूत’ मानी जाती थी, वह उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूरब तक सहज स्वीकार्य बन गयी है. इसी स्वीकार्यता का परिणाम वह संसदीय बहुमत है, जिसके बल पर कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता के सवाल नये सिरे से तय करने जैसे विवादित फैसले किये जा सके हैं, जिनसे समाज और राजनीति का पूरा विमर्श ही बदल गया है.
यह बदलाव सामान्य नहीं है. अस्सी के दशक तक इस परिवर्तन की आहट विशेष नहीं थी. नब्बे के दशक में जब बदलाव की धमक आर-पार सुनायी देने लगी थी, तब भी लगता था कि यह बहुत अस्थायी लहर है, जो भारतीय राष्ट्र-राज्य के मूल चरित्र को छू भी न सकेगी. क्या ऐसा सोचनेवाले राजनेता, विश्लेषक, अध्ययेता गलत थे? क्या वे परिवर्तन की हवा को क्रमश: ऊंची होती लहरों में बदलते नहीं देख पा रहे थे? वे नासमझ थे या अपनी जमीन से कटे हुए, अभिमानी, अति-विश्वास से भरे असावधान लोग?
भारतीय लोकतंत्र, संविधान और समाज की बहुलता में बहुत ताकत है. इसकी गहराई और उदारता को ही श्रेय है कि जो लंबे समय तक राजनीति के हाशिये पर थे, वे अब मुख्यधारा में हैं. मुख्यधारा वाले अपने पैरों तले की खिसकती जमीन देख हैरान क्यों हैं? बिना मेहनत वैचारिक जमीन के बंजर पड़ने का ही खतरा था. जिन्होंने लंबे समय तक अपने विचार व जमीन के लिए काम किया है, उन्हें यह लोकतंत्र अवसर क्यों नहीं देता भला?
सन् 1920 का समय बहुत पीछे छूट चुका है. हमारे सामने जो नया दौर है, वह जिन्हें चिंताओं और बेचैनियों से भर रहा है, उनके लिए यह हैरानी और विलाप का नहीं, उन सवालों के उत्तर तलाशने का समय है, जो पिछले दशकों में उनकी ही भूमिकाओं ने खड़े कर दिये हैं. गलतियां पहचानने और समयानुकूल सार्थक भूमिका तय करने से धाराएं पलटती हैं.

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