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लोकतंत्र को बौना किया पार्टियों ने

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com महाराष्ट्र के राजनीतिक-संवैधानिक प्रहसन में जनादेश की अवहेलना की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा. राजनीति के ‘नये चाणक्य’ और ‘मराठा पहलवान’ से लेकर ‘लोकतंत्र की हत्या’ और ‘संविधान के मखौल’ की चर्चा में यह बात पूरी तरह भुला दी गयी है कि राज्य के मतदाता ने बहुमत से किसे […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
महाराष्ट्र के राजनीतिक-संवैधानिक प्रहसन में जनादेश की अवहेलना की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा. राजनीति के ‘नये चाणक्य’ और ‘मराठा पहलवान’ से लेकर ‘लोकतंत्र की हत्या’ और ‘संविधान के मखौल’ की चर्चा में यह बात पूरी तरह भुला दी गयी है कि राज्य के मतदाता ने बहुमत से किसे सत्ता सौंपी थी. अगर राजनीतिक दल उसकी राय के विपरीत आचरण करें, तो चुनाव की सार्थकता क्या है?
भाजपा और शिवसेना का चुनाव-पूर्व गठबंधन था. महाराष्ट्र के मतदाताओं ने इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापस भेजा. स्वाभाविक रूप से उनकी सरकार बननी थी. वह क्यों नहीं बनी? ये दोनों ही पार्टियां महाराष्ट्र की जनता के प्रति जवाबदेह हैं.
आखिर उन्होंने गठबंधन किसलिए किया था? यह अचानक भी नहीं किया गया था. दोनों महाराष्ट्र की राजनीति में तीन दशक से एक साथ हैं. कई विवादों के बावजूद दोनों ने मिलकर सरकार चलायी है. इस बार चुनाव नतीजे के बाद गठबंधन में खींचतान और अंतत: टूट का कारण जनहित था या व्यक्तिगत? मतदाता को यह जानने का हक क्यों नहीं है?
चुनाव परिणामों में व्यक्त जनता की भावनाओं के विपरीत अब शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार बन रही है, जो स्वयं में एक प्रहसन है. कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन को जनता ने अस्वीकार कर दिया था.
अब वही गठबंधन उस शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बना रहा है, जो जनादेश की उपेक्षा करने की बराबर उत्तरदायी है. अपनी विचारधारा में शिवसेना की कट्टर विरोधी रही कांग्रेस अब उस शिवसेना-नीत गठबंधन सरकार में भागीदार है, जो भाजपा से अधिक कट्टर हिंदुत्व और संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद के लिए जानी जाती है. सत्ता के लिए विचार की राजनीति की तो हत्या हो ही चुकी. अब दल खुलेआम जनादेश का अपमान करने लगे हैं. विडंबना देखिए कि यह लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर हो रहा है.
चुनाव-पूर्व गठबंधन करनेवाले दलों के लिए क्या चुनाव-पश्चात कोई गठबंधन-धर्म नहीं होता? मतदाता ने त्रिशंकु विधानसभा नहीं चुनी थी. लगभग समान विचारधारा वाले स्वाभाविक-सहयोगी दलों के गठबंधन को सरकार बनाने का आदेश दिया था. अब उसकी जगह जो सर्वथा विपरीत-ध्रुवी दलों का अस्वाभाविक गठबंधन अपनी सरकार बनाने जा रहा है, उसके स्थायित्व की क्या गारंटी है?
एक अन्य पहलू, जिस पर खूब चर्चा हो रही है, संवैधानिक संस्थाओं/पदों की गरिमा का है. संविधान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ पहले भी होते रहे हैं, लेकिन महाराष्ट्र में मूल्यों के पतन की नयी सीमा बनी.
यूं तो इस खिलवाड़ के पात्र सभी संबद्ध दल हैं, लेकिन सबसे बड़ी जवाबदेही केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की है, क्योंकि इसमें उसकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बड़ी भूमिका रही. राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति भवन तक इस खिलवाड़ में इस्तेमाल किये गये. सदन में बहुमत साबित करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री का सदन का सामना करने से पहले ही त्यागपत्र दे देना निश्चय ही इन संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की भूमिका पर भी सवाल उठाता है.
राज्यपालों का राजनीतिक दुरुपयोग कांग्रेस की सरकारों ने भी खूब किया, लेकिन शुचिता और पारदर्शी राजनीति से सुशासन लाने के दावे करनेवाली भाजपा ने भी न केवल उसी अनैतिक मार्ग का अनुसरण किया, बल्कि वह कुछ और आगे तक चली गयी है.
यह सवाल बहुत बाद तक पूछे जाते रहेंगे कि महाराष्ट्र में लागू राष्ट्रपति शासन हटाने के लिए मंत्रिमंडल के सामूहिक निर्णय का संपूर्ण दायित्व अकेले प्रधानमंत्री ने क्यों उठाया और उस आदेश पर हस्ताक्षर के लिए राष्ट्रपति को तड़के नींद से क्यों जगाना पड़ा? सरकार बनाने के फडणवीस के दावे का सम्यक परीक्षण किये बिना ही राजभवन में सुबह साढ़े आठ बजे मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को पद और गोपनीयता की शपथ राज्यपाल को किस आपातस्थिति में दिलवानी पड़ी?
भाजपा-समर्थकों के लिए भी यह जल्दबाजी रहस्यपूर्ण और संदेहास्पद रही. सवाल अत्यंत स्वाभाविक है कि ऐसी कौन ही अनिवार्यता या संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया था? सुबह-सुबह प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष के ट्वीट में फडणवीस और अजित पवार के सत्ता संभालने पर बधाई संदेश पढ़कर सारा देश चौंका था, जबकि सुबह सभी अखबार शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन पर मुहर लगने की सुर्खियों से भरे हुए थे.
यूं तो सुप्रीम कोर्ट को बार-बार यह निर्देश देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का फैसला सदन में ही होना चाहिए. संविधान इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है.
साल 1994 में बोम्मई प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक व्यवस्था की पक्की व्याख्या कर चुका है और वह एक मुकम्मल नजीर है. राज्यपाल का विवेक महत्वपूर्ण है, लेकिन बहुमत का निर्णय वह अंतिम रूप से नहीं कर सकता. इसके बावजूद शपथ ग्रहण के बाद दल-विशेष के मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिए इतना अधिक वक्त दे दिया जाता है कि सत्तारूढ़-दल विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सके. हाल में कर्नाटक और कई राज्यों में हम यह देख चुके हैं. कई राज्यों में विपक्ष की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप तक करना पड़ा है.
सदन का सामना किये बिना ही फडणवीस का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना साबित करता है कि उनके पास बहुमत नहीं था. आनेवाले दिनों में वे इसका ‘बंदोबस्त’ करते, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया. ऐसे में राज्यपाल के ‘विवेक’ का क्या सम्मान रह गया और उनका भी, जिन्होंने शीर्ष स्तर से इस प्रहसन के मंचन में सक्रिय भूमिका निभायी?
सत्ता में राजनीतिक पार्टियां आती-जाती रहेंगी. लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के मेल-बेमेल गठबंधन भी होते रहेंगे. स्थिर सरकार बनाने के लिए उनके अवसरानुकूल समझौते कोई नयी बात नहीं है. विजेता गठबंधन कुर्सी के लिए लड़े, स्वार्थवश सरकार नहीं बनाये और हारे हुए दल एकजुट होकर सत्ता में आ जायें, यह विधि-सम्मत तो हो सकता है, लेकिन जनादेश की दृष्टि से अनैतिक ही कहा जायेगा.
संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी दलगत प्रतिबद्धता के कारण संविधान के प्रावधानों को अपने हिसाब से तोड़ें-मरोड़ें, तो संविधान की क्या मर्यादा रह जायेगी? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के गर्वीले दावे लोकतंत्र की कसौटी पर भी तो खरे उतरने चाहिए.

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