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गंभीर संकट के दौर में कांग्रेस
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए आवश्यक है कि सशक्त विपक्ष मौजूद हो. सत्तारूढ़ दल के पास प्रचंड बहुमत हो, तो उसकी आवश्यकता और बढ़ जाती है, ताकि सत्ता के निरंकुश होने की संभावना टाली जा सके. सशक्त विपक्ष बहुमत वाली सरकार को संविधान की मंशा के दायरे में ही […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए आवश्यक है कि सशक्त विपक्ष मौजूद हो. सत्तारूढ़ दल के पास प्रचंड बहुमत हो, तो उसकी आवश्यकता और बढ़ जाती है, ताकि सत्ता के निरंकुश होने की संभावना टाली जा सके. सशक्त विपक्ष बहुमत वाली सरकार को संविधान की मंशा के दायरे में ही कार्य करने के लिए नकेल का काम करता है.
बीते आम चुनाव में नरेंद्र मोदी एक ‘कल्ट’ के रूप में उभरे हैं. उन्हीं की छवि से अकेले भाजपा को तीन सौ से ज्यादा और एनडीए को साढ़े तीन सौ सीटें मिली हैं. देश के अधिसंख्य राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं. राज्यसभा में अभी सत्तारूढ़ दल बहुमत में नहीं है, लेकिन एक साल में यह भी उसे हासिल हो जायेगा. तब सरकार अपने मनचाहे विधेयक पारित करा सकती है.
इन हालात में सशक्त विपक्ष की बड़ी जरूरत है, जो न केवल सरकार पर चौकस निगाह रख सके, बल्कि स्वस्थ और रचनात्मक आलोचना से उसकी सहायता भी कर सके. आज हमारे पास सशक्त विरोधी दल तो छोड़िए, लोकसभा में आधिकारिक प्रतिपक्ष के रूप में भी कोई पार्टी नहीं है. ले-देकर कांग्रेस है, लेकिन वह 2014 में जीती मात्र 44 सीटों को इस बार 52 तक ही ले जा सकी. ये उतनी भी सीटें नहीं हैं कि लोकसभा में उसके नेता को प्रतिपक्ष के नेता का संवैधानिक दर्जा मिल सके.
यहां यह भी कहना है कि संख्या बल ही सशक्त विपक्ष की गारंटी नहीं है. नेहरू-युग में जब कांग्रेस बहुत ताकतवर थी और कोई दूसरा राष्ट्रीय दल उनके आस-पास भी नहीं था, तब विपक्ष के कई धुरंधर नेता अकेले दम पर कांग्रेस सरकार पर अंकुश रखने में सफल थे. लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद उसी दौर की उपज था. 1971 की प्रचंड विजय के बाद जब इंदिरा गांधी निरंकुश होती गयीं और 1975 में उन्होंने देश पर आपातकाल थोप कर संविधान को निलंबित कर दिया, तब छोटे-छोटे दलों ने एक होकर उन्हें जबरदस्त चुनौती दी और सत्ता से बाहर किया. कांग्रेसी वर्चस्व को संयुक्त विपक्ष की सशक्त चुनौतियां मिलने के एकाधिक उदाहरण ताजा इतिहास में हैं.
क्या आज कांग्रेस इस स्थिति में है कि वह मोदी सरकार को, जो और भी शक्तिशाली होकर सत्ता में लौटी है, संसद से सड़क तक चुनौती दे सके? पिछले दिनों राहुल गांधी ने कहा था कि हमारे 52 एमपी मोदी सरकार को चैन से बैठने नहीं देने के लिए काफी हैं. ऐसा हो सके तो लोकतंत्र के लिए शुभ होगा, लेकिन क्या आज कांग्रेस की हालत देखकर उनकी बात पर भरोसा होता है?
सोलहवीं लोकसभा में जब कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गयी थी, तो कहा गया था कि वह अपने सबसे कठिन दौर में है. सत्रहवीं लोकसभा में उसके आठ और सांसद जीतकर आ गये. इसके बावजूद कांग्रेस अब कहीं ज्यादा गंभीर संकट से गुजर रही है. देश की यह सबसे पुरानी और गहरी जड़ों वाली पार्टी फिर कैसे खड़ी होती है, यह समय बतायेगा, लेकिन फिलहाल पुराने खांटी कांग्रेसी नेता पार्टी के भविष्य के प्रति चिंतातुर हैं.
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता वीरप्पा मोइली ने कुछ दिन पहले यूं ही नहीं कहा कि राहुल गांधी या तो पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा वापस लें या कोई सुयोग्य विकल्प दें, लेकिन कांग्रेस के भीतर का असंतोष तत्काल दूर करने के उपाय करें.
उनकी और दूसरे कांग्रेसी नेताओं की चिंता के पर्याप्त कारण हैं. तेलंगाना में कांग्रेस के 12 विधायक सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हो गये. महाराष्ट्र में कांग्रेस विधायक दल में टूट के आसार हैं. कर्नाटक में कांग्रेस के भीतर घमासान जारी है, विधायक पाला-बदल कर रहे हैं और जद (एस) गठबंधन तोड़ने की धमकी तक दे चुका है.
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट खुलेआम लड़ रहे हैं. मध्य प्रदेश और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों को खुद कांग्रेसी विधायक कब अल्पमत में ले आयें, कहा नहीं जा सकता. एकमात्र कांग्रेसी राज्य पंजाब में, जो मोदी लहर को रोकने में कामयाब रहा, कांग्रेस के भीतर लड़ाई चल रही है. उत्तर-पूर्व के राज्यों में ज्यादातर पुराने कांग्रेसी पार्टी छोड़ चुके हैं.
उत्तर प्रदेश में दो साल से पूर्णकालिक कांग्रेस अध्यक्ष नहीं है. बिहार में भी विधायक दल में असंतोष की खबरें आती रहती हैं. जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, झारखंड सभी जगह आपसी लड़ाइयां हैं. कोई राज्य ऐसा नहीं, जहां कांग्रेस आज बेहतर संगठन और सक्रियता के लिए जानी जाती हो.
पार्टियों में असंतोष और झगड़े नयी बात नहीं हैं. भाजपा में भी कई राज्यों में बहुत असंतोष हैं, लेकिन वहां पार्टी नेतृत्व उसे नियंत्रित करने में देर नहीं लगाता. कांग्रेस नेतृत्व ने हाल में किसी राज्य में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, जिससे लगे कि वह संगठन की समस्याओं के समाधान के लिए सजग और सक्रिय है.
चुनावों में बड़ी पराजय के बाद से राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर कोप-भवन में हैं. कुछ नेता उन्हें मनाने में लगे हैं. उधर पार्टी बिखर रही है. राहुल के अलावा किसी और को अध्यक्ष चुनना हो, तो वह निर्णय बहुत ही जल्द किया जाना चाहिए. समस्या यह है कि इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस इस कदर नेहरू-गांधी वंश पर आश्रित होती गयी कि आज के कांग्रेसी उस परिवार के सदस्य के अलावा किसी और को अपना नेता चुनने की कल्पना तक नहीं कर सकते.
राहुल गांधी करें या कोई और, कांग्रेस को अपना घर संभालते हुए न केवल नये सिरे से खड़ा करना है, बल्कि उनकी मुख्य चुनौती उस विचार को देशभर में फिर से प्रसारित करने की है, जिसे वह ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ कहते हैं. आज देश में मतदाताओं का विशाल युवा वर्ग ऐसा है, जिसने कांग्रेसी मूल्यों के पराभव, पार्टी के क्षरण और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के दौर में आंखें खोली हैं.इसी दौरान भाजपा और आरएसएस के विविध संगठनों के जरिये कट्टर हिंदुत्व एवं उग्र राष्ट्रवाद का विचार तेजी से फैला है.
इस पीढ़ी को सही-सही पता ही नहीं कि कांग्रेस किन-किन मूल्यों की पोषक रही है. उदाहरण के लिए, जब भाजपा की तरफ से नेहरू का छवि-मर्दन किया गया, तब कांग्रेस यह बताने में विफल रही कि नेहरू की इस देश को वास्तविक देन क्या है.
सशक्त प्रतिपक्ष बनने या सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस को पहले अपनी ‘कांग्रेसियत’ पहचाननी होगी. उसके पास स्वतंत्रता आंदोलन और इस विविधतापूर्ण देश की बहुलता के सम्मान की विरासत है. उन्हीं मूल्यों के कारण ही आज उसकी और भी ज्यादा जरूरत है.
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