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पेड़ पर चढ़ने की कला

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com बेलपत्र के पेड़ों पर ढेरों बेल लगे हैं. जामुन के मौसम में आसपास लगे जामुन के पेड़ जामुनों से भर जाते हैं. आम के पेड़ भी असंख्य आमों से भरे झूमने लगते हैं. हालांकि, इस बार आम कम दिखायी दे रहे हैं.अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब बच्चों की टोली […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
बेलपत्र के पेड़ों पर ढेरों बेल लगे हैं. जामुन के मौसम में आसपास लगे जामुन के पेड़ जामुनों से भर जाते हैं. आम के पेड़ भी असंख्य आमों से भरे झूमने लगते हैं. हालांकि, इस बार आम कम दिखायी दे रहे हैं.अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब बच्चों की टोली फलदार पेड़ों पर नजर रखती थी. जिनके घर में या घर के बाहर या बगीचे में फलदार पेड़ होते थे, वे भी इन बच्चों रूपी बंदरों पर नजर रखते थे. हमेशा आंख-मिचौली चलती रहती थी. सबसे अच्छा मौका बच्चों को दोपहर में मिलता था, जब गर्मी के दिनों में लोग झपकी लेते थे, आंख लग जाती थी.
कई-कई बच्चे कूदते हुए पेड़ों पर चढ़ जाते थे. नीचे बच्चे झोली फैला कर खड़े हो जाते थे. बच्चे फल तोड़ कर झोली में फेंकते जाते थे. कई फल नीचे गिर कर फट जाते थे, लेकिन बच्चे उन्हें भी उठा लेते थे.पेड़ों पर चढ़ने के भी सबके तौर-तरीके अलग-अलग थे. कोई दोनों हाथों से तने को पकड़ कर चढ़ता था, तो कोई नीचे झुकी डाली पकड़ कर. खजूर, नारियल, बेलपत्र आदि के कांटेदार पेड़ पर खिसक-खिसक कर कांटों से बच कर चढ़ते थे.
कई बार जहां दो डालियां मिलती हैं, वहां बैठने की जगह बन जाती है, वहीं बैठ कर भी फल खाने का आनंद लिया जाता था. कृषि समाज के लोग, गांव में रहनेवाले बच्चे पेड़ पर चढ़ना, नदी में नहाना, तालाब में तैरना, बहुत आसानी से सीख जाते थे. और बड़े भी उनकी मदद करते थे.
शहरों में बस गयी पीढ़ियां अब पेड़ों पर चढ़ना भूल चुकी हैं. फल तोड़ने के लिए भी किसी की बाट जोहनी पड़ती है. कोई मिला तो मिला, वरना पेड़ पर लगे फल यों ही सूख जाते हैं.
आम तोड़ने के लिए भी हंसिया लगा बांस, जिसे लग्गी कहते हैं, कहीं-कहीं उसका प्रयोग किया जाता है. वरना तो डंडे मार-मार कर या पत्थर मारकर फल तोड़ने की कोशिश की जाती है. बेचारे पेड़, एक तो फल दें, ऊपर से डंडे और पत्थरों की चोट खाएं, यानी कि जो फल दे उसे अक्सर चोट खाने को ही मिलती है.
जामुनी मौसम में तो इतने जामुन पेड़ों से गिरते हैं कि उनके नीचे की जमीन बैंगनी रंग में रंग जाती है. शहरों में गिरा फल उठाना भी अपनी हैसियत के खिलाफ माना जाता है. जबकि गांवों में पेड़ के नीचे गिरे फलों को उठाने की होड़ लगी रहती थी.
जिन फलों को हम बाजार से खरीद कर लाते हैं, उनके बारे में क्या पता कि वे कैसे तोड़े गये. वैसे भी इन दिनों फल पकने का इंतजार शायद ही कोई करता है. कच्चे तोड़ कर रसायनों से पकाये जाते हैं, इसलिए उनमें वह खुशबू और स्वाद भी नहीं, जो पेड़ पर पके फल में मिलता है.
बहुत सी नामालूम-सी बातें अब हमारी हैसियत का पर्याय बना दी गयी हैं. वक्त बदला है, मगर हमारे स्वाद, रस-रंग, गंध, पेड़ पर चढ़ने की कलाएं, फल तोड़ने के तौर-तरीके, उनके पकने का स्वाद क्यों भुला दिया जाये. अपने पुरखों के अनुभवजन्य ज्ञान को भुलाने से कोई आगे नहीं बढ़ता.

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