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आसान नहीं आरक्षण की राह
प्रो फैजान मुस्तफा वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ delhi@prabhatkhabar.in पिछले दिनों आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने हेतु संसद के दोनों सदनों में पारित 124वें संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 16 में एक नया उपबंध जोड़ा गया है, जो राज्यों को ऐसे प्रावधान करने में समर्थ […]
प्रो फैजान मुस्तफा
वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ
delhi@prabhatkhabar.in
पिछले दिनों आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने हेतु संसद के दोनों सदनों में पारित 124वें संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 16 में एक नया उपबंध जोड़ा गया है, जो राज्यों को ऐसे प्रावधान करने में समर्थ बनाता है.
इस वजह से केंद्र सरकार को यह भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस आरक्षण को असंवैधानिक करार देने की संभावना नहीं होगी और इसे समानता तथा भेदभाव-विहीनता के सिद्धांत के अनुरूप पाया जायेगा. इसके बावजूद, यूथ फॉर इक्वलिटी नामक एक एनजीओ ने तो इस कदम को संविधान के बुनियादी ढांचे के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी ही है, दूसरी ओर वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा साहनी (जिनकी दलीलों के नतीजे में सुप्रीम कोर्ट ने मंडल कमीशन के संदर्भ में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की थी) भी इसे चुनौती देने पर विचार कर रहे हैं.
प्रश्न यह उठता है कि आरक्षण के संदर्भ में संविधान के बुनियादी ढांचे की प्रासंगिकता क्या है? महात्मा गांधी एवं डॉ बीआर आंबेडकर के बीच संपन्न पूना पैक्ट (1932) से लेकर संविधान सभा की बहसों तक आरक्षण का प्रसंग विभिन्न वर्गों के सामाजिक पिछड़ेपन के संदर्भ में ही उठता रहा.
124वें संविधान संशोधन ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण का लाभ देकर इस लीक से हटने का कार्य किया है. वर्ष 1951 में संविधान में किये गये पहले संशोधन के द्वारा उसमें जोड़ा गया अनुच्छेद 15(4) राज्यों को सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण देने की शक्ति देता है, जबकि अनुच्छेद 16(4) किसी भी ऐसे पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की अनुमति देता है, जिसे सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका हो.
इस तरह, आरक्षण एक अधिकार नहीं है, पर यदि यह दिया गया है, तो इसे समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं माना जायेगा. अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है. इसलिए, यदि किसी वर्ग के साथ सामाजिक बहिष्करण की बुराई जुड़ी है, तो उसके लिए आरक्षण उचित हो सकता है.
अनुच्छेद 46, जो एक नीति निर्देशक सिद्धांत है और जिसके आधार पर किसी अदालत में सुनवाई नहीं हो सकती, यह कहता है कि राज्य ‘कमजोर वर्गों’, खासकर अनुसूचित जातियों (एससी) तथा अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ावा देते हुए ‘सामाजिक अन्यायों’ तथा ‘सभी रूपों के शोषण’ से उनका संरक्षण करेगा. 124वें संविधान संशोधन विधेयक ने अपने बयान एवं उद्देश्यों के अंतर्गत अनुच्छेद 46 का उल्लेख करते हुए इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है कि अगड़ी जातियां न तो कोई सामाजिक अन्याय झेल रही हैं, न ही वे किसी शोषण की शिकार हैं.
संविधान ने एससी, एसटी तथा सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़े वर्गों के लिए किये गये संवैधानिक सुरक्षा उपायों के क्रियान्वयन से संबद्ध मामलों की देखरेख के लिए विभिन्न आयोगों का प्रावधान किया है.
पर उसने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए ऐसे किसी आयोग का प्रावधान नहीं किया. अनुच्छेद 335 कहता है कि सेवाओं एवं पदों पर नियुक्तियों के संदर्भ में एससी एवं एसटी के दावे पर विचार करते वक्त प्रशासनिक कुशलता कायम रखने का ख्याल भी रखा जायेगा.
आर्थिक आरक्षण की संवैधानिकता की परख करते हुए सुप्रीम कोर्ट को उन सिद्धांतों की परीक्षा करनी होगी, जिनके आधार पर यह कदम उठाया गया है. एम नागराज (2006) के अनुसार, कोर्ट को दो जांच करनी होगी, पहली- संशोधन करने की शक्तियों की सीमा पर व्यापकता जांच है.
इसके अंतर्गत चार मुद्दों की परीक्षा होगी- क) सभी आरक्षण को जोड़कर भी 50 प्रतिशत की संख्यात्मक सीमा, ख) क्रीमी लेयर का बहिष्करण अथवा गुणात्मक बहिष्करण, ग) आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के पिछड़ेपन जैसी बाध्यकारी वजह, तथा घ) यह कि इस नये आरक्षण से समग्र प्रशासनिक कुशलता पर कोई आंच नहीं आयेगी. दूसरी है पहचान की जांच, जिसके अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट यह विचार करेगा कि संशोधन के पश्चात संविधान की पहचान में कोई फेरबदल तो नहीं हुआ, क्योंकि संशोधन इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता.
भारत में समानता को लोकतंत्र एवं विधि के शासन का सार माना गया है. इसलिए, 124वें संविधान संशोधन के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट को यह विचार भी करना होगा कि क्या राज्य ने संशोधन करते हुए इस सिद्धांत के साथ औचित्य स्थापित किया है?
राज्य को कोर्ट के समक्ष संख्यात्मक आंकड़े पेश करते हुए उसे संतुष्ट करना होगा कि आर्थिक रूप से इस पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व में अपर्याप्तता मौजूद थी. फिर, सरकार द्वारा 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन हेतु ‘बाध्यकारी वजहों’ का औचित्य भी सिद्ध करना होगा. यहां तक कि प्रोन्नति में एससी/एसटी के आरक्षण के लिए भी कोर्ट ने पिछड़ेपन के केवल संख्यात्मक आंकड़े में ढील दी, पर प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और कुशलता के प्रभावित न होने की शर्त पर बल दिया.
किसी भी जाति को पिछड़े वर्गों में शामिल करने के पहले उसकी सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक स्थितियों का पूरा आकलन किया जाना होता है. जिन जातियों को मंडल आयोग ने सप्रमाण ‘अगड़ी जातियां’ माना, अब उन्हें बगैर उतने ही प्रामाणिक आंकड़े के ‘पिछड़े वर्गों’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि तब कोर्ट इसे मनमानी कार्रवाई मान सकता है.
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