-19 साल के करीब 10 करोड़ नौजवान केंद्र में किस पार्टी की सरकार देखना चाहेंगे. लेकिन यह सवाल शायद ही सामने आया कि नौजवानों के राजनीतिक रुझान को निर्णायक माननेवाली पार्टियां उनके भावी भविष्य के लिहाज से किस तरह के शिक्षा केंद्र मुहैया करायेगी. आखिर 18-19 की उम्र कॉलेज जाने की होती है. जो जरूरी सवाल चुनावी-चर्चा में नहीं उठा, वह अब एक बड़ी खबर के रूप में सामने है.
गुणवत्ता के लिहाज से रैंकिंग करनेवाली एक संस्था ने एशिया के शीर्ष 300 उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची जारी की है, जिसमें भारत के मात्र 17 संस्थान हैं. संतोष की बात बस इतनी है कि पिछले साल के मुकाबले में यह संख्या कुछ बढ़ी है. लेकिन, उच्च शिक्षा के मोरचे पर ऐसे किसी संतोष से काम चलाना घातक होगा. वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के भीतर भारत की बड़ी ताकत उसकी कुशल श्रमशक्ति है, जिसकी संभावनाएं काफी हद तक गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा पर निर्भर है.
इसे हमारी उच्च शिक्षा की खस्ताहाली का प्रमाण कहा जायेगा कि एशिया के शीर्ष 50 संस्थानों में भारत के महज दो संस्थान हैं, जबकि आकार व आबादी के लिहाज से अदने से देश जापान के 13, हांगकांग व ताईवान में प्रत्येक के 6. अचरज नहीं कि जो मेधावी या महत्वाकांक्षी विद्यार्थी खर्च उठाने में सक्षम हैं, वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश का रुख करते हैं. इस तरह काफी विदेशी मुद्रा भारत से बाहर चली जाती है. उच्च शिक्षा के सुधार पर केंद्रित यशपाल कमिटी ने पांच साल पहले ही ध्यान दिलाया था कि वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में एक बड़ी चुनौती देश के उच्च शिक्षा संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाने की है.
लेकिन, शिक्षक-छात्र अनुपात, शोध-पत्रों के प्रकाशन, विदेशी शिक्षक और छात्रों की मौजूदगी, शैक्षिक साख आदि के मामले में देश के संस्थान पश्चिमी मुल्कों की कौन कहे, पड़ोसी चीन व जापान से भी पिछड़े हैं, जबकि ऐसे ही आधारों पर इन संस्थानों की श्रेष्ठता तय की जाती हैं. इसलिए ऐसे वक्त में, जब विकास के नारे पर चुनाव लड़ कर पार्टियां नयी सरकार के गठन में जुटी हैं, हमारी एक बड़ी प्राथमिकता विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ाने की भी होनी चाहिए.