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सबसे महंगा चुनाव, मीडिया और लोकतंत्र

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार कानून का उल्लंघन कर प्रसारित ओपिनियन पोल्स, बड़े पैमाने पर दर्ज पेड न्यूज के मामले और महंगे विज्ञापनों के अलावा भी इस चुनाव में तरह-तरह के हथकंडे अपनाये गये. आयोग के पास इस बाबत कई तरह की शिकायतें आयी हैं. आजादी के बाद का यह सबसे ज्यादा व्यक्ति-केंद्रित चुनाव था. मुद्दे और […]

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

कानून का उल्लंघन कर प्रसारित ओपिनियन पोल्स, बड़े पैमाने पर दर्ज पेड न्यूज के मामले और महंगे विज्ञापनों के अलावा भी इस चुनाव में तरह-तरह के हथकंडे अपनाये गये. आयोग के पास इस बाबत कई तरह की शिकायतें आयी हैं.

आजादी के बाद का यह सबसे ज्यादा व्यक्ति-केंद्रित चुनाव था. मुद्दे और दल गौण हो गये. इससे ज्यादा महंगा चुनाव भी अब तक नहीं लड़ा गया था. कुछ बड़े दलों ने चुनाव पर जितना खर्च किया, वह बेहिसाब है. कालेधन के खिलाफ सबसे तेज आवाज उठानेवाले दलों का खर्च सबसे ज्यादा दिखा. कॉरपोरेट-घरानों की ऐसी खुली सक्रियता पहले किसी चुनाव में इतने साफ तौर पर नहीं दिखी थी. एक बड़े बिजनेस चैनल ने देश के कई कॉरपोरेट-कप्तानों को वाराणसी बुला कर गंगा घाट पर बहस करायी और उसका बार-बार प्रसारण हुआ.

मतदान से कुछ दिन पहले हुए इस खास आयोजन में कॉरपोरेट-कप्तानों ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का न केवल समर्थन किया, बल्कि देशवासियों के समक्ष यह तर्क भी पेश किया कि सिर्फ मोदी साहब ही इस वक्त देश को आगे ले जा सकते हैं. कुछ बड़े उद्योगपतियों ने चैनलों को दिये अलग-अलग साक्षात्कारों में मोदी का समर्थन किया. यह सारे कॉरपोरेट-कप्तान बड़े विज्ञापनदाता भी हैं.

ऐसे में देश के कॉरपोरेटाइज्ड मीडिया के बड़े हिस्से ने भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के पक्ष में अगर मानस या माहौल बनाने का चौतरफा अभियान चलाया, तो इसमें आश्चर्य किस बात का! पर, इस दौरान हमारे जैसे विकासशील लोकतंत्र में मीडिया और निर्वाचन आयोग की भूमिका पर कुछ जरूरी सवाल भी उठे हैं.

पहला सवाल चुनाव में प्रसारण माध्यम और विज्ञापन-प्रकाशन आदि से जुड़ा है. लोक प्रतिनिधित्व कानून-1951 के सेक्शन 126 के तहत हमारे देश में मतदान से 48 घंटे पहले उम्मीदवारों के प्रचार-प्रसार पर पाबंदी होती है. जनसभा-रैली-भाषण-विज्ञापन-प्रसारण सब पर पाबंदी है. पर इस सेक्शन में कुछ कमियां हैं. संभवत: संजीदा पत्रकारिता और सूचना के आदान-प्रदान के वृहत्तर सरोकारों को ध्यान में रखते हुए प्रिंट मीडिया का इसमें उल्लेख नहीं है.

दुखद यह है कि कानून के इस रिक्त पहलू का इस बार भारी दुरुपयोग हुआ. क्या यह लोकतंत्र के लिए विडंबनापूर्ण नहीं कि मतदान से 48 घंटे पहले किसी आम उम्मीदवार के लिए दरवाजे-दरवाजे जाकर संपर्क करने की मनाही है, पर कोई अमीर उम्मीदवार चाहे वह गांधीनगर बैठा हो या नयी दिल्ली, अपने विज्ञापनों के जरिये मतदान के दिन भी देश के किसी भी हिस्से में अपने मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचा ले रहा है? यही नहीं, अब तो अपनी-अपनी पार्टी के सितारा-प्रचारक नेता टीवी पर मतदान से ऐन पहले या दौरान भी अपने इंटरव्यू या खास संदेश के जरिये दूर-दूर के मतदाताओं को प्रभावित करने में सफल हो रहे हैं.

निर्वाचन आयोग के संज्ञान में यह समस्या पहले से है, पर इस बारे में कोई फैसला नहीं लिया जा सका और 2014 का लोकसभा चुनाव भी बीत गया. आयोग के उच्च सूत्रों ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि देश के प्रमुख राजनीतिक दलों की तरफ से कानूनी प्रावधान में जरूरी संशोधन के लिए इस बाबत कोई पहल नहीं की जा सकी और इस तरह यह मामला लंबित रह गया.

दूसरा सवाल असंतुलित और आग्रह-पूर्वाग्रह भरे मीडिया कवरेज का है. किसी भी लोकतांत्रिक समाज में किसी मीडिया घराने या पत्रकार की राजनीतिक सोच या विचारधारा हो, इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. यूरोप के कई देशों में ज्यादातर मीडिया संस्थान और बड़े पत्रकार अपने राजनीतिक सोच या वैचारिक संबद्धता को छुपाते हुए निष्पक्षता का ढोंग नहीं रचते. वे अपने राजनीतिक सोच या दलीय-समर्थन की घोषणा करते हैं. पर वे मीडिया-कवरेज या रिपोर्टिग में ईमानदार और संतुलित होने की भरपूर कोशिश करते हैं. अपने देश का हाल निराला है.

हमारी परंपरा वस्तुगत और जनपक्षी मीडिया की रही है. लेकिन इस बार के चुनाव में जनपक्षधरता की बात छोड़िए, ज्यादातर टीवी चैनलों के कवरेज में न्यूनतम वस्तुगतता का भी अभाव देखा गया. जिस तरह टीवी चैनलों ने शुरू से ही भाजपा, खासतौर पर उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के पक्ष में हवा बनाने का अभियान चलाया, वह अभूतपूर्व है.

हाल ही में दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के मीडिया-लैब की रिसर्च टीम ने अपनी शोध-रिपोर्ट में लोकसभा चुनाव प्रचार के विभिन्न चरणों में नेताओं के कवरेज को लेकर जो आकड़े पेश किये हैं, वे चौंकानेवाले हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 16 से 30 अप्रैल, 2014 के बीच देश के पांच बड़े टीवी चैनलों (हिंदी-अंगरेजी सहित) पर प्राइम टाइम (रात 8 बजे से 10 बजे) के दौरान भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को 1197 मिनट दिखाया गया. उन्हें कुल 42.14 फीसदी कवेरज मिला. ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल को इसी दौर में कुल 94 मिनट दिखाया गया और उन्हें 3.3 फीसदी कवरेज मिला. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को इस दौरान 108 मिनट दिखाया गया और उन्हें 3.82 फीसदी कवरेज मिला. प्रियंका गांधी को 142 मिनट दिखाया गया और उन्हें 4.98 फीसदी कवरेज मिला.

इसके बाद 1 से 5 मई के बीच इन चैनलों ने नरेंद्र मोदी को 45.52 फीसदी, केजरीवाल को 2.75 फीसदी, राहुल गांधी को 7.03 फीसदी और प्रियंका गांधी को 13.63 फीसदी कवरेज दिया. देश के प्रमुख क्षेत्रीय या अन्य राष्ट्रीय दलों के नेताओं को इन कथित राष्ट्रीय चैनलों ने बेहद कम कवरेज दिया. प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्रियों और विभिन्न दलों के बड़े प्रचारकों, यथा नवीन पटनायक, मुलायम सिंह, माणिक सरकार, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, शरद पवार, अखिलेश यादव, जयललिता, ममता बनर्जी या करुणानिधि को इन चैनलों में दो-ढाई फीसदी से भी कम कवरेज मिला.

कई चरणों में लंबे समय तक चली चुनाव प्रक्रिया के दौरान मालदार नेताओं और ताकतवर राजनीतिक दलों ने अपने कॉरपोरेट-संपर्कों और साधनों के बल पर अपने पक्ष में जन-मानस बनाने में मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया. कई मौकों पर तो ऐसा भी लगा कि मीडिया का एक हिस्सा किसी खास नेता या दल के पक्ष में मानस-निर्माण के अभियान में स्वयं शामिल है.

कानून का उल्लंघन कर प्रसारित ओपिनियन पोल्स, बड़े पैमाने पर दर्ज पेड न्यूज के मामले और मोटी रकमवाले विज्ञापनों के अलावा भी इस चुनाव में तरह-तरह के हथकंडे अपनाये गये. चुनाव आयोग के पास इस बाबत कई तरह की शिकायतें आयी हैं. पर सबसे बड़ा सवाल है, इनका निष्पादन कौन करेगा और निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनाव के लिए स्वस्थ-अनुकूल माहौल कौन बनायेगा? अभी तो 2009 के संसदीय और बाद के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान उजागर हुए ढेर सारे ऐसे मामले आयोग, प्रेस परिषद, सरकार और न्यायालयों मे लंबित हैं. क्या सियासत और मीडिया पर बढ़ते कॉरपोरेट-दबदबे के बीच भारतीय लोकतंत्र ऐसे ही चलेगा!

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