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असहिष्णुता की राजनीति

।। पवन के वर्मा।। (पूर्व राजनयिक व लेखक) टेलीविजन पर भारतीय जनता पार्टी के नेता गिरिराज सिंह और विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव प्रवीण तोगड़िया द्वारा दिये गये नफरत फैलाने वाले बयानों तथा भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में शिव सेना के रामदास कदम का सांप्रदायिक विषवमन […]

।। पवन के वर्मा।।

(पूर्व राजनयिक व लेखक)

टेलीविजन पर भारतीय जनता पार्टी के नेता गिरिराज सिंह और विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव प्रवीण तोगड़िया द्वारा दिये गये नफरत फैलाने वाले बयानों तथा भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में शिव सेना के रामदास कदम का सांप्रदायिक विषवमन देखते हुए मैं बस यही सोच रहा था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को लेकर हमारी भयावह आशंकाएं सच साबित हो रही हैं. शासन एवं विकास भले ही घोषित लक्ष्य हों, लेकिन चुनावी गर्मी में बहुत सावधानी से सामने रखा गया यह मुखौटा उतरता हुआ साफ दिख रहा है.

कुछ दिन पहले एक टेलीविजन बहस में भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी द्वारा मुसलिम जनसंख्या पर नियंत्रण की आवश्यकता की बात सुन कर मैं अवाक रह गया था. उनके रवैये में, कम-से-कम मुङो ऐसा लगा, एक अहंकार दिख रहा था कि ‘मेरे मन में जो आयेगा, मैं वही कहूंगी और मुङो आपकी प्रतिक्रिया की कतई परवाह नहीं है.’ ऐसे ही भय का अहसास तब हुआ जब एक अन्य टेलीविजन बहस में गुजरात से भाजपा के एक प्रवक्ता ने मुठभेड़ में हत्याओं के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि यह हमारी आतंक-विरोधी नीति का हिस्सा है, तथा यह फैसला हम करेंगे कि कौन आतंकवादी है और कानूनी-प्रक्रिया की परवाह किये बिना हम उसे जान से मार देंगे. भाजपा के सबसे बड़े नेता के सबसे करीबी अमित शाह के भाषण भी उस जहर की एक बानगी है, जिसे हमारे राजनीतिक परिवेश में घोल दिया गया है.

अन्य पार्टियों के नेताओं के हालिया बयान भी बड़े खतरनाक हैं. हमारी सेना को सांप्रदायिक रंग में रंगने की समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खान की कोशिश तथा राजनीतिक विरोधियों के टुकड़े-टुकड़े करने की कांग्रेस नेता इमरान मसूद की धमकी भी अत्यंत निंदनीय हैं. क्रिया-प्रतिक्रिया-क्रिया घृणा और हिंसा के दुष्चक्र हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव में चल रहे विमर्श से स्पष्ट है कि यह चुनाव हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का सर्वाधिक धार्मिक ध्रुवीकरण वाला चुनाव है. ऐसा क्यों हुआ? किसने इसे ऐसा बनाया? वे कौन ताकतें हैं, जो भारतीय गणतंत्र द्वारा हमारे देश की बहुलता और धर्मनिरपेक्ष सच्चाई के स्वीकार और उत्सव को लेकर बनी राष्ट्रीय सर्वसम्मति को पुन: उघारने की कोशिश कर रही हैं? और, सबसे महत्वपूर्ण तो यह सवाल है कि इन सब कोशिशों का परिणाम क्या होगा?

यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि दांव पर सिर्फ एक चुनाव भर नहीं है, बल्कि सवाल हमारे देश के भविष्य का है. चुनाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन इस देश के मजबूत अस्तित्व के लिए प्रासंगिक सिद्धांत हमारे चिर-आधार बने रहने चाहिए. चुनावों में प्रतिद्वंद्वी राजनीतियों के बीच जोरदार प्रतियोगिता होनी चाहिए, कभी-कभी पारस्परिक कटुता भी स्वाभाविक है. लेकिन, अगर कुछ पार्टियां अपने क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए हमारी राष्ट्रीयता को परिभाषित करनेवाले पवित्र सिद्धांतों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं, तो इसके परिणाम बहुत खतरनाक हो सकते हैं.

यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि सभी दलों ने अपने मेकियावेलियाई चुनावी गणित को मजबूत करने के लिए धार्मिक हथकं डों का कमोबेश सहारा लिया है. लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि 1947 के बाद किसी नेता ने धार्मिक आधार पर लोगों में स्थायी विभाजन कर सत्ता में आने की ऐसी कोशिश नहीं की है. धर्मिक कार्ड का प्रयोग निंदनीय है, लेकिन धर्म के आधार पर विभाजित भारत का विचार घातक है.

इस चुनाव के नतीजे घातक नहीं होने की चिंता एक गंभीर और वैध चिंता है. विभाजन से बैर पैदा होता है और बैर हिंसा को उकसाती है. हमारे जैसे देश के लिए ऐसी स्थिति के मतलब की कल्पना करना मुश्किल नहीं है. विभिन्न धर्मो के लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में निवास करते हैं. कोई एक धर्म किसी एक भौगोलिक हिस्से में केंद्रित नहीं है. अगर लोग परस्पर अविश्वास और बैर भाव से रहने लगेंगे, तो देश एक ऐसी हालत में बदल जायेगा, जिसमें कभी भी आग लग सकती है. कोई सुरक्षित नहीं रहेगा. कोई शासन और कोई विकास नहीं होगा. हम 21वीं सदी की आधुनिक और प्रगतिशील अनिवार्यताओं के बजाए वापस 1947 के विभाजन के भयावह माहौल में लौट जायेंगे. इसीलिए जवाहरलाल नेहरू ने 1948 में मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पहले पत्र में कहा था कि सह-अस्तित्व कोई विकल्प नहीं, बल्कि एक विवशता है.

हमें यह सवाल पूछना होगा कि आखिर गिरिराज सिंह में इतनी हिम्मत कहां से आ गयी कि वे कह दें कि जो मोदी से सहमत नहीं हैं, वे पाकिस्तान चले जाएं. वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि बिहार में भाजपा के सबसे प्रमुख राजनेताओं में से एक हैं. उन्होंने मोदी के सबसे उग्र समर्थक के रूप में भी अपनी पहचान स्थापित की है. तो, क्या उन्हें यह भरोसा है कि उनके ऐसे बयान उनको अपने नेता के और नजदीक ले जायेंगे? नेता ने भी उन्हें निराश नहीं किया है. गिरिराज को माफी मांगने या अपना बयान वापस लेने के लिए नहीं कहा गया है. उन्हें बस हल्की ङिाड़की भर मिली. अपने दिल में भारत के हित की भावना रखनेवाला कोई राजनेता इसकी घोर निंदा करता, माफी मांगने के लिए कहता और उन्हें पार्टी से निकालने की बात सोचता. इसी तरह, मुसलिमों के खिलाफ नफरत फैलानेवाले प्रवीण तोगड़िया के ऐसे बयान, जिनका उल्लेख तक नहीं किया जा सकता, से संघ परिवार का मौजूदा नेतृत्व कतई विचलित नहीं हुआ. उनके लिए ऐसे विषवमन आम बात हैं, और उनके एक ही विचारधारात्मक खांचे से जुड़े होने के कारण यह स्वाभाविक ही है.

भाजपा के स्वीकार के विस्तार और संघ परिवार के किनारे पर स्थित कट्टरपंथी व रुढ़िवादी तत्वों को नरम बनाने की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी का ऐतिहासिक योगदान है. आज ऐसा लगता है कि यह किनारा ही अब उनकी मुख्यधारा है. कट्टरपंथियों को लग रहा है कि अब उनके पास एक ऐसा नेता है, जो उनके जहरीले बयानों व हिंसा, मूर्खतापूर्ण बातों और नैतिक पहरेदारी को माफ कर देगा. अगर उनका आकलन सही है, तो हमारे देश के लिए इसका क्या मतलब है? और हममें से हर एक के लिए इसका क्या मतलब है?

शासन व विकास प्रशंसनीय लक्ष्य हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि सभ्य व्यवहार और दूसरों के विचारों और विश्वासों के साथ इनका सामंजस्य नहीं हो सकता है. सुशासन के पक्षधरों को किसी विरोध के साथ इस तरह की असहिष्णुता दिखाने की जरूरत नहीं होती है. उन्हें अपने समर्थकों को दूसरे धर्म के लोगों पर थूकने के लिए कहने की जरूरत नहीं होती है. हम एक नये गणतंत्र हैं, लेकिन हमारी सभ्यता प्राचीन है. इन दोनों की प्रतिष्ठा को हमें ठेस नहीं पहुंचाना चाहिए.

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