नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई निदेशक आलोक कुमार वर्मा की याचिका पर बृहस्पतिवार को सुनवाई शुरू हुई, लेकिन कोर्ट ने दलील सुनने के बाद सुनवाई 5 दिसंबर तक टाल दी है.
केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक आलोक कुमार वर्मा, जिन्हें केंद्र ने उनके अधिकारों से वंचित करके अवकाश पर भेज दिया है, ने बृहस्पतिवार को उच्चतम न्यायालय में दलील दी कि उनकी नियुक्ति दो साल के निश्चित कार्यकाल के लिये हुयी थी और इस दौरान उनका तबादला तक नहीं किया जा सकता.
जांच ब्यूरो के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच छिड़े विवाद के बाद केंद्र ने केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिश पर दोनों अधिकारियों को अवकाश पर भेज दिया था. वर्मा ने उनके अधिकार लेने और अवकाश पर भेजने के सरकार के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है.
आलोक वर्मा चाहते हैं कि न्यायालय केन्द्र के आदेश पर रोक लगाये क्योंकि यह शीर्ष अदालत द्वारा प्रतिपादित दिशानिर्देशों के खिलाफ है. प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति केएम जोसफ की पीठ ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया कि वह आरोप प्रत्यारोपों पर गौर नहीं करेगी.
पीठ ने कहा, हम सिर्फ इस मामले का विशुद्ध रूप से कानूनी सवाल के रूप में परीक्षण कर रहे हैं. वर्मा की याचिका पर आज सुनवाई अधूरी रही. इस मामले में अब पांच दिसंबर को आगे सुनवाई होगी.
सरकार के फैसले को चुनौती देते हुये आलोक वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन ने कहा कि उनकी नियुक्ति एक फरवरी, 2017 को हुयी थी और कानून के अनुसार दो साल का निश्चित कार्यकाल होगा और इस भद्र पुरुष का तबादला तक नहीं किया जा सकता.
उन्होंने कहा कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास आलोक वर्मा को अवकाश पर भेजने की सिफारिश करने का आदेश देने का कोई आधार नहीं था. नरीमन ने कहा, विनीत नारायण फैसले की सख्ती से व्याख्या करनी होगी. यह तबादला नहीं है और वर्मा को उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों से वंचित किया गया है.
उच्चतम न्यायालय ने देश में उच्च स्तरीय लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से संबंधित मामले में 1997 में यह फैसला सुनाया था. यह फैसला आने से पहले जांच ब्यूरो के निदेशक का कार्यकाल निर्धारित नहीं था और उन्हें सरकार किसी भी तरह से पद से हटा सकती थी. परंतु विनीत नारायण प्रकरण में शीर्ष अदालत ने जांच एजेन्सी के निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल दो साल निर्धारित किया ताकि वह स्वतंत्र रूप से काम कर सकें। नरीमन ने जांच ब्यूरो के निदेशक की नियुक्ति और पद से हटाने की सेवा शर्तों और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान कानून 1946 के संबंधित प्रावधानों का जिक्र किया.
केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने वर्मा और अन्य की इस दलील का विरोध किया कि जांच ब्यूरो के निदेशक को अधिकारों से वंचित कर उन्हें अवकाश पर भेजने के लिये सरकार को चयन समिति के पास जाना चाहिए था. वेणुगोपाल ने पीठ से कहा कि वर्मा दिल्ली में ही उसी घर में रह रहे हैं और इसलिए यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि उनका तबादला हुआ है.
अटार्नी जनरल ने कहा, वर्मा अभी भी निदेशक के पद पर हैं और उन्हें आज भी इस पद के सभी लाभ और विशेषाधिकार प्राप्त हैं. बहस अधूरी रहने पर पीठ ने सुनवाई पांच दिसंबर के लिये स्थगित कर दी है.
शीर्ष अदालत ने सीबीआई को वर्मा को उनके अधिकारों से वंचित करने के बाद किये गये सारे तबादलों का रिकार्ड रखने का निर्देश दिया है. लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने वर्मा को उनके अधिकारों से वंचित करने और अवकाश पर भेजने के बारे में सीवीसी के आदेश का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सरकार दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान कानून के प्रावधानों को नजरअंदाज नहीं कर सकती. ये प्रावधान सीबीआई निदेश्क का कार्यकाल के मध्य में तबादला करने से पहले समिति से सलाह अनिवार्य करते हैं.
उन्होंने कहा, वर्मा के कार्यालय को सील करने का आदेश सीवीसी कानून के तहत बगैर किसी अधिकार के ही दिया गया. उन्होंने दलील दी कि भले ही सीबीआई निदेशक यदि रंगे हाथ पकड़ा जाता है तो भी सरकार के बाद चयन समिति के पास जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है. उन्होंने कहा कि जांच ब्यूरो के निदेशक के खिलाफ उपचार सिर्फ चयन समिति के पास ही है. मैं यह नहीं कह रहा कि जांच ब्यूरो के निदेशक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती.
सिब्बल ने कहा, नियुक्ति करने के अधिकार के साथ ही निलंबित या बर्खास्त करने का अधिकार होगा. यही वजह है कि वर्मा के खिलाफ जो कुछ भी करना था, उसे चयन समिति के पास ही जाना था. कल ऐसा सीएजी और सीवीसी के साथ हो सकता है क्योंकि उनके लिये भी यही प्रावधान हैं.
सिब्बल ने कहा, यदि सरकार को जांच ब्यूरो के निदेशक को इस तरह से हटाने की अनुमति दी गयी तो फिर जांच एजेन्सी की स्वतंत्रता का क्या होगा? आज सीबीआई प्रमुख हैं, कल सरकार केन्द्रीय सतर्कत आयुक्त को हटा सकती है. गैर सरकारी संगठन कामन कॉज की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा कि सीबीआई प्रमुख जैसे व्यक्ति पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद उसके तबादले जैसा विषय चयन समिति के पास ही भेजना होगा, जिसमें प्रधान मंत्री, प्रतिपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश शामिल हैं.
दवे ने भी तर्क दिया कि आलोक वर्मा को अधिकारों से वंचित करते समय दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान कानून के तहत प्रक्रिया को दरकिनार किया गया. जांच ब्यूरो के उपमहानिरीक्षक मनीष कुमार सिन्हा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता इन्दिरा जयसिंह ने पीठ से अनुरोध किया कि उनके मुवक्किल की तबादले के खिलाफ याचिका सीबीआई निदेशक की याचिका का निबटारा होने तक लंबित रखी जाये.
सिन्हा का तबादला नागपुर किया गया था और वह राकेश अस्थाना और मांस निर्यात के कारोबारी मोईन कुरैशी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने वाले दल के सदस्य थे. सरकार की कार्रवाई के तहत पोर्ट ब्लेयर भेजे गये जांच ब्यूरो के उपाधीक्षक ए के बस्सी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि यदि न्यायालय को लगता है कि कानून में खामी है तो इस खामी को उसे ही दूर करना होगा.
सरकार या सीवीसी इस खामी को दूर नहीं कर सकती. इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही नरीमन ने कहा कि न्यायालय किसी भी याचिका के विवरण के प्रकाशन पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता क्योंकि संविधान का अनुच्छेद इस संबंध में सर्वोपरि है.
उन्होंने इस संबंध में शीर्ष अदालत के 2012 के फैसले का भी हवाला दिया. पीठ ने सीवीसी के निष्कर्षो पर आलोक वर्मा का जवाब कथित रूप से मीडिया में लीक होने पर 20 नवंबर को गहरी नाराजगी व्यक्त की थी.
यही नहीं, न्यायालय ने जांच ब्यूरो के उपमहानिरीक्षक मनीष कुमार सिन्हा के अलग से दायर आवेदन का विवरण भी प्रकाशित होने पर अप्रसन्नता व्यक्त की थी.