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यादों में वसंत : गांवों को जिंदा कर दो, मेरे फाग लौटा दो

महीने भर चलता था हमारा वेलेंटाइन डे वसंतोत्सव ऐसा हो, जिसमेें हिंदू-मुसलमान सब मिल कर झूमें, फाग गायें. भारत की धरती को मिले इस उपहार (वसंत ऋतु) का सब मिल कर आनंद लें. हमारे परिवेश में राम-रहीम सब की जरूरत है. सब के साथ ही मने हमारा वसंतोत्सव. बृजेंद्र दुबे मेरे बचपन में हम गांव […]

महीने भर चलता था हमारा वेलेंटाइन डे
वसंतोत्सव ऐसा हो, जिसमेें हिंदू-मुसलमान सब मिल कर झूमें, फाग गायें. भारत की धरती को मिले इस उपहार (वसंत ऋतु) का सब मिल कर आनंद लें. हमारे परिवेश में राम-रहीम सब की जरूरत है. सब के साथ ही मने हमारा वसंतोत्सव.
बृजेंद्र दुबे
मेरे बचपन में हम गांव के लोग वसंत पंचमी से शुरू होते थे और होली तक वेलेंटाइन डे (प्रेम व मस्ती का उत्सव) मनाते रहते थे…. इसमें लड़के-लड़कियां ही नहीं, पूरा का पूरा समाज शामिल होता था. हम अवध के इलाके थे, तो हमारे यहां महबूब चाचा ढोल बजाते और मेरे पिता जी फाग गाते थे.
हमारे गांव में गरीबी थी, लेकिन खुशहाली थी. भाईचारा था. वसंतोत्सव में सुबह से शाम का इंतजार रहता कि आज फाग मंडली मुन्ना काका के यहां जमेगी या नन्हकऊ चाचा के दरवाजे. होड़ लगती थी इस जुटान के लिए. गांव के बड़े-बूढ़े-बुजुर्ग भी… भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे… को सच करते थे. मौसम की मादकता और रंगों की फुहार से हर प्राणी के जीवन में नये रक्त का संचार हो जाता था… चारों तरफ पकती फसल की खूशबू से घर-आंगन महक उठता था.
किसान को अपनी मेहनत का फल मिलने का समय रोमांचक हो जाता था… सब तरफ मस्ती, सब तरफ त्योहार का शोर… अल्हड़ वसंत शरीर के पोर-पोर में समा कर माहौल को नशीला बना देता था… बड़े-छोटे का लिहाज खतम. सब एक साथ बैठते, फाग गाते व नाचते.
बाबा जी जैसे बूढ़े भांग की तरंग में हम बच्चों को उकसाते और बोलते… मदनोत्सव आ गया प्यारे, मस्ती करो. पीली सरसों से खेत पट जाते, तो आम के पेड़ मंजर से लग कर झुक जाते… घर के दरवाजे पर लगे पीले गेंदे मह-मह महकते. और इन की महक से दिक्-दिगंत गमक उठता.
इस माहौल में हमारी चाचियां, भाभियां ही नहीं बूढ़ी अम्माएं भी हंसी-ठिठोली कर बैठतीं… हम बच्चों से. हां, इस ठिठोली में कहीं से किसी तरह की लंपटई नहीं होती थी… बस मस्ती होती और फाल्गुन का चुलबुलापन. हम भी गरदन झुका कर हंसते हुए भाग लेते. वसंत पंचमी को रेड़ (अरंडी या सदाबहार) का पेड़ गड़ते ही होलिकोत्सव पर्व की शुरुआत हो जाती थी. इसी दिन से बिना नागा मेरे गांव में हर रात महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग टोलियां फाग की मस्ती में डूब जाते. देर रात तक एक से बढ़ कर एक फाग गाये जाते. महिलाएं घर के आंगन में मंडली जमातीं, तो पुरुष घर के दरवाजे पर ढोलक-मंजीरे की ताल पर झूमते. हम बच्चों को दोनों मंडलियों में इंट्री मिलती.
हम कारसेवक बन कर सेवा में जुटे रहते. पान-सुपारी, आलू-कचालू और चाय सप्लाई आदि का जिम्मा हम बच्चों पर ही होता था. मेरे पिता जी फाग के बहुत अच्छे गवैैया थे. उनके पास एक बक्सा किताबें खाली फाग की थीं. वसंत पंचमी से एक महीने पहले यानी जनवरी शुरू होते ही गांव के नौजवान मेरे घर आकर पिता जी से फाग की किताबें मांग कर ले जाते, ताकि याद करके अपनी प्रतिभा दिखा सकें. पिता जी के फाग ज्यादातर कृष्ण-राधा के प्रेम पर आधारित होते थे.
यकीन मानिए जब वो लंबी सांस खींच कर..
देखन में छयल बड़़ बांका….
अरे.. ये तौ देइहैं उजारि इलाका,
मोहन मारे डाका…
गाते थे, तो सब लोग झूम पड़ते. यही नहीं अलंकारिक फाग का तो जवाब नहीं था…
मन बसा मोर वृंदावन में…
वृंदावन बेली, चंप-चमेली, गुलदाउली-गुलाबन में..
मन बसा मोर….
मेरे पिता जी के सिखाये मेरे कई चाचा और बड़े भाई अब भी शायद गाांव में मरती परंपरा की लौ जलाने रखने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं.
एक बात और, फाग शुरू हमेशा अच्छे वाले यानी कृष्ण-राधा या राम-सीता को लेकर शुरू होते थे, लेकिन समापन कबीरा और गालियों से होता था… जैसे-जैसे रात बढ़ती, भांग की तरंग का असर शुरू हो जाता. चाचा-ताऊ, जहां चाचियों-ताइयों को निशाने पर लेते, तो महिलाओं की ओर से भी मोहन व राम के फाग छोड़, पुरुषों की कुंडली बांचने लग जातीं. लेकिन इन सब के बीच लिहाज और मर्यादा का पालन खूब होता था. कोई नाराज न हो जाए, ये भी ध्यान रहता था. गांव के कुछ बुजुर्ग नयी दुल्हनों का फगुआ सुनने के लिए आतुर रहते. कोई न कोई जुगाड़ करके कभी-कभी महिलाओं के बीच जाकर बैठ जाते. एक बार तो एक ताऊ जी, साड़ी पहन कर घूंघट में महिलाओं के बीच घंटों बैठे रहे, कोई जान ही नहीं पाया. बाद में पता नहीं कैसे भेद खुल गया, तो भाग लिये.
महिलाओं के फाग में राम-कृष्ण के साथ आदर्श पति और पत्नी के गुलाम पतियों की गाथा छायी रहती. देशभक्ति का तड़का लगता था, कभी-कभी. मेरी चाची का एक फाग हर साल डिमांड में होता था.. और वो गाती भी बड़ा सुरीला थीं…
सिया राम जी का नाम पियारा,
जपइ संसारा…जपइ संसारा, जपइ संसारा… बहै जलधारा..
जइसे सती चढ़ी सत ऊपर पिय के बचन नहिं टारा,
आप तरीं, औरों कुल तारीं… वो तौ तारि चलीं है परिवारा… बहइ जलधारा…
एक से बढ़ कर एक फाग होते थे, गांव की पूरी फिजां महक उठती थीं… फाग में लंबी सांस की जरूरत होती थी… मेरे पिता जी के बाबा जी… तो 85 साल की उम्र में गजब का फाग गाते थे… डेढ़ ताल, चौताल से लेकर किसिम के किसिम फाग उनसे सुनने को मिलता था… उनका एक फाग एक घंटे से अधिक लंबा खिंचता. बाबा जी गाते बहुत ठहराव के साथ.
लीन्हों पारब्रम्ह अवतारे.. मनुज तन धारे
कटी जंजीर, खुले दरवाजे सोइ गये रखवारे…
लइ बसुदेव चले गोकुल का… जमुना बहैं अगम-अपारे…
मनुज तन धारे…
क्या दिन थे वो… जीवन का वो आनंद अब के बच्चे महसूस भी नहीं कर सकते…आज मैं इसकी चर्चा जब अपने बच्चों से करता हूं, तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता. उन को लगता ही नहीं कि कभी इतना लंबा उत्सव मनता रहा होगा. वो भी एक-एक महीने तक. कौन समझाये, उन्हें.
मैंने इस उत्सव को एकबार नहीं एक दर्जन से भी ज्यादा बार जिया है.
हां, एक चीज इस दौरान अखरती भी थी, वो थी पढ़ाई क्योंकि इम्तिहान भी मार्च में होली के बाद ही शुरू होते थे. पढ़ना बोझ हो जाता था इस माहौल में…हर अलसायी सुबह जब मां पढ़ने के लिए जगातीं, तो बहुत बुरा लगता था.. लेकिन मजबूरी में पढ़ना ही पड़ता. फिर भी आज की तरह का दबाव नहीं था. न ही, हमारे माता-पिता का हम पर पढ़ने का बहुत दबाव ही था. वो बस इतना चाहते थे कि हम अच्छे से पढ़ें और आगे बढ़ें.
बाजारवाद निगल रहा हमारे त्योहार : आर्थिक उदारीकरण के नाम पर जब से हमने अपने दरवाजे दुनिया के लिए खोले यानी ग्लोबल हुए, हमारे पर्व-त्योहार बाजार की भेंट चढ़ गये.
हमारा वसंतोत्सव पता नहीं कब वेलेंंटाइन डे बन गया, पता ही नहीं चला. देखते-देखते हमारी पीढ़ी अधेड़ या बूढ़ी हो गयी. लेकिन हमने जो बचपन जिया, हमारे बच्चे नहीं जी रहे. उनके बच्चों का क्या हाल होगा, सोच कर ही रूह कांप जाती है.
मेरे दोस्तों, आधुनिक होना कोई गुनाह नहीं… लेकिन हमें अपनी संस्कृति और माहौल के हिसाब से जीना होगा. मेरी चाहत सिर्फ इतनी है कि वसंतोत्सव खेती-किसानी का पर्व बने. इसमेें हिंदू-मुसलमान सब मिल कर झूमें, फाग गायें. भारत की धरती को मिले इस उपहार (वसंत ऋतु) का सब मिल कर आनंद लें. हमारे परिवेश में राम-रहीम सब की जरूरत है. सब के साथ ही मने हमारा वसंतोत्सव.
जौ से मनता था नवान्न : वसंतपंचमी और होली के बीच हम सब दो और भी पर्व मनाते थे. एक होती थी, शिवरात्रि और फिर नवान्न. वसंतपंचमी के बाद फाग के रस रंग के बीच ही एक दिन घर में खूब पकवान बनते.
खेत से नया जौ लाया जाता और भून कर हम सब को मट्ठे के साथ खिलाया जाता… इसे नवान्न पर्व कहा जाता और ये भोज सामूहिक होता… हम बच्चे नये-नये कपड़े पहन कर गांव भर में घूम-घूम कर बड़ों का पैर छूकर आशिष लेते. खूब मस्ती रहती. जाते जाड़े और आती गर्मी के संगम स्थल के बीच वसंत का असली आनंद गांव में हमने बचपन में ही उठाया है…एकबार मैंने अपनी दादी से नवान्न के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि ईश्वर का सबसे प्रिय अनाज जौ जब पकने लगता है, तो सबसे पहले हम किसान उसी जौ की हरी-हरी बालियां भून कर उन्हें अर्पित करते हैं और फिर सब प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. दादी कहती थीं… चना-मटर का कौन नवा, जब होइ जवा, तब होइ नवा….
अब तो जौ जैसा अन्न कोई किसान कम ही बोता है… जौ को सभी अन्नों से श्रेष्ठ माना गया है… इसे अक्षत के रूप में ईश्वर को अर्पित किया जाता था.. लोग चावल से अक्षत का काम चला लेते हैं.

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