जून का महीना, दोपहर दो बजे का समय. आसमान से मानो आग की बारिश हो रही है, धरती तप रही है. सूनी सड़क पे चल रहे राहगीर का गाला सूखा है. ऐसे में उसको ठंडा पानी मिल जाए तो यह उसके लिए अमृत से कम नहीं होगा.
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र में बसे कानपुर में भीषण गर्मी पड़ती है. पारा 45 डिग्री सेल्सियस पार कर जाता है. गर्म हवा जानलेवा बन जाती है.
कानपुर में गर्मी के मौसम के शुरू होते मुख्य सडकों के किनारे राहगीरों के लिए पौशाले या प्याऊ खुल जाते हैं. एक ज़माना था जब पौशालों में हर तबके का आदमी – चाहे अमीर या गरीब, अपनी प्यास बुझाता था.
पर बदले समय में जब पानी की बोतलों का जमाना है तो पौशालों में कुछेक गरीब वर्ग के लोग, जो पानी खरीद नहीं सकते, वो ही अपना गाला तर हैं .
कानपुर में गर्मी के मौसम के शुरुआत के साथ ही सड़क के किनारे चार बांस गाड़ दिए जाते थे. ऊपर और चारों तरफ़़ से घास या पतले बांस से ढक दिया जाता थ और और उसमे कई सारे घड़े रख दिए जाते थे और एक झोपड़ीनुमा पौशाला तैयार हो जाता था.
सड़क वाली तरफ़ एक चौकोर छेद बनाया जाता था और वहीं से पौशाले में तैनात आदमी प्यासे लोगों को निशुल्क पानी पिलाता था.
‘पुण्य का काम’
कानपुर के इतिहास के जानकार 65 वर्षीय मनोज कपूर कहते हैं, "पहले कानपुर में कई पूंजीपति थे जो वे खूब पौशाला लगवाया करते थे. एक पूंजीपति परिवार था जयपुरिया. वे सबसे ज़्यादा पौशाला लगवाते थे.
"पहले तो उनकी कानपुर में कपडे की बहुत बड़ी मिल थी जो 70 के दशक में बंद हो गई. अब जयपुरिया परिवार का शायद ही कोई कानपुर में रहता है. उनकी पौशाला का सवाल ही नहीं होता है."
वे कहते हैं, "दूसरे, कानपुर के पूंजीपति भी पौशाला खुलवाते थे. आखिरकार प्यासे लोगों को मुफ़्त में पानी पिलाना एक अच्छा और पुण्य का काम मन जाता है."
वे कहते हैं, "कानपुर नगर निगम भी कुछ पौशाले लगवाने शुरू किए और आज भी लगवाता है."
कानपुर ही में पैदा और बड़े हुए साकेत गुप्ता कहतें हैं, "पौशाला का पानी एकदम ठंडा और साफ़ ही नहीं, पर सुगंधित भी होता था."
उन्होंने कहा, "किसी पौशाला के पानी में बेला के फूलों की ख़ुशबू होती थी तो कहीं केवड़े की और कहीं गुलाब की."
पेशे से वकील साकेत गुप्ता आगे कहतें हैं, "पौशाला में पानी के साथ लोगों को खाने कुछ मीठा जैसे गुड़ या बताशा भी दिया जाता था."
बदला ज़माना
पुराने दिनों को याद करके वे कहते हैं, "अब मीठे के मतलब बदल गया हैं. तब बच्चों के लिए गुड़ या बताशा बहुत बड़ी चीज़ होती थी. कड़ी धूप में नंगे पैर बच्चे झुंड बने के एक पौशाला से दूसरे पौशाला छोटे से गुड़ के टुकड़े के लिए दिन भर घूमा करते थे."
आज कुछ पौशाले खुलते तो हैं पर उन में शायद ही कोई रुकता है.
मनोज कपूर हैं, "पहले बोतलों का चलन तो था नहीं. किसी को प्यास लगी है तो पानी तो पिएगा ही. पौशाला ही एक मात्र साधन था. तो अमीर, गरीब, स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी पौशाला में पानी पीते थे."
वे कहते हैं, "समय बदल चुका है. पहले लोग धोती कुर्ता पहनते थे. अब शर्ट पैंट पहनते हैं. पहले प्याऊ में जाते थे अब बोतल खरीदते हैं. जो बोतल नहीं खरीद सकता वो एक रुपये का पानी का पाउच खरीदता लेता है."
कानपुर नगर निगम ने इस साल छह भीड़भाड़ वाले स्थानों पर पौशाला खुलवाए थे. पर पौशालाओं में शायद ही कोई जाता है.
बदलते समय के साथ लोग पीने वाले पानी के प्रति भी जागरुक हो गए हैं, शायद इसलिए भी कोई अब प्याऊ पर नहीं रुकता.
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