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जिंदगी के नरक को समझने की गाइड
अजित राय संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी जिस देश (रूस) में सर्जेई आइजेंस्टाइन और आंद्रे तारकोव्स्की जैसे विश्व सिनेमा का खुदा माने गये महान फिल्मकार पैदा हुए हों, वहां का सिनेमा आज राजनीति, षड्यंत्र और दिशाहीनता का शिकार हो चुका है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यह कहते हैं कि अमेरिकी-यूरोपीय देशों के पैसों से कई […]
अजित राय
संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी
जिस देश (रूस) में सर्जेई आइजेंस्टाइन और आंद्रे तारकोव्स्की जैसे विश्व सिनेमा का खुदा माने गये महान फिल्मकार पैदा हुए हों, वहां का सिनेमा आज राजनीति, षड्यंत्र और दिशाहीनता का शिकार हो चुका है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यह कहते हैं कि अमेरिकी-यूरोपीय देशों के पैसों से कई निर्वासित रूसी फिल्मकार रूस की छवि बिगाड़ने के लिए फिल्में बना रहे हैं. बड़े फिल्मोत्सवों में ऐसी फिल्मों की बड़ी चर्चा भी रही है.
सर्जेई लोजनित्स की नयी फिल्म ‘डोनबास’ (2018) की दुनियाभर में काफी चर्चा है. यह फिल्म 2014 से जारी यूक्रेन युद्ध की दिल दहलानेवाली छवियां दिखाती है. लोजनित्स ने अपनी पिछली फिल्मों (‘इन द फॉग’ और ‘ए जेंटिल क्रिएचर’) की शैली तो ली है, पर कहानी हटा दी है. लैंड स्केप, साउंड स्कोर, जबर्दस्त वातावरण और जीवन की नारकीय स्थितियों के दृश्यों में कहानी के बदले रिपोर्टिंग को तरजीह दी है.
रूस से लगे यूक्रेन की पूर्वी सीमा का लोकल डोनबास उस इलाके को कहा जा रहा है, जहां रूस के समर्थन से अलगाववादी समूहों ने डोनेत्क्स और लुहांस्क शहरों में पीपुल्स रिपब्लिक घोषित कर दिया है.
पुतिन और रूसी सेना के सहयोग से कई अलगाववादी समूह यूक्रेन की सेना से और अक्सर आपस में ही लड़ रहे हैं. जबकि यूक्रेन की सेना को यूरोप और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का समर्थन हासिल है. मीडिया की खबरें भ्रमित करनेवाली हैं. मसलन, एक दृश्य में विशाल टैंक पर बैठे रूसी सैनिकों का समूह एक जर्मन पत्रकार को गर्व से बताता है कि वे अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं, जबकि यूक्रेन उनकी मातृभूमि है ही नहीं. वे रूसी भाषा में बोल रहे हैं. वे रूस से आये सैनिक हैं. एक दूसरा समूह उस पत्रकार को पकड़कर जलील करता है कि वह हिटलर की नाजायज औलाद है, कि वह फॉसिस्ट है.
एक दृश्य में बंकर में रह रहे नागरिकों को दिखाया गया है, जहां सचमुच मौत से भी बदतर जिंदगी है. चारों तरफ लूट मची हुई है. सेना के जवान कभी भी किसी को उठा लाते हैं, उनसे जबरन लिखवाकर उनकी कार और दूसरे सामान हड़प लेते हैं. यूक्रेन में ही डोनबास इलाके से बाहर आते-जाते नागरिकों की तलाशी लेते सैनिक कई बार अमानवीय हो जाते हैं.
बेलारूस में जन्मे सर्जेई लोजनित्स कीव में बड़े हुए और रूस में फिल्म बनाना सीखा. वह कोई जजमेंटल टिप्पणी नहीं करते. जब युद्ध को ही शांति मान लिया जाये, प्रोपेगैंडा को सत्य कहा जाने लगे और घृणा को प्रेम घोषित कर दिया जाये, तो इसका मतलब है कि जिंदगी मौत से भी बदतर हो चुकी है. ऐसे में डोनबास फिल्म जिंदगी के नरक को समझने की प्रैक्टिकल गाइड बन जाती है.
फिल्म में यूक्रेन की सेना के जवान कम दिखते हैं सिवाय एक दृश्य में, जब वे एक निरीह इंसान को हाथ बांधकर भीड़ के हवाले कर देते हैं, जिसके पेट पर लिखा है- वह यूक्रेन एक्सक्यूसन स्क्वाॅड का सदस्य है. भीड़ उसे मार डालती है. फिल्म की शुरुआत में हम देखते हैं कि एक फिल्म की शूटिंग के लिए वैनिटी वैन में कलाकारों का मेकअप हो रहा है.
अचानक निर्देशक की सहायक एक लड़की आती है और सबको जल्दी से सुरक्षित जगह पर ले जाती है और तभी बम फटता है. अंतिम दृश्य में भी इसी वैन में मेकअप चल रहा है कि वहां कुछ लोग अचानक आकर बारह कलाकारों की हत्या कर देते हैं.
लोजनित्स ने अपनी पिछली फिल्म ‘ए जेंटिल क्रिएचर’ में सुपर पॉवर रूस में नागरिकों की बदतर होती जिंदगी को दिखाया था, पर वहां उन्होंने एक कहानी कही थी.
इस फिल्म को 70वें कान फिल्म समारोह के प्रतियोगिता खंड में दिखाया गया था. ‘डोनबास’ में वे यूक्रेन गये हैं, पर यहां न तो कोई एक चरित्र है, न कोई कहानी. हर दृश्य अपने आप में एक कहानी कहता है. जाहिर है कि फिल्म के निशाने पर रूस और वहां के राष्ट्रपति पुतिन हैं, यूरोप और अमेरिका नहीं.इस राजनीति से परे यह सच है कि आज का सिनेमा रूसी समाज का वह सच दिखा रहा है, जो आमतौर पर मीडिया में नहीं आ पाता.
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