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कारगिल दिवस: जान जोखिम में डाल खींची थी तस्वीरें, न दिन का पता था न रात का

विकास गुप्ताकोलकाता : भारत व पाकिस्तान के बीच वर्ष 1999 में मई से जुलाई के बीच लड़े गये कारगिल युद्ध के अब 20 वर्ष हो चुके हैं. पर, इस युद्ध का हिस्सा रहनेवाले सेना के जवानों को आज भी संघर्ष के हालात की यादें ताजा है. उत्तर 24 परगना के सोदपुर के रहनेवाले दीपक दास […]

विकास गुप्ता
कोलकाता : भारत व पाकिस्तान के बीच वर्ष 1999 में मई से जुलाई के बीच लड़े गये कारगिल युद्ध के अब 20 वर्ष हो चुके हैं. पर, इस युद्ध का हिस्सा रहनेवाले सेना के जवानों को आज भी संघर्ष के हालात की यादें ताजा है. उत्तर 24 परगना के सोदपुर के रहनेवाले दीपक दास भी इस युद्ध का एक हिस्सा थे. वर्ष 2011 में वह रिटायर हुए, लेकिन युद्ध का एक-एक पल और एक-एक मंजर उन्हें आज भी बारीकी से याद है. कैप्टन दीपक दास कहते हैं : मैं रक्षा विभाग में सीनियर फोटोग्राफी ऑफिसर था. इसके कारण मुझे इंडियन आर्मी, नेवी, एयरफोर्स व रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विभागों में पोस्टिंग मिलती रहती थी. नौकरी की शुरुआत से ही मैंने मन में ठान रखी थी, कि कभी युद्ध हुआ तो देश के लिए मैं उसका हिस्सा जरूर बनूंगा.

अचानक मिला मौका, भय को ताकत में बदल पहुंचा कारगिल

1999 के मई महीने में अचानक कारगिल का युद्ध छिड़ गया. उस समय के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस युद्ध में घायल वीर सैनिकों को देखने जम्मू अस्पताल आये थे. हमारे विभाग के चार लोग अपने निदेशक स्वागत बसु के साथ वहां थे. उस समय लाइव वीडियो रिकॉर्डिंग का जमाना नहीं था. स्टील तस्वीरें खींचने का ही कैमरा उपलब्ध था. इसी बीच विभाग के कर्मचारियों में किसी एक को युद्ध की लाइव तस्वीरें खींचने युद्ध के मैदान में जाने को कहा गया. मैं फौरन तैयार हो गया और जम्मू से ही कारगिल युद्ध के लिए निकल पड़ा. श्रीनगर कैंटोनमेंट से कारगिल 207 किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन 107 किलोमीटर की दूरी से ही युद्ध छिड़ा हुआ था.

21 दिनों तक चार युद्ध प्वाइंट व दो चोटियों पर खींचता रहा युद्ध की तस्वीरें
कैप्टन दीपक दास कहते हैं : मैं 12 हजार फीट की उंचाई पर स्थित जोजिला पास पार कर मातायन इलाके में पहुंचा. वहां से मोहनपुरा, द्रास, गुमरी होते हुए कारगिल पहुंचा. इस बीच, मैंने तारुराम पिक और गन हिल पिक जैसी दो चोटियों पर हाइ रिस्क जोन में पहुंचकर वहां की तस्वीरें कैमरे में कैद की. वहां दिनरात 24 घंटे दोनों पक्ष एक दूसरे पर बम व गोलियां बरसा रहे थे. आसपास से घायल, अति घायल सैनिकों को अस्पतालों में ले जाया जा रहा था, जिसे देख अंदर से दिल झकझोर रहा था. कई बार ऐसी स्थिति भी आयी, जब दुश्मन की गोलियों व बम से बचने के लिए पत्थरों के पीछे छिपना पड़ा. युद्ध करने वाले भारतीय सैनिक कभी हैरान हो जाते तो कभी मेरे प्राण की रक्षा के लिए मुझे छिप जाने की सलाह देते.

केरोसिन और बारूद की महक वाली चाय-बिस्कुट सिर्फ एक बार खाकर दिनभर लड़ते थे सैनिक
दीपक दास का कहना है कि युद्ध में मैंने वीर सैनिकों को खाते-पीते नहीं देखा. वे युद्ध प्वाइंट से काफी नीचे मौजूद कैंप से युद्ध के लिए जब जाते तो सिर्फ चाय व बिस्कुट खाकर ही कैंप से निकलते थे. उस चाय में भी केरोसिन व बारूद की महक होती थी. काफी ऊंचाई पर युद्ध छिड़ा होने के कारण खाने-पीने का ज्यादा लॉजिस्टिक सपोर्ट नीचे से नहीं मिल पा रहा था. हमने भी सैनिकों के साथ कई दिन इसी तरह चाय व बिस्कुट में गुजार दी.

ऐसे कई सैनिक थे, जो एक-दो दिन बाद ही हो गये शहीद
दीपक दास कहते हैं : युद्ध की लाइव तस्वीरें खींचने के दौरान मैं कैप्टन बिक्रम बत्रा से मिला. मेरी मुलाकात मिजोरम निवासी कांग्रुस्को से हुई. मैं राजपुताना राइफल के मेजर आचार्य से मिला. ये लोग अदम्य साहस का परिचय देकर युद्ध में दुश्मनों को तबाह कर रहे थे. काम के एक या दो दिन के अंतराल पर उनके शहीद होने की खबर ने दिल को पूरी तरह से हिला कर रख दिया.

युद्ध जीतने की खुशी के बीच आज भी जवानों को ग‍ंवाने का दृश्य झकझोर देता है मन
श्री दास बताते हैं कि 21 दिनों तक युद्ध के मैदान में रहने के बाद काम खत्म कर मैं वापस कोलकाता लौट आया, लेकिन युद्ध की तबाही के मंजर ने मुझे कई दिनों तक सोने नहीं दिया. जमीनी स्तर पर हमने कारगिल विजय तो कर ली, लेकिन युद्ध में वीर जवानों को गंवा देने के शोक से मन पूरी तरह से हार गया. युद्ध हमेशा तबाही व बर्बादी का आलम पीछे छोड़ जाता है. युद्ध से कभी किसी का भला नहीं होता है. इसके कारण मैं यही चाहता हूं कि पूरे विश्व में कभी किसी देश को युद्ध का सामना न करना पड़े.

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