नंदीग्राम व सिंगूर, दोनों जगह भूमि अधिग्रहण का हिंसक राजनीतिक विरोध राज्य में नये कल-कारखाने लगाने के रास्ते में आया आड़ेएजेंसियां, कोलकाता बंगाल में वाममोर्चा शासन की 30वीं वर्षगांठ का जश्न कोलकाता के नेताजी इंडोर स्टेडियम में मनाया गया था. यह जून 2007 की घटना है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के संरक्षक लगभग 90 वर्षीय ज्योति बसु ने अपना भाषण काफी पहले दे दिया था, लेकिन उन्होंने मंच से हटने का कोई संकेत नहीं दिया, जबकि समर्थकों ने पहले ही खचाखच भरे कार्यक्रम स्थल को छोड़ना शुरू कर दिया था. उस कद्दावर बुजुर्ग व्यक्ति के गिरते स्वास्थ्य और उनकी सीमित सार्वजनिक उपस्थिति को देखते हुए यह बात सामान्य नहीं थी. इसके कुछ ही समय बाद दिग्गज नेता को तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ एक जीवंत चर्चा में तल्लीन देखा गया, दूर से भी उनकी नाराजगी स्पष्ट थी. वाममोर्चा के तत्कालीन अध्यक्ष बिमान बसु जल्द ही उस कार्यक्रम में शामिल हो गये, जो बातचीत से ज्यादा एक बहस जैसी लग रही थी. एक बार फिर बेहद असामान्यता दिखी, सार्वजनिक रूप से बसु की दुर्लभ भाव-भंगिमा से पहले पार्टी ने शायद ही कभी अपने अलीमुद्दीन स्ट्रीट मुख्यालय के बंद दरवाजों के बाहर अपने मतभेदों को प्रदर्शित किया हो. तब तक युद्ध रेखा के दोनों ओर विभाजन स्पष्ट हो चुका था. जल्द ही हुगली जिले के नेता और पूर्व सांसद रूपचंद पाल को मंच पर बुलाया गया. कुछ मिनट बाद जब ज्योति बसु मंच से चले गये (जो पहले से अधिक असंबद्ध और व्याकुल दिख रहे थे), तो पत्रकारों और निचले स्तर के वामपंथी कार्यकर्ताओं के एक समूह ने प्रतिक्रिया के लिए पाल को मंच के पीछे घेर लिया. एक पत्रकार ने कहा : वह बुजुर्ग व्यक्ति सीधा नहीं सोच रहे हैं. यह सिंगूर के बाजेमेलिया के उन ग्रामीणों के बारे में है, जिन्होंने सिंगूर दौरे के दौरान टाटा के अधिकारियों के प्रवेश का विरोध किया और उन्हें झाड़ू व चप्पलें दिखायीं. उन्होंने घर पर बैठकर टीवी पर उसे देखा और चिंतित हो गये. उनका मानना है कि चीजें नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं. इस पर पाल ने संवाददाता से कहा : बुद्ध दा ने उन्हें (बसु को) अन्यथा समझाने के लिए मुझे बुलाया और मैंने उनसे कहा कि हमारी पंचायत और किसान मोर्चा उस क्षेत्र में इतने मजबूत हैं कि यह छोटी-सी चिंगारी ठीक से शुरू होने से पहले ही बुझ जायेगी. सिंगूर में छोटी कार फैक्टरी को कोई खतरा नहीं है. एक-सवा साल बाद, जब रतन टाटा ने नैनो परियोजना को बंगाल से बाहर ले जाने के अपने फैसले की घोषणा की, तो मुट्ठी भर पत्रकारों की नेताजी इंडोर स्टेडियम से जुड़ी स्मृति में निश्चित रूप से वह आक्रोश छायांकित हुआ होगा, जो उस दिन भट्टाचार्य के चेहरे पर पराजित भाव से उत्पन्न हुआ था. भट्टाचार्य ने निश्चित रूप से बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में एक ऐसे नेता के रूप में अपनी जगह बनायी जिसके राज्य के औद्योगीकरण के सपने को भूमि अधिग्रहण के गंभीर समस्याग्रस्त पहलुओं ने विफल कर दिया था. उन्होंने नंदीग्राम और सिंगूर, दोनों में भूमि अधिग्रहण के राजनीतिक व खूनी विरोध को राज्य के औद्योगिकीकरण के अपरिहार्य प्रारूप के लिए ‘झटका’ करार दिया था. दुखद है कि राज्य के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए उनकी सरकार की योजनाओं और जन-आकांक्षाओं की जमीनी हकीकत के बीच सेतु बनाने में असमर्थता एक बड़ा अफसोस है, जिसे भट्टाचार्य ने अपनी आखिरी सांस तक बरकरार रखा होगा.
डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है