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Seraikela Kharsawan News : कुंवर विजय ने मॉडर्न छऊ को दिलायी अंतरराष्ट्रीय पहचान

सरायकेला में विजय प्रताप सिंहदेव की 130वीं जयंती मनी, 1938 में छऊ शैली को पहली बार यूरोप के रंगमंच पर प्रदर्शित किया था

सरायकेला. मॉडर्न छऊ नृत्य के जनक सह सरायकेला की सांस्कृतिक धरोहर के प्रतीक कुंवर विजय प्रताप सिंहदेव की 130वीं जयंती पर सरायकेला छऊ आर्टिस्ट एसोसिएशन के संरक्षक मनोज कुमार चौधरी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी. उन्होंने कहा कि कला और संस्कृति को जीवित रखने वाले विभूतियों को स्मरण करना और उनके योगदान को याद करना सच्ची श्रद्धांजलि है. चौधरी ने कहा कि सरायकेला छऊ को वैश्विक मंच पर पहुंचाने में सरायकेला राज परिवार का ऐतिहासिक योगदान रहा है. लेकिन इस कला को आधुनिक स्वरूप देने और इसकी वैश्विक पहचान स्थापित करने में कुंवर विजय प्रताप सिंहदेव की भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. उन्होंने न केवल छऊ को शास्त्रीयता से ओतप्रोत शैली में रूपांतरित किया, बल्कि इसकी प्रस्तुति में भी आधुनिक प्रयोगों का समावेश करते हुए छऊ को विश्व रंगमंच तक पहुंचाने का कार्य किया. कुंवर साहब की दूरदर्शिता का यह प्रमाण है कि वर्ष 1938 में उन्होंने परिमार्जित छऊ शैली को पहली बार यूरोप के रंगमंच पर प्रस्तुत किया. उस दौर में जब भारत की पारंपरिक कलाएं स्थानीय स्तर तक ही सीमित थीं. उस समय सरायकेला छऊ को वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करना एक साहसिक और ऐतिहासिक कदम था. उनके इस प्रयोग को विश्वभर के कला समीक्षकों, पत्र-पत्रिकाओं और सांस्कृतिक मंचों ने सराहा था. कहा कि सरायकेला छऊ की मूल आत्मा को बरकरार रखते हुए उसमें नयापन और अनुशासन की जो परिकल्पना कुंवर साहब ने की, वह अद्वितीय थी. छऊ नृत्य को केवल शारीरिक गति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसमें सौंदर्यबोध, नाट्यशास्त्रीय गहराई और दृश्यात्मक प्रस्तुति की ऐसी त्रिवेणी रची, जिससे यह कला विश्व रंगमंच पर विशिष्ट बन गयी. उनकी स्मृति को संरक्षित करने में हम असफल रहे: चौधरी ने खेद जताते हुए कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी हम कुंवर विजय प्रताप सिंहदेव की स्मृति में कोई स्थायी स्मारक या सांस्कृतिक केंद्र स्थापित नहीं कर पाये हैं. हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारी सांस्कृतिक पहचान को विश्व में स्थापित करने वाले व्यक्तित्व का सान्निध्य इस धरती को मिला, लेकिन हम उनकी स्मृति के संरक्षण में अब तक असफल रहे हैं. यूरोप के रंगमंच पर प्रस्तुत किया. उस दौर में जब भारत की पारंपरिक कलाएं स्थानीय स्तर तक ही सीमित थीं. उस समय सरायकेला छऊ को वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करना एक साहसिक और ऐतिहासिक कदम था. उनके इस प्रयोग को विश्वभर के कला समीक्षकों, पत्र-पत्रिकाओं और सांस्कृतिक मंचों ने सराहा था. कहा कि सरायकेला छऊ की मूल आत्मा को बरकरार रखते हुए उसमें नयापन और अनुशासन की जो परिकल्पना कुंवर साहब ने की, वह अद्वितीय थी. छऊ नृत्य को केवल शारीरिक गति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसमें सौंदर्यबोध, नाट्यशास्त्रीय गहराई और दृश्यात्मक प्रस्तुति की ऐसी त्रिवेणी रची, जिससे यह कला विश्व रंगमंच पर विशिष्ट बन गयी.

उनकी स्मृति को संरक्षित करने में हम असफल रहे:

चौधरी ने खेद जताते हुए कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी हम कुंवर विजय प्रताप सिंहदेव की स्मृति में कोई स्थायी स्मारक या सांस्कृतिक केंद्र स्थापित नहीं कर पाये हैं. हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारी सांस्कृतिक पहचान को विश्व में स्थापित करने वाले व्यक्तित्व का सान्निध्य इस धरती को मिला, लेकिन हम उनकी स्मृति के संरक्षण में अब तक असफल रहे हैं.

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