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Jatra Tana Bhagat Jayanti: आज (23 सितंबर) को जतरा टाना भगत की जयंती है. उनकी जयंती हमें याद दिलाती है कि सच्ची क्रांति व्यक्तिगत त्याग से उपजती है. उनका जीवन ‘दया से दृढ़ता तक’ आदिवासी समाज को मुख्यधारा से जोड़ने का प्रतीक है. आज भी जब भूमि और संस्कृति के लिए आदिवासियों का संघर्ष जारी है, तब जतरा टाना भगत की अहिंसक राह प्रासंगिक है. गुमला के चिंगरी गांव में उनकी प्रतिमा पर हर साल माल्यार्पण किया जाता है. उनको श्रद्धांजलि दी जाती है. ‘टाना बाबा टाना’ को याद किया जाता है, लेकिन ये मंत्र बस एक दिन के लिए ही जीवंत होते हैं. बाकी दिन लोग इस मूल मंत्र को भूल जाते हैं.
भूमि अधिकारों के लिए लड़ रहे 80 हजार टाना भगत
आजादी के बाद भी जतरा टाना भगत का प्रभाव बरकरार है. झारखंड में 80,000 टाना भगत हैं, जो भूमि अधिकारों के लिए आंदोलनरत हैं. वर्ष 2018 में ‘टाना भगत डेवलपमेंट अथॉरिटी’ बनी, जो उनकी विरासत को मजबूत कर रही है. समाज पर उनका प्रभाव ‘अहिंसा की आदिवासी व्याख्या’ है. यही वजह है कि झारखंड के इतिहास में 23 सितंबर का अलग महत्व है. इस दिन पूरे झारखंड में आदिवासी समुदाय के लोग जतरा टाना भगत की जयंती मनाते हैं.
सत्याग्रही और समाज सुधारक थे टाना भगत
जतरा टाना भगत सच्चे सत्याग्रही और समाज सुधारक थे. 1888 में सितंबर माह में (कुछ स्रोतों के अनुसार 23 सितंबर को) तत्कालीन बिहार के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड में चिंगरी नवाटोली गांव में उनका जन्म हुआ था. बचपन में उनका नाम जतरा उरांव था. बाद में लोग उनको जतरा टाना भगत के नाम से भी जानने लगे. जतरा टाना भगत ने ब्रिटिश साम्राज्य और जमींदारों के शोषण के विरुद्ध आंदोलन करते हुए अपना बलिदान दिया था. उनकी विरासत आज भी ‘टाना भगत आंदोलन’ के रूप में जीवित है.
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Jatra Tana Bhagat Jayanti: गांधी से पहले दिखाया सत्याग्रह का मार्ग
जतरा टाना भगत का आंदोलन न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद और जमींदारी शोषण के खिलाफ था, बल्कि आदिवासी समाज के सांस्कृतिक पुनरोत्थान का प्रतीक भी था. महात्मा गांधी के सत्याग्रह से पहले ही उन्होंने अहिंसक असहयोग का मार्ग दिखाया, जिसे कई इतिहासकार गांधीजी के लिए प्रेरणास्रोत मानते हैं. वर्ष 2025 में उनकी 137वीं जयंती पर, जब आदिवासी अधिकारों की लड़ाई फिर तेज हो रही है, उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और समाज पर प्रभाव को उजागर करने में मददगार साबित होगा. एक ऐसा नजरिया, जो ऐतिहासिक तथ्यों को समकालीन संघर्षों से जोड़ता है.
दया, दृढ़ता और आध्यात्मिक जागृति का संगम थे जतरा टाना भगत
जतरा टाना भगत का व्यक्तित्व साधारण आदिवासी युवक से क्रांतिकारी संत तक का सफर दर्शाता है. बचपन से ही दयालु और संवेदनशील थे. जीव हत्या को सहन नहीं कर पाते थे. कहते हैं कि किशोरावस्था में उन्होंने एक चिड़िया के घोंसले से अंडा उतारते हुए गलती से भ्रूण को नष्ट कर दिया. इससे व्यथित होकर उन्होंने जीव हत्या न करने का संकल्प लिया.
ओझा विद्या सीखते हुए तालाब में ‘धर्मेश’ के दर्शन का दावा
यह भी कहा जाता है कि हेसराग गांव में तुरिया भगत से ‘मति-ज्ञान’ (ओझा विद्या) सीखते हुए, वर्ष 1914 में तालाब स्नान के दौरान उन्हें ‘धर्मेश’ (ईश्वर) का दर्शन हुआ. इस दैवीय अनुभव ने उन्हें ‘टाना बाबा टाना’ मंत्र दिया, जो ‘खींचो और बाहर निकालो’ (शोषण से मुक्ति) का प्रतीक था.

सादगी, अहिंसा और परोपकार के प्रतीक थे टाना भगत
वे सादगी, अहिंसा और परोपकार का प्रतीक थे. सफेद खादी वस्त्र, गांधी टोपी, हल का प्रतीक और तिरंगे के साथ घंटी-शंख बजाते हुए गांव-गांव भ्रमण करते थे. शाकाहारी, मदिरा-मुक्त और कुरीतियों से दूर, उनका जीवन आदिवासी समाज के लिए आदर्श था. दृढ़ इच्छाशक्ति से भरे थे. जेल यातनाओं के बावजूद अहिंसा पर अडिग रहे. जेल से मुक्त होने के मात्र 2 माह बाद वर्ष 1916 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी मृत्यु ने आंदोलन को और मजबूत किया, जैसे बिरसा मुंडा की शहादत ने उलगुलान को उद्वेलित किया था. जतरा टाना भगत का व्यक्तित्व भगवान बिरसा मुंडा के अवतार जैसा माना जाता है, जो आदिवासी अस्मिता को पुनर्जीवित करने वाला था.
टाना भगत आंदोलन के सूत्रधार थे जतरा उरांव
जतरा टाना भगत का कृतित्व धार्मिक सुधार से शुरू होकर राजनीतिक क्रांति तक फैला था. वर्ष 1912-14 में उन्होंने ब्रिटिश राज, जमींदारों और महाजनों के खिलाफ अहिंसक असहयोग का बिगुल फूंका. ‘मालगुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे, टैक्स नहीं देंगे’ का नारा दिया. 21 अप्रैल 1914 को गुमला के चिंगरी से शुरू हुआ टाना भगत आंदोलन उरांव (ओरांव) जनजाति में फैला, जो बिरसा मुंडा के उलगुलान (1900) का विस्तार था. उन्होंने ‘टाना धर्म’ की स्थापना की, जो एकेश्वरवाद, सत्याग्रह और स्वदेशी पर आधारित था.
गांधी जी से मुलाकात के बाद टाना भगत का आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा
वर्ष 1917 में रांची में गांधीजी और राजेंद्र प्रसाद से मुलाकात के बाद जतरा टाना भगत का आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गया. टाना भगतों ने खादी को अपनाया, चरखा चलाया और तिरंगे को देवता माना. वर्ष 1922 के गया अधिवेशन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में उनकी भागीदारी उल्लेखनीय रही. वर्ष 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में गांधीजी को 400 रुपए भेंट किये.
टाना भगत ने आदिवासी महिलाओं को किया सशक्त
जतरा टाना भगत के आंदोलन ने आदिवासी महिलाओं को सशक्त किया. देवमनिया भगत जैसी महिला ने सिसई में आजादी की आग को फैलाया. जेल में यातनाओं के बावजूद, उन्होंने शांति बनाये रखने का वचन दिया, जो आंदोलन की अहिंसक छवि को मजबूत करता है.
जतरा टाना भगत के विशेष कार्यों की सूची
जतरा टाना भगत के कार्य बहुआयामी थे. सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों में वह लगातार सक्रिय रहे. उनके प्रमुख कार्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
| कार्य का प्रकार | विवरण | प्रभाव/विशेषता |
|---|---|---|
| धार्मिक सुधार | भूत-प्रेत अंधविश्वास का खंडन किया, एकेश्वरवाद (धर्मेश) की स्थापना की. पशुबलि, मांसाहार और मदिरा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया. | आदिवासी समाज को वैज्ञानिक दृष्टि दी. ‘टाना बाबा टाना’ मंत्र से आध्यात्मिक एकता का संदेश दिया. |
| सामाजिक जागृति | गौ-रक्षा और शाकाहार का प्रचार किया. झूम खेती का समर्थन, महिलाओं और कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण किया. | कुरीतियों से मुक्ति, देवमनिया जैसी महिलाओं को नेतृत्व प्रदान किया. |
| आर्थिक असहयोग | लगान, टैक्स और बेगारी का बहिष्कार. जमींदारों/महाजनों के लिए मजदूरी बंद करने का आह्वान. | आदिवासी अर्थव्यवस्था को स्वावलंबी बनाया. ‘सारी जमीन ईश्वर की’ का नारा दिया. |
| राजनीतिक क्रांति | अहिंसक सत्याग्रह, ब्रिटिश और जमींदारों के साथ-साथ मिशनरियों का भी विरोध किया. | गांधीजी से पहले सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत कर दी. वर्ष 1919 में राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गये. |
| स्वतंत्रता संग्राम में योगदान | महात्मा गांधी को वर्ष 1940 में 400 रुपये भेंट किये. साइमन कमीशन का विरोध किया. चौकीदारी टैक्स के खिलाफ असहयोग आंदोलन किया. | टाना भगतों ने 1945 में लोहरदगा जिले के कुड़ू थाने पर तिरंगा फहराया था. |
| सांस्कृतिक पुनरोत्थान | तिरंगे की पूजा, खादी, चरखा और गांधी टोपी को टाना भगत और उनके अनुयायियों ने अपनाया. भजन-कीर्तन से समाज में जागृति लायी. | आदिवासी पहचान को राष्ट्रीय धारा से जोड़ा, आज भी टाना भगत घरों में तिरंगा लहराते हैं. |
समाज पर प्रभाव : आदिवासी जागृति से राष्ट्रीय एकीकरण तक
जतरा टाना भगत का प्रभाव उरांव जनजाति से शुरू होकर पूरे छोटानागपुर तक फैल गया, जो 26,000 से अधिक अनुयायियों तक पहुंचा. आंदोलन ने आदिवासी समाज को अंधविश्वास से मुक्त किया. उनका सांस्कृतिक पुनरोत्थान किया, जिससे उरांवों में एकता आयी. सामाजिक स्तर पर, महिलाओं को नेतृत्व मिला और शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद हुई. लगान बहिष्कार ने जमींदारी व्यवस्था को चुनौती दी, जिसका परिणाम वर्ष 1948 के ‘टाना भगत रैयत एग्रीकल्चरल लैंड रेस्टोरेशन एक्ट’ के रूप में आया. हालांकि, कई जमीनें आज भी विवादित हैं.
गहरा था राजनीतिक प्रभाव
वर्ष 1919 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़ाव ने जतरा टाना भगत को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी. टाना भगतों ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहे. गांधीजी ने टाना भगतों को ‘अपना सबसे प्रिय’ कहकर उन्हें मान दिया.
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